इस समय मेरे हाथ में लेखक-पत्रकार रामपाल श्रीवास्तव की सद्यः प्रकाशित पुस्तक “ सत्ता के गलियारों में सफ़ेद हाथी” है। यह पुस्तक भारतीय मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक, राजनीति समस्याओं पर आधारित 1983 से 2016 के बीच लिखे 51 आलेखों का संग्रह है। हालांकि यह सच है कि आज किसी भी शख़्स का मुसलमानों के पक्ष में बात करना तलवार की धार पर चलना है लेकिन रामपाल जी ने इस धर्म विशेष के प्रति शासन-प्रशासन की ज़्यादतियों और उपेक्षाओं का लेखा-जोखा बेबाकी के साथ प्रस्तुत किया है। साथ ही इस क़ौम के प्रति समाज में फैली ग़लतफ़हमियों को भी रेखांकित किया है।
इस पुस्तक का पहला आलेख “ तुम्हीं सो गए दास्तां कहते-कहते” है। यह शीर्षक ही मुसलमानों के गौरवशाली इतिहास और बर्बादी की दास्तान बयां कर देता है। भारत में इस्लाम के पदार्पण से लेकर आज़ादी के बाद के हालात पर लेखक ने संक्षिप्त पर सारगर्भित रौशनी डाली है। राजा चेरामन पेरूमल के इस्लाम क़ुबूल करने से लेकर मुग़लिया सल्तनत के पतन और अंग्रेजी शासन में मुसलमानों की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है।
“देश की आज़ादी के बाद मुसलमान “ आलेख में लेखक ने आज़ादी के बाद जूझ रहे मुसलमानों के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल की है। रामपाल श्रीवास्तव लिखते हैं – ‘देश के मुसलमानों की अन्यों से पृथक कुछ समस्याएं हैं। सामाजिक स्थिति के साथ उनकी आर्थिक स्थिति भी डांवाडोल है। शिक्षा, रोज़गार में अपेक्षित प्रगति नहीं है। उनका राजनैतिक प्रभाव भी शून्य है। जहां बहुलता है, वहां इनके वोट दिखाई पड़ते हैं, जो अक्सर क्रास वोटिंग में प्रभावहीन हो जाते हैं। इनका कोई अखिल भारतीय राजनीतिक संगठन नहीं है।’
मुसलमानों के भ्रमित होने का सबसे बड़ा कारण इस क़ौम में एकता की कमी और खुद पर एत्माद का ना होना है। लेखक ने इसी ओर इशारा करते हुए लिखा है –’ मुसलमानों का एक सूत्र में न बंधने की उनकी अपनी समस्याएं हैं, जिसका निस्तारण आसान नहीं है। …… यह भी सच है कि मुसलमानों का कुछ प्रतिशत स्थापित आलिमों के निर्देश पर अमल करता है। ऐसे आलिमों की संख्या अधिक होने पर भी मुस्लिम वोट निष्क्रिय हो जाते हैं। मौलाना अबुल हसन नदवी जिसे या जिस पार्टी को वोट देने के लिए कहें, ज़रूरी नहीं कि सैयद अब्दुला बुख़ारी की भी यही हिदायत और सलाह हो।’
मुस्लिम समाज आज के समय में एक दिशाहीन क़ौम है या यूं कह लें कि मुर्दा क़ौम है इसीलिए जब जो चाहता है जुतिया कर चला जाता है। पंजाब के भूतपूर्व उप मुख्यमंत्री और शिरोमणि अकाली दल के मुखिया जनाब सुखबीर सिंह बादल की ये बातें सौ फीसदी सही लगती हैं कि– ‘हिन्दुस्तान में मुसलमानों की आबादी लगभग 18% है। 18% बहुत बड़ी आबादी होती है लेकिन उनमें एकता न होने के कारण वो एक झंडे के नीचे नहीं हैं, उनकी कोई पार्टी नहीं है। बंटे होने के कारण उनकी कोई ताक़त नहीं है इसीलिए उनका कोई प्रतिनिधि नहीं जीतता है। हम सिर्फ़ 2% हैं फिर भी हमारी ताक़त है क्योंकि हम अकाल तख़्त के नीचे एकजुट हैं।’
