वे चकित होकर
बोलीं –
” वो तो मेरा नहीं
मैंने तो जमा किए थे
सिर्फ़ पांच सौ रुपए
और आप कहते हैं
छह सौ दस लो।”
बैंक का क्लर्क
हुआ परेशान
शायद उसने नहीं देखा था
ऐसा इन्सान
कहने लगा –
” मां जी, ये एक सौ दस रुपए हैं
ब्याज के
 उपहार के
सरकार के।”
बूढ़ी मां ने कहा –
” देखो बेटा,
हम मुसलमान हैं
ब्याज नहीं खाते
दुर्गुणों से बचते हैं
समाज को
शोषण मुक्त रखते हैं
सरकार को उसका
ब्याज मुबारक !
यह तो कृतघ्न कार्य है
हमारे लिए परिहार्य है।”
मैं सोचने लगा –
सभी मुसलमान तो ऐसा नहीं करते
” वो तो मेरा है “
कहते हैं
मैं आज तक
इस प्रसंग के
तीस बरस बाद भी
नहीं मिल सका हूं
ऐसे पुण्य जीव से
मां जी सरीखे
दर्शन दुर्लभ है !
हमारा ” गरुड़ पुराण ” भी
यही संदेश देता है –
निषेध करता है –
ब्याज पर पैसे देने को
ब्याज सहित वापस लेने को
ऐसा करनेवाले को अत्याचारी ठहराता है
उसके घर खानेवाले को पाप – भागी ठहराता है
फिर इस पर
अमल कहां होता है?
हाथ भी कहां
मुक्त दान का उठ पाता है?
सब कुछ दुर्लभ हो जाता है !
दुर्लभ जीव लुप्त हो जाता है !!
–  राम पाल श्रीवास्तव ‘अनथक’
( 1992 की एक सत्य – घटना पर आधारित। उसी समय रचित, लेकिन इसमें आज कुछ वाक्य बढ़ाए गए हैं। )

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