trahimam yuge yuge

त्राहिमाम युगे युगे (उपन्यास)लेखक – राम पाल श्रीवास्तव प्रकाशक -न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन नई दिल्ली प्रथम संस्करण -2024मूल्य -425 रुपए
यह चिरंतन सत्य है कि मृत्यु का निर्धारण जन्म के साथ ही हो जाता है। भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण भी अर्जुन को मृत्यु के स्वाभाविक होने का संदेश देते हैं- “जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।। अर्थात मृत्यु निश्चित है जिस किसी प्राणी ने जन्म लिया है उसकी मृत्यु होना स्वभाविक है।”
लेकिन जब कहीं कोई दम तोड़ता है तो उससे भावनात्मक रूप से जुड़े हुए लोगों को बहुत वेदना होती है। व्यक्ति जितना उसका करीबी होता है वेदना उतनी ही ज्यादा गहन होती है। यदि उस वस्तु को अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए बलात क्षरित करके दम तोड़ने के लिए मजबूर किया जाता है या दूसरे शब्दों में कहा जाए कि उसकी सुनियोजित हत्या की जाती है तो एक संवेदनशील व्यक्ति को अत्यधिक पीड़ा होती है। उसका व्यथित हृदय चीत्कार करने लगता है, “त्राहिमाम प्रभो, त्राहिमाम।”
इस क्षरण या मृत्यु की सतत प्रक्रिया प्राकृतिक एवं अवश्यंभावी है तथा सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही यह शुरू हो जाती है। युगों-युगों से जारी इस प्रक्रिया को मनुष्य ने अपनी लिप्सा से ग्रसित होकर प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का नाजायज़  दोहन कर विलुप्ति के कगार पर पहुँचा दिया है। यह प्रक्रिया आज भी न केवल जारी है बल्कि यह इंसान की बेशर्म हवस के विध्वंस का शिकार हो गई है।

इसी विलुप्त हुए अथवा विलुप्ति की कगार पर खड़े पशु-पक्षी, नदी-नाले, पेड़-पौधे, लोक कला, लोक संस्कृति एवं मानवीय संवेदना की गहन पड़ताल एवं भ्रष्ट व्यवस्था पर चीत्कार करता है आदरणीय राम पाल श्रीवास्तव जी का सद्य प्रकाशित उपन्यास “त्राहिमाम युगे युगे।”
राहुल सांकृत्यायन के “अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा” की तरह संपादक माधवकांत सिन्हा दो सहयोगियों नवीन कुमार तथा अब्दुल्लाह के साथ सीवीसी के भारत प्रमुख कल्पेश पटेल के स्वप्न “ग्रामीण पृष्ठभूमि पर वास्तविकता आधारित औपन्यासिक कृति” को साकार करने के लिए निकल लिए देश के पिछड़ेतम जिले बलरामपुर के ग्राम मैनडीह, जिससे वे अपने उपन्यास में अपने स्वयं के भोगे हुए यथार्थ को हूबहू रच सकें।
प्रकृति ने धरती की प्यास बुझाने के लिए नदी-नालों में कल-कल बहता हुआ निर्मल जल प्रवाहित किया है। हमारे पूर्वज भविष्य दृष्टा थे, उन्होंने जल की महत्ता को महसूस करते हुए तथा मानव की संभावित अबुझ प्यास की कल्पना करते हुए संसाधनों को संरक्षित रखने के उद्देश्य से जल को वरुण देवता तथा नदी-नालों, पेड़-पौधों को देवी-देवताओं के नाम दे दिए थे। राजे-महाराजों ने भी जल संरक्षण के लिए तालाब और डेम बनवाए थे। बलरामपुर रियासत ने नेपाल की तराई में खैरमान बाँध बनवाकर भुलवा नाले को चिरयौवन का वरदान दिया था। किंतु मनुष्य की भेड़ियाई भूख ने उपजाऊ जमीन के लालच में भुलवा जैसे असंख्य नदी-नालों, तालाबों और बांधों की नोंच-खसोट की तथा उन्हें मृतप्राय कर उनका अस्तित्व ही मिटा दिया है। कई बार क्षेत्र भ्रमण या यात्राओं के दौरान बिना नदी-नाले के सड़क पर सीना ताने खड़े पुल और पुलियाओं की हास्यास्पद स्थिति नजर आ जाती है। संभवतः उस जगह के नदी या नाले का अपहरण वहाँ के दबंगों द्वारा कर लिया गया होगा।
