कहानी की भाषा सपाट नहीं होती। उसमें सहजता के साथ अस्वाभाविकता का पुट मिले तो कोई हर्ज नहीं ! लेकिन यदि कहानी में संवेदनशीलता न हो, तो वह कोई पुष्ट कहानी नहीं बन पाएगी। फिर ज़बरदस्ती खींचतान हुई, तो उसकी आत्मा का मरना लाज़िम है, चाहे उसे आत्महत्या नाम दिया जाए अथवा नहीं ! मगर उसकी जीवंतता ज़रूर मारी जाएगी।

लंबे समय से हिंदी कथाक्षेत्र में सृजनरत देवनाथ द्विवेदी का सद्य: प्रकाशित कहानी संग्रह “तृप्ति की बूंद” ऐसी कहानियों का गुलदस्ता है, जो बौद्धिक संवेदना को आदि से अंत तक जीवंत बनाए रखने में पूर्णतः सफल है। सबमें एक तदब्बुराना अंतर्दृष्टि है, जो किसी भी उत्कृष्ट एवं स्तरीय कहानी की उभरी हुईं विशेषता होती है।
समीक्ष्य पुस्तक की भूमिका अर्थात “आत्ममुग्ध लेखक की विनम्र स्वीकारोक्ति” में लेखक ने बड़ी साफ़गोई से काम लेते हुए लिखा है –
“मैं अक्सर अपनी कहानियों में प्रवक्ता या नैरेटर की तरह मौजूद दीखता हूं। यह कहानी के शिल्प में एक दोष की तरह देखा जाता है। मुझे ये आक्षेप स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है।”
बात ठीक भी है। कथाकार कथानक कहां से लाए ? वह अपने इर्द-गिर्द के अनुभवों, साक्ष्यों एवं प्रमाणिक व अपने लिहाज़ से ठोस तथ्यों से ही सनी मिट्टी का लोंदा उठाएगा और अपने मन की फैक्टरी में वांछित आकार देने की कोशिश करेगा। कथाकार ने भी ऐसा ही किया है। प्रस्तुत कहानी संग्रह की सभी बारह कहानियां एक ऐसी अंतर्दृष्टि से आरास्ता हैं, जिनमें कलात्मकता के भरपूर दर्शन होते हैं। इन कहानियों को पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि कथाकार ने उस जीवन और स्थितियों का साक्षात्कार किया है, जिसे वह अपनी कहानियों में उतारना चाहता है।
पहली कहानी “पौष्टिक आहार भत्ता” पुलिस की मटरगश्ती और अकर्मण्यता को भलीभांति उकेरने में सक्षम है। दारोगा मंशाराम पुलिस सिस्टम की सुलभ स्थिति को भोगकर संतुष्ट हैं। “दारोगा जी को लग रहा था कि वे कुतिया के आशीष का अभेद्य कवच ओढ़कर बुढ़िया की बद्दुआओं से पूरी तरह सुरक्षित हो गए हैं।”
“परंपरा जब लुप्त होती है/ सभ्यता अकेलेपन के दर्द से मरती है।” रामधारी सिंह दिनकर ने सच लिखा था। देवनाथ द्विवेदी के कहानी संग्रह की दूसरी कहानी “सोना धोबिन उर्फ़ कहानी एक सदा सुहागिन की” एक ऐसी ही परंपरा के निर्वहन पर टिकी है।  सभ्यता को आत्मसात करती यह कथा सोमवती  अमावस्या के केंद्रीय विषय के गिर्द घूमकर इतर तानेबाने भी बुनती और जीवन मूल्यों को जाग्रत करती है। इसी में एक दादी सोना धोबिन की समकक्ष तसव्वुर कर ली जाती हैं और कथानक रोचक होने के साथ स्थूलकाय हो जाता है। इसकी पेशकश बड़ी दिलचस्प है।
