उपन्यास जीवन के विस्तृत पटल पर फैली अनेक कहानियों की एकाकार प्रस्तुति का नाम है। शब्द सीमा से परे वर्णन की स्वतंत्रता, अनर्गल प्रलाप की पूर्ण संभावना को जन्म देती है। इससे बचना लेखक के लिए मुश्किल होने के साथ साथ अपरिहार्य भी होता है। उपन्यास लेखन लेखक के धैर्य और लेखन-कौशल की अग्नि परीक्षा होती है। उपन्यास लिखना लेखक के लिए महायुद्ध लड़ने के समान होता है। जिसमें वह अपनी संपूर्ण कलाओं का एक साथ प्रदर्शन करता है। उपन्यास लेखन किसी लेखक के लिए वह ओलंपिक गेम है जिसमें वह अपनी पूरी ताकत झोंक देता है।
‘त्राहिमाम युगे-युगे’ मझे हुए लेखक, ख्यातिलब्ध पत्रकार और साहित्यजीवी सत्पुरुष रामपाल श्रीवास्तव जी का पहला प्रकाशित उपन्यास है। लेकिन उपन्यास के सौष्ठव को देखकर कहीं से भी ऐसा नहीं लगता कि यह लेखक का पहला उपन्यास है। संपादकीय दायित्वों का निर्वहन करते हुए शायद ऐसे कई मूक उपन्यास लेखक ने पहले भी लिखे होंगे जो दृश्यमान नहीं हैं। इसी का सत्परिणाम यह है कि पहला ही उपन्यास धमाकेदार बन पड़ा है।
गांव की विसंगतियों को उपन्यास में शोध के आधार पर देखकर-सोचकर-समझकर बहुत बारीकी से उभारा गया है। छोटी-छोटी घटनाओं से बनी कड़ियों को जोड़ते हुए उपन्यास धीरे-धीरे आगे बढ़ता है। उपन्यास में पंक्ति-दर-पंक्ति कथा तत्व कूट-कूट कर भरा है।
ग्राम्य जीवन की कोई भी कहानी कई छोटी कहानियों के सार्थक समुच्चय से बनती है। गांवों में अभी तक बहुत कुछ बदल गया है फिर भी एक दूसरे के सुख-दुःख में शामिल होने की भावना अभी तक जीवित है।
माधवकांत सिन्हा, नवीन कुमार और अब्दुल्ला तीन मित्र हैं जो सीवीसी (कोई मीडिया संस्थान) में सहकर्मी भी हैं। इन्हें सीवीसी की तरफ से राप्ती नदी के तराई क्षेत्र में शोध करके एक उपन्यास लिखने का दायित्व सौंपा गया है जिसे पूरा करने के लिए तीनों बलरामपुर जिले के अंतर्गत मैनडीह गांव में राजन बाबू के घर बतौर मेहमान पधारे हैं। वहीं रहकर तीनों आसपास के गांवों में घूमकर आंकड़े इकट्ठा करते हैं और उसे कलम बद्ध करके सीवीसी के कार्यालय में मेल कर देते हैं।
उपन्यास की कथावस्तु यही है कि इन तीनों को विभिन्न गांवों से जो कुछ आंकड़े या कहानियां मिलती हैं उपन्यास में उसी का सजीव वर्णन है।
शुरुआती दिनों में ही अब्दुल्ला को एसएसबी द्वारा शक के आधार पर गिरफ्तार करके पुलिस को सौंप दिया जाता है। जहां पुलिस उस पर कई निराधार आरोप लगाकर जेल भेज देती है।
उपन्यास में करलुआ और बनगेंदवा का विस्तार से वर्णन है। करलुआ एक प्रकार की जंगली सब्जी होती है जो अपने तमाम औषधीय गुणों के बावजूद लुप्त होने के कगार पर है। वहीं बनगेंदवा एक प्रकार की घास है जो जहां भी उगती है वहां से अन्य पौधों का समूल नाश कर देती है। लेखक के अनुसार यह घास अमेरिका द्वारा कीटनाशकों और विभिन्न खादों में मिलाकर देश भर में भेजी गई। जिससे अपने देश की फसलों को चौपट किया जा सके।
