अमृता प्रीतम साहित्य जगत की चमकता सितारा हैं | मूलतः पंजाबी में लिखने वाली उपन्यासकार हैं | कविताएं भी लिखी हैं और पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री होने का श्रेय प्राप्त किया है | 1919 ई. में वर्तमान पाकिस्तान के गुजरांवाला शहर में जन्मी इस महान लेखिका की दो सौ से अधिक रचनाएं हैं | साहिर और इमरोज़ के संपर्क में आने के बाद उर्दू में भी लिखा है , लेकिन कम | उनकी जो पकड़ और उबूर पंजाबी पर है , किसी और पर नहीं , यहाँ तक कि उनकी रचनाओं के अनुवाद में पंजाबी पर गहरी पकड़ न रहनेवाले अनुवादकों ने चूकें भी ख़ूब की हैं | ख़ुशवंत सिंह का अंग्रेज़ी अनुवाद ख़ासकर ‘ पिंजर ‘ का , तो बेहतर है , किन्तु हिंदी में जो साहित्य अनूदित हुआ है , वह दोषयुक्त है | ज़ाहिर है , लेखक को कहाँ इतना अवसर कि वह ठीक करवाए |
साहित्य अकादमी अवार्ड पानेवाली पहली महिला साहित्यकार अमृता प्रीतम ने देश विभाजन के दर्द को बहुत ही क़रीब से देखा और महसूस किया है | उनकी कई रचनाओं में इसकी साफ़ झलक है | मेरे सामने अमृता प्रीतम का लोकप्रिय उपन्यास ‘ पिंजर ‘ है , जिसका आठ भाषाओँ में अनुवाद हो चुका है | 2003 में चंद्रप्रकाश द्विवेदी इस पर फिल्म भी बना चुके हैं , जो किसी कारणवश हिट नहीं हो पाई | इसका कारण मनोरंजन के स्थान पर सामाजिक सरोकार की प्रधानता रही | हालाँकि इसे बेस्ट फ़ीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त हुआ |
‘ पिंजर ‘ का हिंदी अनुवाद मेरे पास है | हिंदी में इसका पहला संस्करण 2014 में आया था | इसके अनुवादक का नाम नहीं दिया गया है , जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं | लेखिका का निधन 31 अक्टूबर 2005 को ही हो गया था | अगर वे जीवित रहतीं , तो ‘ पिंजर ‘ के हिंदी अनुवाद का पुनरावलोकन कर सकती थीं | अनूदित पुस्तक को इस तौर पर प्रस्तुत किया गया है , मानो स्वयं अमृता प्रीतम ने उसे हिंदी में लिखा हो | इसलिए यह उनके नाम पर ईमानदाराना कोशिश नहीं है | प्रफुल्ल राय ने जो ‘पिंजरा ‘ शीर्षक से उपन्यास लिखा है , उसके हिंदी अनुवादक गणेश शंकर शुक्ल हैं |
‘ पिंजर ‘ की कथा विभाजन की वेदना है और सारे संसार के लिए चेतना है | पूरो नामक महिला की दारुण कथा है । विभाजन के पहले वह आज के पाकिस्तान के सीमावर्ती गांव में रहती है। पूरो शाह और रशीद शेख़ हिंदू और मुसलमान है। शाहों और शेख़ों के बीच पुश्तैनी झगड़ा है। दो पीढ़ी पहले शाहों के आदमियों ने शेखों की एक लड़की अपहृत कर ली थी। प्रतिशोध की आग ठंडी नहीं पड़ी | पूरो को रशीद ने अपहृत कर लिया और घोड़ी पर जबरन बैठा कर चंपत हुआ। वह घर छोड़ आने की ज़िद करती है लेकिन रशीद बताता है कि पूरो के