शब्द अपने भाव और अर्थ कैसे बदल लेते हैं ? कहां से चलकर कहां पहुंच जाते हैं ? इसी केंद्रीय विषय पर पेश हैं दो भिन्न शिल्प सौंदर्य में दो काव्य रचनाएं –

( 1 )
शब्द – परिधान
…………………
कितना सुंदर मुखड़ा तेरा
कितनी बेहतर भाषा है
जैसा सोचो वैसा नहीं है
कैसी यह परिभाषा है
वक्त के साथ चलते रहना
जीवन की अभिलाषा है
जब अपना रूप बदलते हो
लगती मुझे प्रतिभाषा है
तुझको मैंने जब भी देखा
मिलती नई दिलासा है।
जब चाहो बदलो ख़ुद को
“अनथक ” नहीं निराशा है।
( 2 )
शब्द – सत्य
……….….
जो शब्द
पहले चुभते थे
अब नहीं चुभते
जो शब्द
पहले जिस डील – डौल के थे
आज नहीं दिखते
जो शब्द
पहले छोटे थे
आज बड़े हो गए हैं
कोई इन्हें मांजे
या न मांजे
ये स्वतःस्फूर्त हैं
कभी ठिगने हो जाते
कभी लंबू बन जाते
कभी अपनी धार भोथरी कर लेते
कभी अपने दांत तोड़ डालते
कभी प्रहार खो देते
कभी ये लक्ष्य नहीं भेदते
दूर आकाश में तैरते के तैरते रहते हैं
ये अपने रास्ते ख़ुद बनाते हैं
अपने आपका फ़ैसला करते
ये शब्द बड़े चतुर हैं
बड़े विवेकी हैं
वक्फे – वक्फे से
जगी चेतना भी अपने अधीन रखते हैं
ये शब्द हैं ही ऐसे
जो अपना मौलिक अर्थ खो सकते हैं !
सच बताते रहते हैं
इसलिए नहीं चुभते !!
फिर भी ऐतिबार नहीं इन पर
कब क्या अर्थ दे जाएं
देखते – देखते सुर असुर हो जाए
एक दूसरे के पर्याय बन जाएं
गिरगिट नहीं कि पल में रंग बदलें
गंभीर हैं परिस्थितियों में ढलते हैं…
” श्मशान ” बदल जाते हैं
जलते हैं
गड़ते नहीं
सूरत से जो आई
” सुरती ” हो गई
” मोरस ” से जो गई
मारिशस हो गई
” स्याही “
काली से नीली
हरी आदि बनी
सिर्फ़ हलवा बनाने वाला
हलवाई बन
सभी मिठाइयां बनाने लगा
चीन से ” चीनी “आई
शर्करा, शक्कर भी हुई
तिल का ” तेल ” फैलकर
स्थूलकाय हुआ
” सब्ज़ “
हरे रंग से सब्ज़ी बना
” गोधूम “
गेहूं हुआ
गंदुम हुआ
” गवेषणा ” से अब गाएं नहीं खोजी जातीं
” शोध ” अब
” अनुसंधान ” होता है –
पति – पत्नी दोनों गिरे हुए
कोई उठा नहीं
कोई शिखर पर नहीं
अधिपति नहीं…
क्या से क्या बनते
बनाते ये शब्द
रफ्ता – रफ्ता अलौकिक बन जाते हैं !
फिर बच जाता है
एक ही सत्य !!
शाश्वत !!!
– राम पाल श्रीवास्तव ” अनथक “
विजयादशमी, 5 अक्तूबर 2022

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