समीक्षा त्रिपाठी जी की एक पोस्ट से प्रेरित होकर मशहूर शायर ग़ालिब की इस सुप्रसिद्ध रचना के भावों को निरूपित करने का प्रयास ——-
बाज़ीचा-ए- अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे |
इक खेल है औरंग-ए-सुलैमां मिरे नज़दीक
इक बात है एजाज़-ए- मसीहा मिरे आगे |
जुज़ नाम नहीं सूरत-ए-आलम मुझे मंज़ूर
जुज़ वहम नहीं हस्ती-ए-अशिया मिरे आगे |
होता है निहां गर्द में सहरा मेरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मिरे आगे |
मत पूछ के क्या हाल है मिरा तेरे पीछे ?
तू देख कि क्या रंग है तेरा मिरे आगे |
सच कहते हो, ख़ुद – बीन ओ ख़ुद-आरा न क्यों हूँ ?
बैठा है बुत-ए-आईना-सीमा मिरे आगे |
फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ्शानी-ए-गुफ़्तार
रख दे कोई पैमाना-ओ-सहबा मिरे आगे |
नफ़रत का गुमां गुज़रे है, मैं रश्क से गुज़रा
क्यों कर कहूँ, लो नाम न उसका मिरे आगे |
ईमां मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ्र
क़ाबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे |
आशिक़ हूँ, प माशूक़-फरेबी है मिरा काम
मजनूं को बुरा कहती है लैला मिरे आगे |
ख़ुश होते हैं पर वस्ल में यों मर नहीं जाते
आई शब-ए-हिजरां की तमन्ना मिरे आगे |
है मौजज़न इक क़ुलज़ुम-ए-ख़ूं, काश यही हो
आता है अभी देखिए क्या-क्या मिरे आगे |
गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मिरे आगे |
हम-पेशा-ओ-हम-मशरब-ओ-हम-राज़ है मेरा
ग़ालिब को बुरा क्यों कहो अच्छा मिरे आगे |
– मिर्ज़ा ग़ालिब
अर्थात, मेरे लिए यह संसार बच्चों के खेल जैसा है | निसवासर यह तमाशा मेरे सामने होता है | मेरी दृष्टि में हज़रत सुलैमान [ पैगम्बर ] का भव्य सिंहासन भी मेरे लिए खेल सदृश है | हज़रत ईसा मसीह द्वारा लोगों को जीवित करने का चमत्कार भी मेरे लिए एक बात भर है | आंशिक रूप से – नाममात्र नहीं संसार का पूरा अस्तित्व मुझे स्वीकार है | आंशिक कल्पना नहीं पूरा सांसारिक अस्तित्व मेरे सामने है | मेरे अस्तित्व के होते रेगिस्तान घूल में छिप जाता है | मेरे आगे समुद्र अपना मस्तक धूल पर घिसता है | तेरे जाने के बाद मेरा क्या हाल है , यह मत पूछ , अपितु यह देख कि तेरा सौन्दर्य मेरे लिए कितना प्रभावकारी है ? सच कहते हो कि मैं गर्वित एवं आत्मअलंकृत हूँ , ऐसा क्यों न हूँ , जब ख़ासकर प्रिय का दर्पण मेरे सामने हो | फिर देखिए बातचीत का यह अन्दाज़ जैसे कि फूल झड़ते हों , जब मेरे आगे कोई मद्यपात्र रख जाए | स्पर्धा की बात आने पर मैं घृणा की कल्पना करने लगा | अतः अब मेरे सामने उसका नाम मत लो |अब हालत क्या है [ मद्यपान उपरांत ] ईमान रोक रहा है पीने से , जबकि कुफ्र [ ईश्वर के इन्कार का भाव ] अपनी ओर खींच रहा है | प्रेमी हूँ , प्रेयसी को रिझाना मेरा काम है |अब तो प्रेमी को ही प्रेयसी बुरा कहती है ! प्रेमी – प्रेमिका के मिलने पर खुश तो होते हैं , पर मर नहीं जाते … अब मैं विलगाव की साँझ का आकांक्षी और पक्षकार हूँ | क्या ही अच्छा हो लहरें मारता हुआ रक्त का समुद्र सामने हो ! फिर अन्य क्या – क्या दृश्य मेरे सामने आते हैं … बस देखते जाइए | यद्यपि हाथों में हरकत नहीं , लेकिन आँखों में दम है , अतः मद्य का प्याला और सुराही मेरे आगे से न हटाओ [ आँखों से पियेंगे ] | मेरे सह व्यवसायी / सहपंथी / राज़दार और विश्वस्त बहुत हैं , फिर लोग ‘ ग़ालिब ‘ को बुरा क्यों कहते हैं … अच्छे तो मुझसे बहुत दूर है अर्थात है ही नहीं !
– Dr RP Srivastava, Editor – in – Chief , ”Bharatiya Sanvad”