लिए अब उसके अपने घर वाले ही अनजान हो गए हैं। लेकिन पूरो को अपने मां-बाप पर भरोसा था। मौक़ा पाकर वह भाग जाती है। रात को अपने घर पहुंचती है। मां और पिता साथ में होते हैं। उसके पिता पूरो को घर में घुसने से रोक देते हैं और कहते हैं कि अब वो पराई हो गई है। वो अपवित्र हो गई और उसका धर्म भ्रष्ट हो गया है | उन्हें डर है कि रशीद का परिवार पूरे परिवार की हत्या कर देगा। उदास मन से पूरो ,रशीद के पास लौटती है। हमीदा बना दी जाती है | उसकी बाईं बाँह पर गहरे हरे अक्षरों में ‘ हमीदा ‘ नाम का गोदना गोदा दिया जाता है | कथा आगे बढ़ती है | देश का विभाजन होता है। विभाजन के बाद की त्रासदी में उसके मंगेतर , जिसका नाम रामचंद है उसकी बहन का अपहरण हो जाता है। पूरो रशीद की मदद से उसे आजाद कराती है। अंतिम दृश्य में पूरो का भाई त्रिलोक उससे भारत चलने के लिए कहता है। मंगेतर रामचंद भी पूरो के साथ ज़िंदगी बिताने के लिए तैयार है | पूरो को यह प्रस्ताव अस्वीकार है | वह फ़ैसला करती है कि वह पाकिस्तान में रशीद के साथ ही रहेगी। पूरो और रशीद परिवार को विदा कर भारी मन से साथ लौटते हैं। रामचंद्र पूरो के सामने हाथ जोड़े खड़ा रहा | कुछ बोल न सका | पूरो ने धरती की ओर अपनी नज़रें झुकाकर रामचंद को अंतिम प्रणाम किया |
अब कुछ हिंदी अनुवाद की चूकें — ‘ पिंजर , 1935 ‘ शीर्षक से कथा शुरू होती है पृष्ठ 7 से | पृष्ठ 8 पर है , ‘ उससे छोटी पूरो की ऊपर तले की तीन बहनें थीं और …’ इसकी कुछ ही पंक्तियों के बाद इसी को लगभग दोहरा दिया गया है , ‘ दो दो बरस के अंतर से ऊपर तले तीन लड़कियों को जन्म देने के कारण …’ , जो अनुवादक के एक प्रकार के पुनरुक्त दोष का सूचक है ! पृष्ठ 9 पर ही ‘ बिधमाता रुस्सी आवीं ते मन्नी जावीं ‘ का हिंदी अर्थ भी दे दिया जाता , तो बेहतर था | इसी पृष्ठ पर ऐसे ही ‘ त्रिखलां दी धाड़ आयी ‘ का हिंदी अनुवाद भी दिया जाना चाहिए | इसी पृष्ठ पर है , ‘ बधाइयां मिलने लगी |’ होना चाहिए ‘ बधाइयां मिलने लगीं | चंद्र बिंदु की बात जाने दीजिए | पृष्ठ 13 पर है , ‘ कमरा … झमाझम कर रहा था |’ होना चाहिए ‘ चमाचम कर रहा था | पृष्ठ 90 पर लाजो कहती है , ‘ मैं यहीं तड़प – तड़प कर मर जाऊंगा | ‘ होना चाहिए ‘ जाऊँगी ‘|
भाषा में उर्दू के हिसाब से बिंदुदारी लगभग नहीं है , अधिकांश मुक्त हैं | जबकि उर्दू के शब्द हैं , जो अधनंगे हैं | कहीं – कहीं बिंदु लगाकर उनकी नग्नता दूर की गई है | पृष्ठ 13 पर है ,’ मिर्चों की तेजी से कुत्ते के दांतों का ज़हर कट जाता है |’ इस वाक्य में ‘ तेजी ‘ को वैसे रहने दिया है , जबकि ज़हर को बिंदु के साथ लिखा गया है | इसकी तीसरी पंक्ति में आए ‘ जहर ‘ को बिना बिंदु के छोड़ दिया