सत्य प्रकाश असीम की कविताएं अनगिनत भावों एवं रिश्तों की गहन तलाश और उनका एहतिसाब हैं। इनमें जीवन की नाना प्रकार की अनुभूत गहरी तल्ख़ियां विद्यमान हैं, जो मानव पीड़ा को सहज रूप से निरूपित करने में सक्षम हैं। इसलिए भी उनको दर्द और पीड़ा का कवि भी माना जा सकता है। सुख्यात साहित्यकार पद्मश्री उषा किरण खान ने “सुन समन्दर” की भूमिका में उन्हें स्वांतः सुखाय कवि कहा है। पूरा संग्रह पठनीय है, जबकि इसमें कई दौर की रचनाएं सम्मिलित हैं |
असीम जी मूलतः पत्रकार थे। वे जब प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक आज के पटना संस्करण के स्थानीय संपादक थे, तब मुझे लगभग तीन वर्ष उनके साथ कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ। उनके विशेष संपादकीय में कवित्व गुण पाए जाते थे। जब उन्हें व्यस्तता होती, तो कभी कभी मेरे “विश्लेषण” शीर्षक वाले नियमित स्तंभ की अप्रकाशित क़िस्त का मैटर अपने विशेष अग्रलेख में दे देते। सहज रूप से पाठक समझते कि वह असीम जी का लिखा हुआ है। उन्हें वाहवाही भी देते, तो वे स्पष्ट कह देते, “भाई, वह तो राम पाल जी का लिखा हुआ है। बधाई पाने का अधिकार उन्हें है, मुझे नहीं।”
उनकी कविताएं भी जहां उनकी सादगी बयान करती हैं, वहीं अंतस भावों को उड़ेल देती हैं। उनके अंदर सूफियाना तर्ज़ भी भरा हुआ था। इस कारण कवि अपने दुख दर्द के लिए किसी को उत्तरदायी नहीं मानता। सब परमात्मा के हवाले कर देता है।
यह पुस्तक असीम जी ने अपनी पत्नी और मेरी भाभी सरोज को समर्पित की है। दुखद बात यह है कि आज न भैया रहे और न भाभी जी। संहारी कोरोना ने भैया को छीन लिया। इससे पहले लंबी बीमारी के बाद भाभी जी इस दुनिया से कूच कर चुकी थीं, जिससे भैया स्वाभाविक रूप से काफ़ी मर्माहत और व्यथित थे।
उन्होंने पुस्तक की अपनी बात में “यूं बना गुलदस्ता” शीर्षक से है, लिखते हैं –
” … और इसके बाद सरोज का चले जाना, ये सारा कुछ मेरी कविताओं का हिस्सा है।”
वे पटना में प्रतिष्ठ साहित्यकार एवं पूर्व सांसद शंकर दयाल सिंह के आवास में किराए पर वन रूम सेट लेकर रहते थे। पटना में उनकी शंकर दयाल सिंह के अलावा उषा किरण खान और नागार्जुन से कई बार भेंट हुई। बकौल असीम जी, शंकर दयाल सिंह ने एक बार उनकी मुलाक़ात अज्ञेय जी से कराई थी।
इस काव्य संग्रह में कुल 93 कविताएं हैं, जो विभिन्न रंगों से आशना हैं। सबमें गहराई है, भाव है, प्रवाह है और इनसे बढ़कर प्रस्तुति का ख़ास अंदाज़ है। अर्थ अथवा वस्तु दर्शन का असीम विस्तार है। आइए देखते हैं कुछ उदाहरण –
कवि जीवन से संतुष्ट है। उसकी झोली भर गई। वह कहता है –
मेरी खोली भर दी तूने
कुछ भी नहीं है बाक़ी।
मैं सूफ़ी हूं, मुझको तेरी
एक नज़र है काफ़ी।। ( पृ. 40 )
 एक अन्य स्थान पर है –
तेरी दहलीज़ पर आता
बनके जो भी सैलानी,
नियामत बख़्श देते हो,
कलंदर हो, समन्दर हो।। ( पृ. 98 )
कवि की रचनाओं में जो स्फुट रूप से अध्यात्म के दर्शन होते हैं, वही कवि का असली रूप है। वह इसे सद्भाव सुगंधि के तौर पर भी देखता है –
ऐ अहले मुकद्दर अब
तुझसे न शिकायत है।।
मेरे पहलू में या रब !
अब दो-दो जन्नत है।। ( पृ. 61 )
इसी ज़िम्न में एक स्थान पर उसका स्पष्ट कहन है –
ये शहर या मेरी
यादों का जज़ीरा है,
हर चाल यहां सूफ़ी,
हर बात कबीरा है। ( पृ. 28 )
कवि यहीं नहीं ठहरता, आध्यात्मिकता के समंदर में मोती की तलाश में गोते लगाता रहता है, यह जानते हुए कि ठहरी हुई झील के किनारे सूरज खड़ा है एक लंबी प्रतीक्षा में, जब उसके सपनों का मूर्त अंतरण होगा। कवि के शब्दों में –
नहीं रे, कौन अहिल्या और कौन मायावी इंद्र ?