दरअसल नदी-नाले तथा कूले-कांतर का अंत होना केवल नदी-नालों का अंत नहीं होता है बल्कि एक सभ्यता का अंत होना होता है। बकौल उपन्यासकार श्रीवास्तव जी की चिंता बाजिव है -“नाले और कूले-कांतर सभ्यता का अभिन्न हिस्सा होते हैं। यदि इनको अच्छे से संरक्षित न किया जाए तो एक समय ऐसा आता है कि हमारी संस्कृति ही नष्ट हो जाती है।” (भुलवा की मौत, पेज 36)
नदी-नाले ही गायब नहीं हुए हैं बल्कि सदियों से आबाद रहे दर्जीपुरवा, तिलकपुरवा जैसे अनेक गाँव विभिन्न कारणों से मानचित्र से गायब हो गए या गायब कर दिए गए हैं। “ऐसे लगभग दो दर्जन गाँव हैं जो अब मानचित्र पर नहीं हैं। पुराने दस्तावेज़ों में कुछ का उल्लेख अवश्य है।” (दो पाटन के बीच में, पेज 90)
नदी गायब हुई, नाले दम तोड़ गए, गाँव विलुप्त हो गए, लोक वाद्य लुप्त हो गए, लोक गायकी खत्म हो गई, यहाँ तक कि पेशेगत जातियों का पेशा लोक कलाएं समाप्त हो गई हैं। पिता दिलावर की नट खेल दिखाने के दौरान हुई मृत्यु से रघुवीर जैसे नट कला के स्थान पर भिक्षावृत्ति करने लगे।
धन-दौलत, जमीन-जायदाद, यौनिकता की बड़ी गजब भूख पैदा कर ली है मनुष्य ने। अपनी हड़प नीति में उसने न लाज-लिहाज का ध्यान रखा है, न मान-मर्यादा का। चाहे वह योगेश द्वारा अपनी विधवा भाभी देवेंद्र कुंवरि के सभी पैसे हड़प लेने के बाद घर से निकालने की घटना हो। “उनके पास अब कुछ भी नहीं है कि धेला भी किसी को कुछ दे सकें। उनकी सगाई वाली सोने की अंगूठी भी तो उषा ने चुरा ली है।” (ये कहानी फिर सही, पेज 134)
या नेहा द्वारा अपने पति राजकुमार के दोस्त भूलन को राजकुमार की जानकारी में होते हुए अपने रूप-सौंदर्य के जाल में फँसाकर 5 बीघा खेत की रजिस्ट्री अपने नाम करा लेने की घटना हो। “अरी सुनत हेव, दुरिया तौ बनाए रहव, जिसिम के साथ आगे ना बढ़ै देव और खेतवक बात कै लेव।” (जमाने से पंगा, पेज 193)
या भूलन के भाई छांगुर द्वारा लता के प्रेम में अपने हिस्से की 5 बीघा जमीन की रजिस्ट्री लता के नाम करने की घटना हो। “जब ऐसी बात है तब हम तुम्हारे साथ इसकी शादी कर देंगे लेकिन एक शर्त है। तुमको अपना 5 बीघा खेत लता के नाम करना होगा।” (जमाने से पंगा, पेज 195)
न केवल उपन्यास में बल्कि समाज में भी कोमल मानवीय संवेदनाओं की जगह धोखाधड़ी, छल-कपट, झूठ-प्रपंच ही दिखाई देते हैं। ग्रामीणों के उत्थान तथा ग्रामीण विकास हेतु सरकार द्वारा चल रही तमाम योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार ने इनमें पलीता लगाने का काम ही किया है। रही बची कसर सरकारों ने जगह-जगह दारू (मेरी व्यंग्य रचनाओं अनुसार राष्ट्रीय पेय) के ठेके खुलवा कर पूरी कर दी है। खैरात में मिले पैसों से ग्रामीण दारू पीकर लत लगा रहे हैं और बाद में अपनी जमीन-जायदाद औने-पौने दामों में बेचकर परिवार को तंगहाली में डाल रहे हैं तथा असमय मौत का शिकार हो रहे हैं।
समाज में मुस्लिमों के प्रति देखने के नजरिए में आए बदलाव को सीमा सुरक्षा बल एवं पुलिस की कार्यवाही से समझा जा सकता है कि किस तरह अब्दुल्लाह को बिना किसी सबूत के केवल मुस्लिम होने के नाते देशद्रोह व आतंकवादी धाराएं लगाकर जेल में बंद कर दिया गया।