गया है | ऐसी ही पूरी पुस्तक में त्रुटियां हैं | पंजाबी गीतों की लाइनें भी यत्र – तत्र बिखरी हुई हैं , जिनका हिंदी अर्थ / भावार्थ नहीं दिया गया है | पुस्तक शिलालेख पब्लिशर्स , शाहदरा , दिल्ली ने छापी है | मूल्य अधिक है , तीन सौ रुपए है | प्रूफ की त्रुटि कुछ अधिक है | ‘ बबुए ‘ को ‘ बबुर ‘ लिखा गया है [ पृष्ठ 23 ] | पृष्ठ 36 पर है , ‘ पूरो एक मुसलमानी थी |’ होना चाहिए , मुसलमानिन थी | ‘ कभी बेसन से रुई साफ़ कर लेती | ‘ [ 37 ] होना चाहिए , रुई से बेसन साफ़ कर लेती | ‘ पूरो उसका सहारा था |’ [ 38 ] होना चाहिए , सहारा थी | अनुवाद में अपेक्षित रवानी नहीं है | यूँ ही लापरवाही के सहारे पूरी पुस्तक समाप्त हो जाती है | पूरी पुस्तक की नज़रसानी और पुनरावलोकन की ज़रूरत है |
कथा में रशीद का किरदार उभरा दिखाया गया है , जबकि उसका चरित्र साफ़ करने का प्रयास दुष्प्रयास ही है | वह एक तो महिला अपहर्ता और दूसरे घोर इन्तिक़ामी [ प्रतिशोधी ] , क्षम्य कैसे ? लेखिका के ‘ वचन ‘ इस प्रकार हैं , ‘ पूरो के अपने गांव वाले , उसकी अपनी बिरादरी वाले ,पूरो के अपने रशीद को छोड़कर , रशीद के सारे संबंधी कुटुंबी भी , वहशी बने फिरते थे | ‘ इस वाक्य में ‘ अपने रशीद ‘ भी ध्यातव्य है | आगे फिर प्रशंसायुक्त जुमला है , ‘ वास्तव में रशीद का दिल खोटा नहीं था …… नहीं तो वह इतना बुरा आदमी नहीं था कि रास्ता चलती किसी की शरीफ़ बहन – बेटी को ज़बरदस्ती अपने घर में डाल लेता | ‘ [ ‘ सक्कड़आली ‘ अध्याय में , पृष्ठ 102 , 103 ]
यह मानना पड़ेगा वह इन्तिक़ामी था, इस्लामी नहीं | वह पूर्वजों का बदला लेने में विश्वास करता था , तभी उसने पूरो का अपहरण किया | इस्लामी होता तो प्रतिशोध में न आता और अज्ञानकाल की इन जाहिली रिवायतों को अपने पैरों तले कुचल डालता , यहाँ तक कि ख़ून का बदला भी नहीं लेता | मगर वह था स्वेच्छाचारी और अपने लोगों को देखकर चलनेवाला | रशीद का यह किरदार विरोधाभासी है | एक ओर वह पूरो को अपहृत करता है , तो दूसरी ओर पूरो की भाभी लाजो को बचाने में पूरो के अनुरोध पर जुट जाता है | वह रत्तोवाल भी जाता है , जहाँ कुछ युवकों द्वारा दो – चार लड़कियों को उठाने की ख़बर थी | पूरो, रशीद से गुज़ारिश करती है कि जैसे मुझे घोड़ी पर बैठाकर भगाया था , वैसे लाजो को यहाँ से निकल | रशीद ऐसा ही करता है और लाजो मुक्त हो जाती है |
यक़ीनन ‘ पिंजर ‘ साहित्य की एक अनमोल धरोहर है | इसका वजूद बाक़ी रहेगा , उस समय तक, जब तक कि प्रलय का आगमन नहीं होता … ” अभी तक प्रलय नहीं हुई थी , अभी तक क़ब्रों में से कोई मुर्दा नहीं उठा था | ” [ ‘ पिंजर ‘, पृष्ठ 95 ]
— Dr R P Srivastava
Editor-in-Chief, bharatiyasanvad.com