वे चिरकाल रस्सी खींचते हैं ,
पतवार थामे रहते हैं ,
वे मैदानों में बीज बोते हैं ,
पका धान काटते हैं ,
वे काम करते हैं ,
नगर और प्रान्तर में .
राजच्छ्त्र टूट जाता है ,
रण – डंका बंद हो जाता है .
विजय – स्तम्भ मूढ़ की भांति ,
अपना अर्थ भूल जाता है .
लहूलुहान हथियार धरे हथियारों के
साथ सभी लहूलुहान आँखें .
शिशु पाठ्य कहानियों में
मुंह ढांपे पड़ी रहती हैं .
वे काम करते हैं ,
देश – देशांतर में ,
अंग – बंग – कलिग में
समुद्र और नदियों के घाट – घाट में
पंजाब में , बम्बई में , गुजरात में .
उनके गुरु – गर्जन और गुण – गुण स्वर
दिन – रात में गुंथे रहकर
दिनयात्रा को मुखरित किये रहते हैं .
मुद्रित कर डालते हैं
जीवन के महामंत्र की ध्वनि को
सौ – सौ साम्राज्यों के भग्नावशेष पर .
वे काम किये जा रहे हैं .
= रबीन्द्रनाथ टैगोर