“देह धरे का धर्म” यह बताती है कि आज जब आधुनिक चिकित्सा के नाम पर लूट और ठगी मची हुई है, विक्रम गायकवाड और डॉक्टर संजय जैसे डॉक्टर भी हैं, जो सर्जरी का विकल्प सुझाते हैं – से”वे ( रामेंद्र मोहन ) सर्जरी से ज़्यादा अपने विश्वास के साथ अधिक कंफर्टेबल और सेफ हैं।” इस पर डॉक्टर संजय कहते हैं –
“होपफुली वे अपने विश्वास के सहारे अभी दस अच्छे साल गुज़ार सकेंगे।”
इस कथा को पढ़कर डॉक्टर बिसस्वरूप रॉय चौधरी की पुस्तक “हॉस्पिटल से ज़िंदा कैसे लौटें ?” की याद आ गई, जिसमेें वर्तमानकालीन चिकित्सीय भ्रष्टाचार को भलीभांति उजागर किया गया है।
“गीली मिट्टी” एक मर्मांतक कथा है। बच्चियों के साथ हो रहे अनाचार की बानगी है। आज स्थिति इतनी दुखद और चिंतनीय है कि जिसे भला समझो, वही मौक़ा नहीं चूकता, बल्कि मौक़ा निकाल लेता है, जैसा मुरली अंकल ? जैसे वहशी करते हैं। आज तो परिजनों तक से भी बच्चियां सुरक्षित नहीं, तो किराएदार तो दूर की शै है। अतः किसी पर कैसे विश्वास किया जा सकता है ? इस कहानी के ताल्लुक़ से यह ज़रूर कहा जा सकता है कि कतिपय चीज़ों को और संकेतित शब्द मिलने चाहिए, ताकि भाषा-शुचिता बरक़रार रहे। फिर भी कथानक की भाषा का प्रवाह ग़ज़ब का है। एक मिसाल देखिए –
“तो उस दिन उसी भरोसेमंद मुरली अंकल ने रितु को अकेला पाकर दबोच लिया था… मुरली अंकल की एक नाजायज हरकत की शिकायत भी की थी रितु ने अपनी मम्मी से, अभी एक सप्ताह पहले ही… पर मम्मी ने उसे ही गलत समझा था… बुरा भला कहा था… मार भी दिए थे दो हाथ रितु की पीठ पर… रितु अपने ही घर में अकेली पड़ गई थी… अपने ही तरीके से इस संकट से छुटकारा पाना चाहती थी वह कि मुरली अंकल ने अपने विश्वास की हदें तोड़ दीं… और रितु के प्रतिरोध, चीख पुकार पर काली आंधी की तरह छा गए थे, उसे तोड़-मरोड़ कर … लहूलुहान कर डाला था… रितु जो अभी पूरी तरह बचपना भी नहीं छोड़ पाई थी… अचानक एक वहशी की शिकार बन कर एक टूटी हुई … बुझी हुई… और शरीर के रेशे – रेशे में यातना की स्मृति संजोती कम उम्र की औरत बन गई थी… उसकी आंखों में जो भी सपने थे सबके सब कटी गर्दनों वाले परिन्दों की तरह छटपटा कर शांत हो गए थे… और वह किसी से कह भी नहीं पाई थी … मम्मी एक बार फिर उसे गलत न समझ लें…? यही भय उसे हमेशा के लिए चुप कर गया था… और मुरली अंकल इसके बाद भी निश्चिंत से थे… जैसे उन्हें मालूम हो कि रितु जैसी सीधी लड़की किसी से कुछ नहीं कहेगी और उनका अनुमान गलत नहीं था… सब कुछ गंवाकर भी रितु चुप थी… अपने आप से ही जूझती हुई … क्या करे क्या न करे की असहज स्थिति में … सिर्फ चौदह साल की अबोध लड़की… बेचारी रितु।”( पृष्ठ 55 )
अगली कहानी ” निरुत्तर” इसी का विस्तार है, जिसको अवांछनीय भी कहा जा सकता है, जो कथाकार को उपन्यास का वस्त्र पहनाता मालूम दे सकता है !
