न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सका मैं वो एक मुश्ते गु़बार हूं
मेरा रंग रूप बिगड़ गया, मेरा बख़्त मुझसे बिछड़ गया
जो चमन ख़िज़ां में उजड़ गया मैं उसी की फस्ले बहार हूं
मैं बसूं कहां मैं रहूं कहाँ, न यह मुझसे ख़ुश न वह मुझसे से ख़ुश
मैं ज़मीं की पीठ का बोझ हूं मैं फ़लक के दिल का गु़बार हूं
पढ़े फातिहा कोई आए क्यों, कोई चार फूल चढ़ाए क्यों
कोई आके शमा जलाए क्यों, मैं वह बेकसी की मज़ार हूं।
बहादुर शाह जफ़र

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