प्रख्यात पत्रकार कुलदीप नैयर कहते हैं कि– यक़ीनन आज भारत में साम्प्रदायिकता बढ़ रही है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में साम्प्रदायिकता की गर्म हवा दूर से महसूस की जा सकती है, जिसमें मुसलमान खुद को बेबस महसूस कर रहे हैं। लेकिन इसका जवाब मुसलमानों को मुस्लिम साम्प्रदायिकता से नहीं देना चाहिए। वयोवृद्ध मुसलमानों की सोच तो मैं नहीं बदल सकता, लेकिन मुस्लिम नौजवानों को बढ़-चढ़कर ऐसे राजनीतिक दलों में शामिल होना चाहिए जिनकी बुनियाद धार्मिक उन्माद को हवा देकर राजनीति करना न हो अपितु सेकुलरिज्म पर आधारित हो।’
दरअसल आम मुसलमान धर्मगुरुओं और मुस्लिम नेताओं के कारण भी ठगा जाता रहा है। जैसा कि रामपाल श्रीवास्तव जी ने लिखा है कि ज़रूरी नहीं कि जिस पार्टी के पक्ष में अबुल हसन खड़े हों, उसी के पक्ष में अब्दुला बुखारी भी हों। मौजूदा समय में संसद में 27 मुस्लिम सांसद मौजूद हैं पर मुस्लिम समस्याओं पर असदुद्दीन ओवैसी के अतिरिक्त किसी की आवाज़ सुनाई नहीं देती है। देश के मुस्लिम विधायकों की भी कमोबेश यही स्थिति है। ज़्यादातर तो मौके की तलाश में होंगे कि कब किसी पार्टी की तरफ से ऑफर आए और हम सरक लें अपने वोटर्स के मुंह पर तमाचा जड़ कर। बिहार विधानसभा इसका जीता-जागता उदाहरण है। एआईएमआईएम की सीट से जीते पांच मुस्लिम विधायकों में से चार आरजेडी में सरक लिए। तो यह है मुसलमान नेताओं का तंज़ीम को मजबूत करने का तरीक़ा। दरअसल आज मुसलमान मुसलमान का ही गला काट रहा है इसीलिए खुद मुसलमान मुसलमान पर भरोसा करने के बजाय दूसरी कौमों पर ज़्यादा भरोसा करता है। इसी अविश्वास की आंधी में जो क़ौम के प्रति ईमानदार हैं वह भी दरकिनार कर दिए जाते हैं। बीजेपी में भी चोटी के मुस्लिम नेता थे, वह भी मुसलमानों का नहीं, पार्टी का प्रतिनिधित्व करते रहे थे। अब भले ही उनकी औकात एक कौड़ी की भी न रही हो। ऐसी हालत में वोटर्स के पास हक्का-बक्का खड़े रह जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता है। उसे समझ में ही नहीं आता है कि हम विश्वास किस पर करें? कांग्रेस को आजमाया, देश के सारे साम्प्रदायिक दंगे उसी के शासन काल में हुए। नुकसान सिर्फ मुसलमानों का। मुसलमानों ने यक़ीन किया अखिलेश यादव पर लेकिन सबसे ज़्यादा सांप्रदायिक दंगे इनके शासन काल में हुए और नुकसान सिर्फ मुसलमानों का। इसी पुस्तक के एक अन्य आलेख “अल्पसंख्यक कल्याण और अखिलेश सरकार” में लेखक ने वे 41सवाल दर्ज किए हैं जो एक सामाजिक संस्था रिहाई मंच ने सपा सरकार से की थी जिसका सपा सरकार अपने शासनकाल में या अब तक नहीं दे पायी है। किसी भी पार्टी के जो भी मुस्लिम नेता हैं उन्हें खुद पार्टी आगे बढ़ने नहीं देती और उन्हें मौक़े बे मौक़े बलि का बकरा बना देती है। महाराष्ट्र के अहमद पटेल, दिल्ली के ताहिर हुसैन, यूपी के आज़म ख़ान, बिहार के शहाबुद्दीन पार्टियों के लिए आसान चारा रहे हैं। आज सबसे ज़्यादा ज़रूरत है इन सारे मुद्दों पर मुसलमानों को सोचने, मनन करने और उसे क्रियान्वित करने की।