ग्राम्य विकास के लिए जिम्मेदार अधिकारियों की अय्याशी कर्मचारियों की अकर्मण्यता, घूसखोरी, सरकारी घन उगाही के लिए किए जा हथकंडे इन सबका वर्णन पढ़कर ऐसा लगता है जैसे यह सब मेरे गांव की ही कहानी हो। जल सिंचाई के लिए बनी नहरों पर खर्च किए जा रहे अरबों रुपयों की उपादेयता सिर्फ इनके अधिकारियों और कर्मचारियों की हरामखोरी में सिमट कर रह जाती है।
एक व्यक्ति यह सोचकर पेड़ लगाता है कि जरूरत पड़ने पर उसे बेचकर अपना काम निकाल सकेगा। लेकिन पुलिस और वन विभाग के अनैतिक व्यवहार के कारण जब वह जरूरत पर काम नहीं आता तो इसका दूरगामी असर होता है। लोग पेड़ लगाने के प्रति उदासीन हो जाते हैं।
उपन्यास में समाज के इस पक्ष को भी उठाया गया है। जो मेरे हिसाब से भी ठीक है। किसी चीज की सार्थक उपयोगिता के बिना समाज में उसका उन्नयन नहीं हो सकता। पेड़ों की संख्या को कायम रखने या बढ़ाने के लिए एक पेड़ काटने के बदले चार पेड़ लगाने की शर्त अगर होती तो शायद स्थिति आज से बेहतर होती।
उपन्यास में रघुवीर नट की व्यथा-कथा है जो व्यथित कर देती है। इसके बाप की मौत कलाबाजी दिखाते हुए हो गई थी। उस समय रघुवीर कम उम्र था। किशोरावस्था में मिले इस दुःख ने उसे जीवट बना दिया था। बाद में कंज का पेड़ जो उसके परिवार का आशियाना था। उसे दबंगों ने हथियाने का गरज से उसके परिवार पर जुल्म किए। अपनों के साथ दुर्घटना और उसपर इलाज कराने के पैसों का न होना अंतर्मन द्रवित हो उठता है ऐसी कहानी सुनकर।
रघुवीर वाले हिस्से में चोंगी लगाने से लेकर नटों की उत्पत्ति उनका इतिहास, करतब, उनके धर्म आदि के बारे में गहनता से चर्चा की गई है। जो ज्ञानवर्धक होने के साथ-साथ रोचक भी है।
बुआ जी की कहानी आई ओपनर है। जब तक धन था उनके देवर देवरानी ने मिलकर खूब आवभगत की गांव का खेत भी बेंचवा लिया। जमा रकम भी निकलवाकर खर्च कर लिया। गहने भी बेंच दिया। फिर अंत में बुजुर्ग महिला के पास जब कुछ नहीं बचा तो उसे घर से निकाल दिया। बुआ जी शिवमन्दिर में पड़ी रोती रहीं फिर राम जी को प्यारी हो गईं। उपन्यास में बहुत भावुक कर देने वाली कथा है यह।
आंख मूंदकर भरोसा करने का कुफल किताब चोर बनकर सामने आता है। जो जिसके यहां काम करता है उसी की किताबें चुराकर इधर उधर बेंच आता है। दुर्भाग्यवश यह अनैतिक कृत्य लेखक के साथ ही घटित हुआ। जिसमें लेखक ने बड़ा मन दिखाते हुए उक्त लड़के के खिलाफ कोई पुलिस कार्यवाही भी नहीं की और बस मन मसोसकर बैठ गए।
अंत से थोड़ा पहले अब्दुल्ला के बरी होने और तीनों लेखकों की संयुक्त कृति त्राहि माम युगे -युगे को पुरस्कृत होने की खुशी है।
उपन्यास के अंत में कहानियां सुना रहे तीनों  पात्रों की मौत एक विमान दुर्घटना में हो जाती है जो कहानी को अटपटा किंतु मार्मिक बना देती है। सूक्ष्म विवरणों और शोधगत तथ्यों के आधार पर यह एक पठनीय उपन्यास है।
समीक्षक : चित्रगुप्त 
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कृति : ‘त्राहिमाम युगे-युगे’
लेखक : राम पाल श्रीवास्तव
विधा : उपन्यास
प्रकाशक : न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन

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