तू एक झील है
तब जागती हुई।
अब सोती हुई।
जगती है सपनों के लिए
सोती है सपनों के लिए
सब चाहते हैं तू जागती रहे
उनके लिए ऐसा नहीं करना
पूरा कर ले सफ़र।
तेरी बंद पलकों के पहरे पर बैठा मैं
जागता रहूंगा पूरी उम्र। (  पृ. 71 )
कवि अपने अभीष्ट के प्रति अत्यंत आशान्वित है। वह अपना हर क्षण उसे पाने में बिता देता है। अवसर गंवाना उसे गवारा नहीं ! कोई जोखिम उठाना भी उसे गवारा नहीं। कोई चूक भी उसे बर्दाश्त नहीं –
 देर है अभी रात होने में
गोला डूबने से पहले ही
किसी उल्का सा
धरती पर गिरकर
हो जाऊंगा कायनात का
एक नमालूम हिस्सा।
और फिर चूक जाएगी
मेरी एक और कोशिश
तुम्हें तलाश पाने की। ( पृ. 70 )
कवि के यहां निराशा-हताशा के लिए कोई स्थान नहीं। वह बस संघर्ष को नियति मानता है। दो शेअर देखिए –
न हो उदास, मुस्कुराओ कि कोई फूल खिले।
ज़िंदगी चल न, थोड़ा और चलें।।
 ( पृ. 102 )
जब दौड़ना लिक्खा है नियति ने मेरे लिए,
चल देखते हैं ज़िंदगी तू कितना थकाती है।
( पृ. 103 )
ऐसे भी लोग होते हैं, जो अपने चेहरे पर चेहरा लगाते हैं। पता नहीं नहीं चलता कि उनकी वास्तविकता क्या है। अपने दर्द को छिपाना, कुढ़ना और ज़हरीली मुस्कान बिखेरना सभी कुछ उनके द्वारा संभव है। कवि की अभीप्सा है कि ऐसों से किनाराकश रहे –
ओढ़कर चेहरे पर कई चेहरे,
बेवजह हंसते-मुस्कुराते हैं।
ज़िंदगी दर्द का इक दरिया है,
रात दिन डूबते-उतराते हैं। ( पृ. 41 )
कवि सूक्ष्म अनुभूतियों को प्रकट करने में निष्णात है।
दर्द को प्रेम माननेवाले कवि को सत्य का प्रकाश चाहिए ही चाहिए, चाहे इसके लिए उसे अपना सर्वस्व लुटाना पड़ जाए। उसके शब्दों में –
प्रेम यज्ञ के हवन पर्व में
मैं इतना खो जाऊं,
तुम आहुति के हाथ बढ़ाओ
मैं समिधा बन जाऊं।
कवि ने समीक्ष्य पुस्तक में विविध विषयों पर लिखा है। एक कविता में बेटियों की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए वे लिखते हैं –
मां-बाप की समृद्धि हैं, शुभकामना भी हैं,
परमात्मा से करबद्ध याचना हैं बेटियां।।
अगले जनम में भी मुझे बेटी मेरी,
सौभाग्य साथ हो, जहां-जहां हैं बेटियां।।
( पृ. 138 )
151 पृष्ठीय इस पुस्तक के अंतिम तीन पृष्ठों पर क्षणिकाएं दी गई हैं, जिनसे निश्चय ही काव्योक्त का दायरा बढ़ता है | इनमें समय की कड़वाहट के साथ सत्यान्वेष है | देखिए कुछ के भावगुंफित  पैनेपन को –
कर्म बिना भाव बिक गए,
उपलब्धियां उधार हो गईं |
पेट से दिमाग़ जब लड़ा,
बार-बार हार हो गई ||
………………..
सांझ कांपती
रात ठिठुरती
दिन में सिहरन होती है |
ऐसे चलें
उदास हवाएं
जैसे बिरहन होती है | |
……………
नागफनी रातें बीतेंगीं
मैं हूंगा और वह होगी |
सूरज के रथ पर आएगी
ऐसी एक सुबह होगी | |
…….
ज़िंदगी अपनी लतीफ़ा है
इसे आप भी सुनते रहिए |
और फिर इस क़दर हंसिए
कि बस हंसते रहिए ||
मेरे जज़्बात पर क़ब्ज़ा
है सूखे मौसम का,
बनके बादल अगर
चाहें तो बरसते रहिए ||
पुस्तक अनुभव प्रकाशन, साहिबाबाद, ग़ाज़ियाबाद से छपी है | काग़ज़, छपाई उत्तम है | प्रूफ में कुछ बिंदु लगाने को छोड़ कोई दिक़्क़त नहीं है |
– Dr RP Srivastava

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