“मुस्लिम सेनानियों की उपेक्षा” आलेख में लेखक ने मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों का ज़िक्र किया है। मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों का देश की आज़ादी में महत्वपूर्ण भूमिका रही है लेकिन कुछ फिरक़ापरस्त उस इतिहास को मिटाना चाहते हैं। लेखक अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए लिखता है– यह बड़े अफ़सोस और चिंता की बात है कि देश के स्वतंत्रता संग्राम के मुस्लिम सेनानियों का किसी भी रूप में उल्लेख तक नहीं किया जाता। जबकि ऐसी अनगिनत मुस्लिम हस्तियां और विभूतियां इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं, जिन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय व बहुमूल्य योगदान दिया। ब्रिटिश राज की नींव हिला दी और उन्हें भारत छोड़ने के लिए विवश किया। अनेक मुस्लिम क्रांतिकारियों, कवियों और लेखकों ने अपने प्राणों की बाज़ी लगा दी। हज़ारों की संख्या में इन्हें शहीद किया गया। मगर हमने इन्हें भुला दिया या यूं कहें, जानबूझ कर इनके योगदानों को भुला दिया गया। प्रख्यात समाजसेवी एवं चिंतक राम पुनयानी लिखते हैं– ‘मुस्लिम नेताओं को स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में वह स्थान नहीं मिला, जिसके वे लायक़ थे। हमारे कई शिक्षाविदों, इतिहासकारों, पाठ्य-पुस्तक लेखकों और सबसे बढ़कर राजनीतिज्ञों की सांप्रदायिक सोच के कारण इन मुस्लिम नेताओं की स्वाधीनता आंदोलन में महती भूमिका को भुला दिया गया या फिर उसे बहुत कम स्थान दिया गया।’ (चौथी दुनिया)
रामपाल श्रीवास्तव लिखते हैं– एक दस्तावेज़ी रिपोर्ट के अनुसार, स्वतंत्रता आंदोलन में गिरफ्तार किए गए मुसलमानों की कुल संख्या 2 लाख 77 हज़ार है। साथ ही शहीद किए गए मुसलमानों की संख्या हज़ारों में है। उदाहरण के तौर पर कुछ आंकड़े इस प्रकार हैं – 1930 में सूबा सरहद (सीमांत प्रदेश) में तीन हज़ार मुसलमानों को गोलियों से उड़ा दिया गया, जबकि चार हज़ार नामर्द बनाए गए और चालीस हज़ार गिरफ्तार किए गए।
लेखक आगे लिखता है कि– भारतीय इतिहास पर निगाह रखने वाले सुगमता के साथ जानते हैं कि स्वाधीनता आंदोलन में आठ प्रमुख मुस्लिम संगठनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिनके नाम हैं – मजलिसे अहरार, खुदाई ख़िदमतगार, ख़िलाफ़त कमेटी, कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस, जमीअतुल उलमा, अंजुमने वतन बलूचिस्तान, प्रजा कृषक पार्टी और ग़दर पार्टी।
महान क्रांतिकारी मौलाना महमुदुल हसन और उबैदुल्ला सिंधी के कारनामे तो स्वाधीनता आंदोलन के स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हैं। राजनीति और कूटनीति के धनी मौलाना मुहम्मद मियां अंसारी के योगदान से दुनिया अनभिज्ञ नहीं है। यह बात दूसरी है कि मुसलमानों के इस अभीष्ट उद्देश्य की प्राप्ति के प्रयासों पर जानबूझ कर प्रकाश नहीं डाला जाता।
अब आते हैं आलेख “सत्ता के गलियारों में सफ़ेद हाथी” पर।इस शीर्षक ने मुझे बेहद प्रभावित किया। इस आलेख में लेखक ने मुस्लिम वक़्फ़ बोर्ड की संपत्तियों और उस पर अवैध क़ब्ज़ों पर चर्चा की है।