“रहस्यमयी” दांपत्य जीवन में बेहतर तालमेल और अपनाइयत न होने के कारण बुरे अंजाम तक ले जाती है। सतीश – सुमीता का जीवन बिखर जाता है। इसे सुमीता ने  कहानी के अंत में कुछ यूं बयान किया है –
“मैंने विवाह के बाद नियमित रूप से समर्पण किया… एक पूर्ण स्त्री के रूप में, एक संस्कारी पत्नी के रूप में… पति के आवेगपूर्ण इच्छाओं के आगे… अपने आवेगों से कहीं ज्यादा पति के आवेगों को तुष्ट करने के लिए… । फिर भी हमारे प्रेम की उड़ान परिपथ से भटके रॉकेट की तरह असफल हो गई। सतीश मेरे शरीर के रेशे – रेशे में, अणु-अणु में अपनी जगह बनाना चाहता था। लेकिन मेरे मन की सतह को बाहर से भी छूने या सहलाने की जरूरत नहीं समझता था… बार- बार जर्मनी चलने के पीछे भी उसकी यही सोच थी । उसमें आत्मीयता का अंश नहीं के बराबर था । यदि आत्मीयता होती तो मैं एक न एक दिन अपना जॉब छोड़ देती… जर्मनी में भी मुझे यहां से अच्छी जॉब मिल सकती थी… पर… ” ( पृष्ठ 81 )
पुस्तक के शीर्षक वाली कहानी भी इसमें ग्यारहवीं कहानी के रूप में संकलित है। इसमें आजकल की बेराहरवी और कुमार्गगमन के सहज परिणाम की अदबी अक्कासी होती है और इसके बुरे नतीजे प्रकट होते हैं। राजन से रूबी का प्रेम इस क़दर दैहिक होता है कि वह वह तीन महीने की हामिला को झांसी में छोड़कर चुपचाप रफूचक्कर हो जाता है, तो सिल्विया तारणहार के रूप में उसके सामने होती है ओर उसको संबल देती है। गर्भपात करवाती है। अन्यान्य सहयोग करती है, यहां तक कि चांद ( चंद्रेश ) से उसकी शादी करवाने में भी मदद करती है, जिसे वह चाहती भी है। चांद को लेकर रूबी का सिल्विया के प्रति बदगुमानी से कथानक में नई रोचकता आ जाती है। अन्य कहानियों की भांति यह भी यथार्थपरक है।
बारहवीं अर्थात अंतिम कहानी “अब्दुल और अमन की कहानी” अंगदान पर आधारित है। अब्दुल यह कहकर अंगदान से इन्कार कर देता है –
“लेकिन हमारे मज़हब में इसकी इजाज़त नहीं है। हम ऐसा नहीं कर सकते।”
यह सच है कि सभी प्रमुख धर्म अंगदान को करुणा और उदारता के अंतिम कार्य के रूप में समर्थन करते हैं। इस्लाम भी इनमें शामिल है। अंगदान के सिलसिले में दर्जनों फ़तवे ( धर्मादेश ) मौजूद हैं, जिससे दकियानूसी सोच की गुंजाइश बाक़ी नहीं।
कहानी संग्रह की सभी कहानियां अपने मंतव्य को सुस्पष्ट करती हैं और कथानक में तारतम्यता बनाए रखती हैं, जो किसी भी उत्कृष्ट कहानी की प्राथमिक शर्त है। किसी-किसी कहानी में डॉट्स अधिक है। यह हिंदी की परंपरा के अनुरूप नहीं है।
बोधि प्रकाशन, जयपुर से छपी इस पुस्तक का आवरण भावपूर्ण एवं चित्ताकर्षक है। 128 पृष्ठों की यह पुस्तक को हाथ में लेते ही पढ़ने का मन करता है। छपाई शानदार है। कथाकार और प्रकाशक दोनों को मुबारकबाद !
– Ram Pal Srivastava
Editor-in-Chief, Bhartiya Sanvad

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