review on purva
वरिष्ठ साहित्य सेवी लक्ष्मी नारायण अवस्थी जब पिछले दिनों मेरे आवास पर पधारे , तो ” पूर्वापर ५९ ” [ त्रैमासिक ] का अंक मुझे अवलोकनार्थ इनायत किया | इसका प्रकाशन गोंडा से होता है | अच्छा लगा इसे सरसरी तौर पर देखकर , इसलिए भी कि गोंडा जैसे आंचलिक क्षेत्र से सुपाठ्य एवं स्तरीय पत्रिका का प्रकाशन हो रहा है | अब जब मैंने इसको आद्योपांत पढ़ लिया है , तो यह पूरे वसूक़ से कह सकता हूँ कि यह हिंदी साहित्य जगत की वाक़ई सृजनशील और अनुसंधानपरक पत्रिका है, जिसके संपादक सूर्यपाल सिंह हैं | 
इस अंक में विविध साहित्यिक विधाओं पर आलेख हैं | संपादकीय ” वैश्विकता , राष्ट्रीयता और युद्ध ” पर है | दरहक़ीक़त इसमें वैश्विकता में राष्ट्रीयता की खोज है और युद्ध एक विदूषक है | युद्ध कभी स्वार्थसाधन का आल- ए – कार बन जाता है , तो कभी व्यापार का ! और कभी कुछ और | 
संपादकीय में यह भी कहा गया है कि ” अनेक लोगों को लगता है कि युद्ध न हो तो मनुष्य के शौर्यात्मक गुणों का विकास ही रुक जाएगा । विश्व के अनेक युद्धास्त्र बनाने वाली कंपनियां भी चाहती हैं कि युद्ध की आशंका बनी रहे जिससे युद्धास्त्रों की खरीद होती रहे । युद्ध जहाँ राष्ट्रीयता को धार देते हैं वहीं अनेक लोग यह कहते हुए युद्ध का समर्थन करते हैं कि युद्ध के बिना मनुष्य कायर और पंगु हो जाएगा। युद्ध को मनुष्य की विध्वंसात्मक प्रकृति से भी जोड़कर देखा जाता है। किसी भी युद्ध के कुछ दूरस्थ और तात्कालिक कारण होते हैं । युद्ध ने कुछ सकारात्मक किया है तो बहुत विध्वंसक भी। “
फिर राष्ट्रीयता और अंधराष्ट्रीयता पर अंतर्दृष्टि डाली गई है | इसके अंतर पर प्रकाश डाला गया है | कहा गया है –
” राष्ट्रीयता और अंधराष्ट्रीयता में बहुत बारीक अंतर होता है। अन्ध राष्ट्रीयता को भी अक्सर युद्ध को धार देने वाला चित्रित किया जाता है। आज का मनुष्य जहाँ अनेक नए उपनिषदों की रचना कर रहा है, गारुणी उड़ान भरने में सक्षम है, युद्ध को रोक देने में अक्षम साबित हुआ है। युद्ध होने पर वैश्विक संस्थाएँ भी असहाय सी दिखती हैं । वैश्विक जनमत भी अभी युद्ध के विपक्ष में खड़ा होने की शक्ति नहीं जुटा पाया है। “
संपादकीय में वैश्विकता के आलोक में राष्ट्रीयता के क्षरण पर भी विचार किया गया , जो संपादक की बारीकबीनी का प्रमाण है | साथ ही वैश्विकता के बदलते मिज़ाज पर भी सारगर्भित चर्चा है | 
देवनाथ द्विवेदी का आलेख ” प्रतिरोध की संस्कृति बनाम सहयोग की संस्कृति ” का प्रस्तुतीकरण ग़ज़ब का है | फिर भी यह आवश्यक नहीं कि प्रस्तुत विचारों से मेरी सहमति आवश्यक हो | लेख में कहा गया है कि साम्यवाद में ” समता के अधिकार का अधिकतम समावेश भी होगा। चीजों का बँटवारा सही होगा। अतिरिक्त संचयन और अभाव जैसी अनियमितताएँ न्यूनतम होंगी। वर्गभेद के पैदा होने के सभी