हिंदी कहानी ने उतार-चढ़ाव भरे कई दौर गुज़ारे हैं। नए आयामों एवं रुख़ को तय किया है। प्रयोगों और आंदोलनों को भी झेला है। इन सबके चलते निश्चय ही कहानी का शिल्पगत स्वरूप निखरा, लेकिन इसके साथ ही इसका एक स्याह पहलू भी उभरकर सामने आया। वह यह कि अतिशय प्रयोगों और रुझानों के कारण कहानी का जनोन्मुखी पक्ष मारा गया अथवा प्रभावित हुआ !
इसका नतीजा यह मिलना ही था। अंधाधुंध कहानियों के मंज़रे आम पर आने के बावजूद पाठकों की इसके प्रति कशिश कम हुई, जो इस विधा को वर्तमान में पाठकों से दूर खींच ले गई। पहले पाठकों में कहानी के प्रति जो ललक और उत्कंठा दीखती थी, उसमें ह्रास यकीनन चिंतनीय तथा विचारणीय है। आज हम देखते हैं कि पत्र-पत्रिकाओं में छपनेवाली कहानियों के प्रति पाठकों की आमादगी और प्रतीक्षा का दौर लापता हो गया है ! ऐसे माहौल में युवा कथाकार इफराजुल हसन की कहानियां अवश्य ही सुखद एहसास कराती हैं। यह सच है कि पुराना दौर कभी दोबारा नहीं आता। फिर भी प्रयास करने पर उस जैसा बहुत कुछ संभव है। “आख़िरी शहतीर” पढ़ते समय मुझे कुछ ऐसा ही लगा। यह इफ़राज़ का कहानी संग्रह है, जिसमें कुल आठ कहानियां हैं। इनकी खासियत बस इतनी-सी कि सभी एक से बढ़कर एक हैं। यह संग्रह पंख प्रकाशन, मेरठ से 2020 ई. में प्रकाशित हुआ है। 144 पृष्ठीय इस पुस्तक की सभी कहानियां किसी न किसी रूप में ग्रामीण परिप्रेक्ष्य से संबद्ध हैं।
पहली कहानी “दूसरा क़दम”, जो सही मायने में दस्यु कथा है, एक रिवायती समस्या पर केंद्रित है। जैसा कि डाकुओं के बारे में प्रचलित है कि वे अन्याय की उपज हैं, ठीक उसी क्रम में कहानी का ख़ास किरदार भैया जी डकैत सामाजिक असमानता के विरुद्ध संघर्ष का संकल्प लेकर चंबल का दस्यु सरगना बनने की ठानी। सरगना बना, लेकिन समाज का अपेक्षित भला नहीं कर सका। खिन्न होकर उसने आत्मसमर्पण किया और उत्तम आचरण के कारण उसे बरी कर दिया गया। फिर प्रत्यक्ष रूप से समाजसेवा में जुड़ गया, जहां भी उसे अपेक्षित कामयाबी नहीं मिली। उसे जीवन के अंतिम चरण में फूंक-फूंककर चलने का सबक मिला।
सामंती रवैए को बरक़रार रखने के लिए सामंतों को भी पापड़ बेलने पड़ते हैं। यथास्थितिवाद की शोषणकारी सामंती परंपरा को अपनाना पड़ता है। और इसके लिए सतर्क एवं सचेत रहना पड़ता है। लेकिन यह कहना पड़ेगा कि “लीकतंत्र” में चौधरी के करतबों में अतिशयोक्ति की आमेज़िश साफ़ झलकती है। फिर भी कथा का प्रस्तुतीकरण सुंदर है। गंवई “सियासत” के बेढब रूप का अच्छा और प्रभावकारी चित्रण है।
जो है नहीं, वही दिखता है। जो है, उस पर किसी की नज़र नहीं पड़ती। फिर जो जो शिकार चंगुल में आता है, उसे हक़ीक़त का एहसास होने लगता है। असली सफ़ेदपोश वही होता है, जो बहुत होशियारी के साथ भेड़ की खाल ओढ़े रखता है। नादिम वकील ऐसा ही था। उसका नामार्थ भी उसके काम के निकट था। नादिम अर्थात शर्मिंदा होनेवाला, पछताने वाला, हालांकि वह रईस ख़ानदान और अच्छे कुल से ताल्लुक़ रखता था। फिर उसका ऐसा नाम ? कथानक के लिहाज़ से “सफ़ेदपोश” शीर्षक उपयुक्त है। नादिम धोखे से ग़रीब सरफू नामक ग्रामीण के बैनामे को अपने नाम करा लेता है। वकील की छवि ईमानदार और ग़रीबपरवर की होती है। तभी सरफू उसके चंगुल में फंसता है। इस प्रकार यह कथा शिक्षाप्रद एवं इबरतनाक बन जाती है।
चौथी कहानी “आख़िरी शहतीर” बदलते वक्त के थपेड़ों का अदबी चित्रांकन है। मिर्ज़ा साहब की अब वह हैसियत और रुतबा नहीं रहा, जो अरसादराज़ हुआ करता था। हवेली की जीर्ण-शीर्ण आख़िरी शहतीर जो बची थी, वह भी ध्वस्त हो गई। मिर्ज़ा साहब आशान्वित थे कि शहतीर उनके अंतिम समय में काम आएगी, किंतु ऐसा मुमकिन नहीं हो पाया, जिसका उन्हें सहज मलाल था। “आख़िरी वक़्त यह शहतीर हम दोनों के काम आ सकता है। इसके चिरान से काफ़ी लकड़ियां निकलेंगी। हम दोनों को घर की लकड़ी…..।” ( पृष्ठ 71 )
इस संवाद के माध्यम से कथाकार क्या कहना चाहता है, स्पष्ट नहीं है ? क्या दफ़न वाले को लकड़ी की ज़रूरत है ताबूत के लिए ? मिर्ज़ा साहब की व्यथा यह बताने में सक्षम है कि वक़्त किसी का एक जैसा नहीं रहता !
