सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है। देखना है ज़ोर कितना, बाजु -ए-कातिल में है? वक्त आने दे , बता देंगे तुझे ए आस्माँ ! हम अभी से क्या बतायें, क्या हमारे दिल में है ? पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की महान रचना है | एक लंबी रचना है | अभी कुछ दिनों पहले एन डी टी वी डॉट काम पर बताया गया कि यह बिस्मिल अज़ीमाबादी की रचना है | मैं इस झूठ पर आश्चर्यचकित और हतप्रभ नहीं हुआ , क्योंकि मुझे भलीभांति पता है कि इस असत्य बात को नियोजित ढंग से एल लंबे अरसे से फैलाया जा रहा है |
लगभग 32 वर्ष पहले जब मैं पटना में ”आज ” हिंदी दैनिक के संपादकीय विभाग में शिफ्ट इंचार्ज था , तब एक सज्जन ने बड़े मनोयोग से एक लेख लिखा था , जिसमें इस महान , ओजस्वी गज़ल का रचनाकार बिस्मिल अज़ीमाबादी को बताया गया था | वे पटना के थे | पटना का मुस्लिम सत्ताकाल में पुराना नाम अज़ीमाबाद था | मैंने कहा कि इसे मैं छापूंगा ज़रूर , पर साथ में एक लेख मैंने लिखा , जिसमें वास्तविक रचनाकार पंडित राम प्रसाद बिस्मिल को बताया | उस लेख में मैंने इस रचना की पृष्ठभूमि भी बताई थी | लिखा था कि अशफाक उल्लाह खां , आर्य समाज मन्दिर शाहजहाँपुर में बिस्मिल के पास किसी काम से गये हुए थे । संयोग से उस समय अशफाक जिगर मुरादाबादी की यह गजल गुनगुना रहे थे-
“कौन जाने ये तमन्ना इश्क की मंजिल में है।
जो तमन्ना दिल से निकली फिर जो देखा दिल में है।।”
बिस्मिल यह शेर सुनकर मुस्करा दिये तो अशफाक ने पूछ ही लिया-“क्यों राम भाई ! मैंने मिसरा कुछ गलत कह दिया क्या?” इस पर बिस्मिल ने जबाब दिया- “नहीं मेरे कृष्ण कन्हैया ! यह बात नहीं। मैं जिगर साहब की बहुत इज्जत करता हूँ | मगर उन्होंने मिर्ज़ा गालिब की पुरानी जमीन पर घिसा पिटा शेर कहकर कौन-सा बडा तीर मार लिया। कोई नयी रंगत देते तो मैं भी इरशाद कहता।” अशफाक को बिस्मिल की यह बात जँची नहीं; उन्होंने चुनौती भरे लहजे में कहा- “तो राम भाई! अब आप ही इसमें गिरह लगाइये, मैं मान जाऊँगा आपकी सोच जिगर और मिर्ज़ा गालिब से भी परले दर्जे की है।” उसी वक्त पण्डित पंडित बिस्मिल जी ने ये शेअर कहा-
“सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
देखना है जोर कितना बाजू – ए कातिल में है?”
यह सुनते ही अशफाक उछल पडे और बिस्मिल को गले लगा के बोले- “राम भाई! मान गये; आप तो उस्तादों के भी उस्ताद हैं।” मैंने अन्य स्रोतों से सिद्ध किया कि यह दावा गलत है | उनके लेख के साथ अपना लेख छापा , जो बहुत चर्चित हुआ | वे सज्जन मेरी बात का खंडन न कर सके |
ज्ञातव्य है कि काकोरी कांड के लिए राम प्रसाद बिस्मिल , अशफाकुल्लाह खां और ठाकुर रोशन सिंह को 19 दिसंबर 1927 को अलग – अलग जेलों में फांसी दे दी गई थी | बिस्मिल का उपनाम बिस्मिल के साथ ही ‘राम’ और ‘अज्ञात ‘ है | उन्हें गोरखपुर की ज़िला जेल में प्रातः साढ़े छह बजे फांसी दे दी गई | आर्य समाज की विचारधारा से ओतप्रोत पंडित जी हिंदू – मुस्लिम सद्भावना के बड़े तरफ़दार थे | यह अशफ़ाक़ुल्लाह से उनकी दोस्ती के कारण था |
बिस्मिल को जब फांसी के लिए ले जानेवाले व्यक्ति आए , तो उन्होंने उनके साथ सहर्ष चलते हुए कहा –
मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे
बाक़ी न मैं रहूँ न मेरी आरज़ू रहे
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे
तेरा हो ज़िक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे |
अपनी शहादत से पहले एक अन्य कविता भी लिखी थी , जो इस प्रकार है –
यदि देश हित मरना पड़े तुझको सहस्रों बार भी
तो भी न मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊं कभी
हे ईश भारत वर्ष में शत बार मेरा जन्म हो
कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो
मरते ‘बिस्मिल ‘ रोशन ,लहरी , अशफ़ाक़ अत्याचार से
होंगे पैदा सैकड़ों उनके रुधिर की धार से
उनके प्रबल उद्योग से उद्धार होगा देश का
तब नाश होगा सर्वदा दुःख , शोक के लवलेश का |
पंडित जी ने अपनी शहादत से बहुत पहले ” सरफ़रोशी की तमन्ना अब …..” लिखी थी , जो इस प्रकार है –
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है?
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आस्माँ ! हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है?
एक से करता नहीं क्यों दूसरा कुछ बातचीत,देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है.
रहबरे-राहे-मुहब्बत! रह न जाना राह में, लज्जते-सेहरा-नवर्दी दूरि-ए-मंज़िल में है.
अब न अगले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़,एक मिट जाने की हसरत अब दिले-‘बिस्मिल’ में है
ऐ शहीद , ऐ मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार, अब तेरी हिम्मत का चर्चा गैर की महफ़िल में है.
खींच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उम्मीद, आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है.
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है?
है लिए हथियार दुश्मन ताक में बैठा उधर, और हम तैयार हैं सीना लिये अपना इधर.
खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है, सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.
हाथ जिनमें हो जुनूं , कटते नही तलवार से, सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से,
और भड़केगा जो शोला-सा हमारे दिल में है, सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.
हम तो निकले ही थे घर से बांधकर सर पे कफ़न,जाँ हथेली पर लिये लो बढ चले हैं ये कदम.
जिन्दगी तो अपनी महमां मौत की महफ़िल में है, सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.
यूं खड़ा मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार-बार, “क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है?
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है?
दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्किलाब, होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको न आज.
दूर रह पाये जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है ! सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.
जिस्म वो क्या जिस्म है जिसमें न हो खूने-जुनूँ, क्या वो तूफां से लड़े जो कश्ती-ए-साहिल में है.
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है । देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है ?
– Dr RP Srivastava, Editor- in-Chief, ” Bharatiya Sanvad ”
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