वक़्फ़ बोर्ड के पास जो सम्पत्तियां हैं वह उसे दान में मिली हुई सम्पत्तियां हैं और वक़्फ़ बोर्ड को उसे क़ौम के हितार्थ इस्तेमाल करना है लेकिन यदि आप ध्यान देंगे तो दरगाहों और क़ब्रिस्तानों के अलावा वक़्फ़ बोर्ड की कोई सम्पत्ति क़ौम के इस्तेमाल में नहीं आ रही है। देश में फ़ौज और रेलवे के बाद यदि किसी के पास ज़मीनें हैं तो वह है वक़्फ़ बोर्ड। लेकिन न तो यह समाज के काम आ रही है और न ही क़ौम के। यह जो भू-माफिया द्वारा अवैध क़ब्ज़ों का हो-हल्ला मचाया जाता है वह भी क़ौम का ध्यान बांटने के लिए जबकि सच तो यह है कि यह सब गोरखधंधा वक़्फ़ बोर्ड और सरकार की मिलीभगत और जानकारी में होता है। हिन्दुस्तान में अनगिनत संस्थाएं हैं जो समाज के हित के लिए काम करती हैं पर आज तक किसी ने नहीं सुना होगा कि वक़्फ़ बोर्ड ने कोई चैरिटी की हो। कुछ अपवाद हो सकते है पर बड़े पैमाने पर इस बोर्ड ने क़ौम या समाज के लिए कोई काम नहीं किया है। मुस्लिम वक़्फ़ बोर्ड सत्ता के गलियारों की एक ऐसा हाथी है जिसके खाने के दांत अलग हैं और दिखाने के अलग। एक तरह से आप कह सकते है कि मुस्लिम वक़्फ़ बोर्ड पूरी तरह एक ग़ैर-ज़रूरी संस्था है। बोर्ड का मुख्य प्रभारी आईएएस अधिकारी होता है। हालांकि वह मुस्लिम ही होता है पर वह क़ौम के लिए काम नहीं करता है।
रामपाल श्रीवास्तव ने लिखा है – ‘देश के वक़्फ़ सम्पत्तियों पर प्रबंधकों व दूसरे ओहदेदारों की सांठगांठ से बड़े पैमाने पर अतिक्रमण है।’ लेखक आगे लिखता है– 2010 में ही वक़्फ़ संशोधन विधेयक लोकसभा से पारित करा लिया गया था लेकिन उसके बाद सरकार ने राज्य सभा से पारित कराने के बजाय इस गोरखधंधे में शामिल लोगों के विरोध के चलते 2010 में ही खुद ही प्रवर समिति को सौंप दिया था।
पिछले वर्ष यानी 2023 में एक याचिका कर्ता अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में वक़्फ़ बोर्ड की संवैधानिक मान्यताओं पर सवाल खड़ा करते हुए याचिका दायर की थी जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया। इस वर्ष 2024 में बीजेपी सांसद हरनाथ सिंह यादव ने संसद में एक प्राइवेट मेम्बर बिल पेश किया जिसमें उन्हें वक़्फ़ एक्ट 1995 पर एतराज है। दरअसल वक़्फ़ बोर्ड द्वारा तमिलनाडु के एक गांव पर दावा करने के बाद यह मामला गरमा गया। तमिलनाडु के तिरुविरपल्ली जिले के एक तिरुवंथुरई गांव की ज़मीन पर वक़्फ़ बोर्ड के दावे के बाद यह मसला उठा। इस गांव में एक पुराना मंदिर भी है जिसे 1500 साल पुराना मंदिर होने का दावा किया जा रहा है।
सही मायने में देखा जाए तो हर शहर या गांव में जहां मुस्लिम आबादी है, वहां क़ब्रिस्तान के लिए म्युनिसिपल कार्पोरेशन या ग्राम पंचायत ज़मीन की व्यवस्था करती है ऐसे में नहीं लगता है कि इसमें वक़्फ़ बोर्ड की कोई भूमिका होती होगी। वक़्फ़ बोर्ड का मसला एक बहुत बड़ा गोरखधंधा है और यह सारी नौटंकियां समाज में हलचल पैदा करने के लिए की जाती हैं।
“मुसलमानों की आबादी वृद्धि दर में गिरावट” आलेख में लेखक ने उन अफवाहों को ग़लत साबित किया है जिसमें मुस्लिम आबादी का प्रतिशत बढ़ा हुआ लिखा या बताया जाता है। लेखक ने आकंड़ों के जरिए साबित किया है कि– 1991 से 2001 के बीच मुसलमानों की आबादी 29% बढ़ी थी, जो 2001 से 2011 में घटकर 24% रह गई है, हालांकि कुल आबादी की औसत वृद्धि दर 18% ही रही। इसके मुकाबले मुसलमानों की वृद्धि दर मात्र 6% अधिक है जो उसके पूर्वकाल से काफी कम है