पांचवीं कहानी “रक्तहीन पंजा” एक ग्रामीण के कानपुर पहुंचकर अपराध से सरोकार रखने और पत्नी के दबाव से अपराध से पनाह लेने का वृत्तांत है। अपनी सूझबूझ से राजदीन को एनकाउंटर से बचानेवाली उसकी पत्नी ही ठहरती है। कहानी में यह बात भी आई है कि “हत्या, लूट, फिरौती का धंधा इसके बाद सिमट कर छीना-झपट, धोखाधड़ी, छोटी- मोटी चोरी तक आ पहुंचा।” ( पृष्ठ 84 ) कहानी के अंत में राजदीन ने पुलिस अफसर को बताया कि उसने अपने हाथों से किसी की हत्या नहीं की। फिर इसी पर कहानी का नामकरण हुआ। अद्भुत कथा है यह !
नक्सली संघर्ष की यथार्थपरक रूदाद “झूठा सच” में है। दंतेवाड़ा ( नारायणपुर ) पर आधारित इस कहानी की मुख्य भूमिका निभाती है ज्योति, जिसे नक्सलियों से संबंध रखने के आरोप में सपरिवार जेल भेज भेज दिया जाता है। एक ही पहाड़ पर सूर्योदय और सूर्यास्त की कथाकार की गज़ब की कल्पना है।
“अंगुलियों के निशान” आधार कार्ड को जीवन का एकमात्र सहारा बना दिए जाने की त्रासदी की बखूबी बयान है। कलावती ऐसी ही अभागिन है, जिसके अंगुलियों के निशान न उभरने से उसका आधार कार्ड तमाम भागदौड़ी के बाद भी नहीं बन पाता है और वह किसी भी सरकारी सेवा का लाभ उठाने से वंचित रह जाती है मानो वह भारत की नागरिक ही न हो ! हमारे देश में ऐसे अभागों की भी एक संख्या है, लेकिन सरकार का अड़ियलपना कोई वैकल्पिक उपाय देने में असमर्थ है !
आठवीं अंतिम कहानी “मशीन जैसा आदमी” आज के युग का एक गंभीर मर्म उकेरने में सक्षम है। व्यक्ति किस प्रकार आज एकाकी हो चला है, जिसका उसे गुमान भी नहीं हुआ होगा। चरनजीत प्रसाद अपने भव्य भवन में अकेले जीवन का उत्तरार्द्ध झेलने के लिए अभिशप्त हैं। लड़का फ्रांस पढ़ने गया, तो वहीं का हो गया। लड़की विवाह उपरांत दिल्ली चली गई। पत्नी बीमारी में चल बसी। “मेरे अनुभवों ने मुझे मज़बूत कर दिया …. अब एहसासों के सहारे नहीं जीता, बल्कि मैं “मशीन जैसा आदमी” बन चुका हूं…।” यह कहकर चरनजीत प्रसाद मुतमईन हो चले हैं !
पुस्तक में प्रूफ रीडिंग की समस्या साफ़ झलकती है, लेकिन काग़ज़ उम्दा है। लेआउट बुद्धिमत्तापूर्ण है। कथाकार को उत्तम सृजन हेतु दिली मुबारकबाद !
– Dr RP Srivastava
Editor-in-Chief, Bharatiya Sanvad
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भहराते कथा-भवन की “आख़िरी शहतीर”
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हिंदी कहानी ने उतार-चढ़ाव भरे कई दौर गुज़ारे हैं। नए आयामों एवं रुख़ को तय किया है। प्रयोगों और आंदोलनों को भी झेला है। इन सबके चलते निश्चय ही कहानी का शिल्पगत स्वरूप निखरा, लेकिन इसके साथ ही इसका एक स्याह पहलू भी उभरकर सामने आया। वह यह कि अतिशय प्रयोगों और रुझानों के कारण कहानी का जनोन्मुखी पक्ष मारा गया अथवा प्रभावित हुआ !
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