अनुचित कारणों पर अंकुश लगेगा। सब तरफ बराबरी का माहौल रहेगा। ऊँच नीच या शोषित जैसी विसंगतियों के पनपने के अवसर घटेंगे। यह सब होगा तो ये मानव के द्वारा विकसित आदर्श स्थिति के सबसे निकट वाला सुंदर परिदृश्य होगा।” लेखक के शब्दों में – ” इस दृष्टि से साम्यवादी विचारधारा और इसे मानने वाला हर व्यक्ति थोड़ा विशिष्ट है और वह इस विशिष्टता को छुपाता भी नहीं। ये विशिष्टता का भाव उसे अक्सर अहंकार और अक्खड़पन का अशोभन मुखौटा भी पहना देता है। ये अक्खड़पन उसके हावभाव, बोलचाल, पहनावा और आदतों में साफ-साफ दिखाई देता है। ऐसा साम्यवादी व्यक्ति अपनी बौद्धिकता को इतना मान-सम्मान देने लगता है कि वह बाकी बहुसंख्य समाज को खुद से कमतर समझने लगता है। फिर तो वह प्राकृतिक चयन और सक्षम की उत्तरजीविता और जीवन संघर्ष के नियमों और परिणामों को भी नकारने लगता है। अपनी विशिष्टता के भ्रम में वह समाज में प्रचलित अंतर्क्रियाओं पर असहमति जताता है। “
डॉ.अवनीश कुमार यादव की देवनाथ द्विवेदी की सृजनशीलता पर ” कलम , कूंची , कैमरे के करिश्माई कलाकार – देवनाथ द्विवेदी ” शीर्षक आलेख बेहतर है | आज बदलाव का युग है | गाँव भी बदल चुके हैं | शहरों का बदलना ‘ अलिखित मुक़द्दर ‘ है | रिश्ते के नवरूपों पर देवनाथ द्विवेदी की काव्य – पंक्तियाँ इस प्रकार हैं –
” आज बैसाखी है कल तक पाँव था ,
शहर के हर शख़्स का इक गाँव था | 
बूढ़ा बरगद हो कि बूढ़ों का असीस ,
कुछ न कुछ था सर पे छप्पर छाँव था | 
वह पड़ोसी था रामू न रहीम ,
मुश्किलों के हल का पहला दाँव था | 
लेख में ग़ज़ल के कतिपय  अन्य मिसालों के साथ गीतों और गद्य – काव्य के भी उद्धरण दिए गए हैं | इस अंक में श्री द्विवेदी के रचना – कर्म पर ही ‘ विशेष आयोजन ‘ है , जो अच्छा बन पड़ा है | इसमें प्रस्तुत ग़ज़लों में ये शेअर भी उल्लेख्य हैं –
” उड़ने की हर कोशिश पर पाबंदी है ,
जाल तने हैं , पिंजरे भी हैं , जेल है | 
इस विकास के मानचित्र पर चौतरफ़ा ,
उखड़ी हुई सड़क है , टूटी रेल है | “
इसी अंक में श्री द्विवेदी पर डॉ. राम कठिन सिंह  संस्मरणात्मक लेख के अतिरिक्त उनकी बाल कविताएँ  और कहानी तथा अन्य रचनाएँ हैं | श्री द्विवेदी से डॉ. सूर्यपाल सिंह का साक्षात्कार बहुत ज्ञानवर्धक है | इसमें द्विवेदी जी के जीवन का सार – संक्षेप आ गया है | यह अंक पठनीय – संग्रहणीय होने के साथ स्तरीयता को बनाए रखने में सक्षम है | पत्रिका की छपाई में कुछ प्रॉब्लम है | एक तो मैटर के पॉइंट कुछ छोटे हैं , ऊपर से स्याही में मिलावट जान पड़ती है ! प्रूफ शोधन उत्तम है , लेकिन नुक़्ते लगाने में बड़ी चूकें हैं , जिनके चलते शब्दों की प्यारी दुनिया वीरान और बेसुरी हो जाती है |  
– Dr RP Srivastava
Editor-in-Chief, Bharatiya Sanvad 

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