“विसंगतियों का सफ़र” आलेख में मुसलमानों की आर्थिक, शैक्षणिक बदहाली का ब्यौरा है। लेखक ने सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के हवाले से लिखा है कि मुसलमानों की सामाजिक -आर्थिक और शैक्षिक हालत में बदलाव नहीं आया है। उल्लेखनीय है कि देश में मुसलमानों की सामाजिक -आर्थिक और शैक्षिक दशा जानने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 2005 में दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस राजिंदर सच्चर की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की थी। 403 पेज की रिपोर्ट को 30 नवम्बर 2006 को लोकसभा में पेश किया गया, जिसके द्वारा पहली बार मालूम हुआ कि भारतीय मुसलमानों की स्थिति अनुसूचित जाति-जनजाति से भी अधिक ख़राब है। लेखक ने आगे लिखा कि सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज की एक रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है – ‘मुस्लिम परिवारों और समुदायों के लिए तय फंड और सेवाएं उन इलाकों में भेज दी जाती हैं, जहां मुसलमानों की संख्या कम है या न के बराबर है।’ सामाजिक न्याय और अधिकारिता पर संसद की शीर्ष समिति की 27वीं रिपोर्ट के मुताबिक – समिति ने पाया कि माइनाॅरिटी कंसंट्रेशन डिस्ट्रिक्ट (एमसीडी) में पैसे का पूरा इस्तेमाल नहीं किया गया। यही नहीं, फंड जिला स्तर पर आवंटित किया जाता है लेकिन यह उन ब्लाक में ज़्यादा चला गया, जहां अल्पसंख्यकों की तादाद कम है।’
लेखक आगे लिखता है – रोज़गार के मामले में यह चौंकाने वाला है कि मनरेगा में मुसलमानों की भागीदारी नगण्य है। उन्हें जॉब कार्ड जारी करने के समय से ही नज़रअंदाज़ किया जाता है। यही नहीं, मुसलमानों को ‘मास आंगनवाड़ी‘ कार्यक्रम, प्राइमरी और एलिमेंट्री शिक्षा कार्यक्रम और मास माइक्रो क्रेडिट प्रोग्राम जैसे प्रमुख कार्यक्रमों में शामिल नहीं किया गया है।
रामपाल श्रीवास्तव ने अपने पत्रकारिता जीवन में 43 वर्षों के बीच जो आलेख लिखे उनमें से मुस्लिम समस्याओं पर आधारित आलेख इस पुस्तक में संकलित किए गए हैं। इस पुस्तक में केवल मुसलमानों के पक्ष में ही चर्चा नहीं है बल्कि ‘वंदे मातरम् का विरोध क्यों?’, ‘बयान फतवा नहीं’ जैसे आलेख में मुसलमानों को भी आड़े हाथों लिया गया है। इस पुस्तक को उन तमाम लोगों को पढ़ना चाहिए जो देश में एकता, समरसता के कायल हैं। यह एक संग्रहणीय दस्तावेज़ी पुस्तक है। रामपाल श्रीवास्तव ने पुस्तक के आलेखनामा में लिखा भी है – “मेरा मानना था और आज भी मेरा यही मंतव्य है कि देश में साम्प्रदायिक सद्भाव, एकता, समरसता और राष्ट्रबोध एक-दूसरे को जानकर और समझकर ही विकसित और कायम किया जा सकता है। एक-दूसरे के दुख-दर्द को अपना समझने और महसूस करने की भावना पैदा कर ही देश में शांति और सद्भाव की फसल लहलहाई जा सकती है। लेखक आगे लिखता है –’पत्रकारिता का गुरुतर दायित्व भी यही है कि सद्भाव और सहयोग के लिए एक-दूसरे को प्रेरित किया जाए और उन्हें हल करने में यथा सामर्थ्य योगदान किया जाए।
“ सत्ता के गलियारों में सफ़ेद हाथी “ शुभदा प्रकाशन, साहिबाबाद से प्रकाशित 194 पृष्ठों की बेहतरीन और संग्रहणीय पुस्तक है जिसका खुले मन से स्वागत किया जाना चाहिए।
– Akhalaq Ahmad Zaei
[ Mumbra ]