विनोद अनिकेत हिन्दी कविता के देदीप्यमान – जाज्वल्यमान नक्षत्र सदृश हैं। इनकी भाषिक संरचना का जवाब नहीं ! भाषा के विशिष्ट सामर्थ्य को उजागर करने का अंदाज़ कोई कवि से सीखे।
यही कविता की ख़ास इकाई है। “अर्धवृत्त में घूमता सूरज” इसका जीवंत उदाहरण है, जो उनका पहला काव्य संग्रह है। इस 103 पृष्ठीय पुस्तक का प्रकाशन 2022 में तालीफ़ प्रकाशन, बरनाला ( पंजाब ) से हुआ है। काग़ज़, छपाई उत्तम है। आवरण दिलकश और अर्थपूर्ण है।
प्रस्तुत संग्रह में कुल 46 छोटी बड़ी कविताएं हैं। सबकी अपनी अपनी ज़मीन, भाव और संवेदना है। रघुवीर सहाय जैसा काव्य स्वरूप है। वैसे भी नई कविता लय का बंधन तोड़े हुए है ही। छायावाद से ही इधर के डग उठे थे, जो छंद की शिथिलता के बाद हरण की परम गति पा गए और नई कविता से लय भी जाता रहा !
 सहज रूप से इस पुस्तक के कवि की कविताओं में काल के प्रभाव का अंतर परिलक्षित होता है। जीवन के उत्तरार्द्ध में पहुंचकर अपनी युवावस्था के उफान को याद करता है, तो कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लगता। उसे पहले की अदम्यता की पूरा एहसास है लेकिन क्या करे, उस समय की बात और थी। देखिए कवि के शब्दों का अनुशासन, जिनमें किंचित नैराश्य के साथ पीड़ा और कसक समाहित है –
अब तो
लगता है कि
मेरे भीतर
कोई जीवन ही नहीं बहता।
तब और बात थी
जब मैं समूचा एक दरिया था।
जिसके अंदर मचलती थीं
धारा के विपरीत चलने को उत्सुक
अनेक मछलियां।
( पुस्तक के बैक कवर से )
“अब तो/ लगता है कि
मेरे भीतर/ कोई जीवन नहीं बहता।” पंक्तियां पृष्ठ 15 पर भी “ग्लासनोस्त के बाद” शीर्षक कविता के अंत में पाई जाती हैं।
कवि समाज को अपने नज़रिए से देखता है और उसकी विडंबनाओं को अपने शब्द कौशल का प्रयोग कर कवित्व प्रदान करता है। उन्हें अपने भावों का बिंब ग्रहण कराता है। उसकी कविता जीवन और वस्तुओं में से मार्मिक कथ्यों एवं तथ्यों को चुन ही लेती है और उनको कल्पना के सहारे चितेरे आयाम देने में व्यस्त हो जाती है।
“मैं और मेरा ब्रह्मांड” शीर्षक की उप कविताओं में सामाजिक कुत्सा की नुक्ताचीनी कवि के “द्वंद्व” की भरपूर अक्कासी करती हैं। कवि कहता है –
मुड़े तुड़े रंगीन काग़ज़ पर
बारह कोठरियों में क़ैद सौर मंडल को
जेब में डाले
बेटी के लिए वर तलाशता फिरता बाप
और सेंट्रली एयरकंडीशंड संन्यास आश्रम में
युवा सेविकाओं से घिरा संत।
( पृ. 73 )
और कभी कचहरी में पक्के खोखे वाला
पीत तिलकधारी वसीका नवीस
चढवा देता है इंतकाल
ब्राह्मण सभा के नाम/ छल से
मेरे मकान का।
( पृ. 74, 75 )
कवि इंसान के शोषण-दमन के नितांत विरुद्ध है। वह उसके विरोध में कुछ बड़ा हस्ताक्षर करता है। अत्याचार को नज़रअंदाज़ करना उसके लिए मानवता के संहार में हाथ बंटाना है। “स्मृति दंश” की ये पंक्तियां इसे यूं सुस्पष्ट करती हैं –
मेरा बाप
जो भरी दोपहरी में
तेरी लौह श्रृंखलाएं काटने गया था
सांझ ढले
झुकी कमर लिए
घर लौट आया
और श्रृंखला भंजक होने का प्रमाण पत्र
व एक ताम्र पत्र
मुझे पैतृक संपत्ति के नाम पर सौंप गया।
( पृ. 55 )
वर्तमान काल पूंजीवादी है। उपभोक्तावादी है, जहां साहूकार अपने माल को खपाने के लिए आवश्यकता पैदा करता है और फिर जनता का आर्थिक दोहन एवं शोषण करता है। स्वास्थ्य और सौंदर्य का पैमाना भी वही तय करता है।
 कवि ने इस विषम स्थिति को अपना स्वर दिया है –
वे बना देते हैं हमारे मसूड़ों को
अपनी बातों से ही
थोड़े ज़्यादा मज़बूत
सुझाते वे हैं हमें खाने को
हाज़मे की गोलियां
बिना पहचाने हमारे हिस्से की भूख।
( पृ. 84 )
आज की राज व्यवस्था इतनी दायित्वविहीन हो चली है कि जनता को आश्वासनों से अधिक कुछ नहीं मिलता। उसके हिस्से में अंधेरे का सूरज ही निकलता रहता है –
फिर दिखने लगी हवाओं में
सुरीले आश्वासनों की तितलियां
फिर पड़ने लगी सुनाई
बस्ती के चारों ओर
लाल हरे केसरिया नीले रंगों की थाप
फिर चढ़ने लगी मुंडेरों तक
सुनहले सपनों की धूप
फिर मुंह में दबाए तिनका
गली मुहल्लों में घूमने लगा बाघ
फिर रंग जाएगा/ लोगों की तर्जनियां
कोई कुशल चितेरा
अब फिर
कटे हुए हाथों से बस्तीवाले
पांच बरस
टोहेंगे अंधेरा।
( पृ. 91 )
कवि की भाषा किसी ख़ास दायरे में न बंधकर पूरा एक समय रचती है। छलनामय वातावरण में वह अनेक परतें खोलकर इंसान के वजूद को संबल देने का प्रयास करता है और समय की क्रूरताओं एवं निराशा भरे माहौल को अपने शब्द देता है। कवि कहता है –
चाहता हूं
खेते रहो
मांझी/ यूं ही
सान्निध्य की नौका।
असीम समय की छाती पर
गिनती के क़दमों तक चलनेवाला
यह जल विहार
युगों से जानता हूं
मुझे/कुछ नहीं देनेवाला
पर/ नहीं चाहता हूं
मैं/ स्वयं नदी के मुंह से सुनना
क्या इतनी जल्दी थक गया
मौन को/ खेनेवाला ?
( पृ. 80, 81 )
समीक्ष्य पुस्तक न केवल काव्य सौंदर्य से परिपूर्ण है, अपितु इसमें गलित और विघटित मूल्यों को चुन-चुन कर उजागर करने की चेष्टा की गई है और आवश्यकता के अनुरूप दर्शनिकता में प्रवेश किया गया है, जो कविताओं को नव सौष्ठव/नव प्रतीक प्रदान करता है, जिसे पढ़कर पाठक संश्लिष्टता के बावजूद विशेष आस्वादन करने लगता है। यह कवि की आत्मोलब्धि है। कवि ऐसे ही और सृजन करे, इसी कामना के साथ…
– Dr RP Srivastava

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