उपन्यास ने समाज में व्याप्त तमाम रूढ़ियों यथा गौवंश की मृत्यु पर अनुष्ठान, वन भूमि पर अवैध कब्जा, शिक्षकों द्वारा बच्चों के साथ अमानवीय व्यवहार को भी पाठकों के सामने विचार करने के लिए प्रस्तुत किया है।
किंतु अंत भला तो सब भला। आखिरकार “त्राहिमाम युगे युगे” को योकर पुरस्कार मिल ही गया। लेकिन न जाने क्यों राम पाल जी ने न्यूयॉर्क जाते समय प्लेन क्रेश कराकर कथा को दुखांत बना दिया। मेरी समझ से शायद उनके मन में अब्दुल्लाह को जेल, कोर्ट, कचहरी से बचाने की जद्दोजहद रही होगी।
राम पाल जी उर्दू के विद्वान हैं इसकी झलक उपन्यास में प्रयुक्त हुए उर्दू के शब्दों से मिलती है। पाठक को इन शब्दों के अर्थ जानने के लिए गूगल की मदद लेनी पड़ सकती है। हालाँकि समूचे वाक्य को एक प्रवाह में पढ़ने से अर्थ समझ में आ जाता है।
जैसा कि राम पाल श्रीवास्तव जी ने “दो बातें” में स्पष्ट कर दिया कि वे बलरामपुर के मैनडीह के निवासी हैं। इसलिए उपन्यास के सभी सोलह अध्याय यथार्थ के करीब हैं और माधवकांत में उनकी ही झलक लगने लगती है।
प्रकाशक न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन दिल्ली एवं मुद्रक सूरज प्रिंटर्स दिल्ली द्वारा उपन्यास “त्राहिमाम युगे युगे” का उत्कृष्ट प्रकाशन किया है। बधाई।
पाठकों के द्वारा दी जा रही सतत प्रतिक्रियाएं “त्राहिमाम युगे युगे” की लोकप्रियता को दर्शाती है।
समाज के नंगे सच को पाठकों के सामने लाने के लिए बहुत बहुत बधाई राम पाल श्रीवास्तव जी। और हमसब इस उम्मीद में हैं कि कभी तो नेता,  दबंग, अधिकारी तथा ग्रामीण अपनी-अपनी काली कारगुजारियों पर त्राहिमाम करेंगे।
मधुर कुलश्रेष्ठ नीड़, गली नं 1, आदर्श कॉलोनी गुना पिन 473001 मोबाइल 9329236094

त्राहिमाम युगे युगे (उपन्यास)
लेखक – राम पाल श्रीवास्तव
प्रकाशक -न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन नई दिल्ली
प्रथम संस्करण -2024
मूल्य -425 रुपए
यह चिरंतन सत्य है कि मृत्यु का निर्धारण जन्म के साथ ही हो जाता है। भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण भी अर्जुन को मृत्यु के स्वाभाविक होने का संदेश देते हैं-
“जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।
अर्थात मृत्यु निश्चित है जिस किसी प्राणी ने जन्म लिया है उसकी मृत्यु होना स्वभाविक है।”
लेकिन जब कहीं कोई दम तोड़ता है तो उससे भावनात्मक रूप से जुड़े हुए लोगों को बहुत वेदना होती है। व्यक्ति जितना उसका करीबी होता है वेदना उतनी ही ज्यादा गहन होती है। यदि उस वस्तु को अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए बलात क्षरित करके दम तोड़ने के लिए मजबूर किया जाता है या दूसरे शब्दों में कहा जाए कि उसकी सुनियोजित हत्या की जाती है तो एक संवेदनशील व्यक्ति को अत्यधिक पीड़ा होती है। उसका व्यथित हृदय चीत्कार करने लगता है, “त्राहिमाम प्रभो, त्राहिमाम।”
इस क्षरण या मृत्यु की सतत प्रक्रिया प्राकृतिक एवं अवश्यंभावी है तथा सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही यह शुरू हो जाती है। युगों-युगों से जारी इस प्रक्रिया को मनुष्य ने अपनी लिप्सा से ग्रसित होकर प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का नाजायज़  दोहन कर विलुप्ति के कगार पर पहुँचा दिया है। यह प्रक्रिया आज भी न केवल जारी है बल्कि यह इंसान की बेशर्म हवस के विध्वंस का शिकार हो गई है।
इसी विलुप्त हुए अथवा विलुप्ति की कगार पर खड़े पशु-पक्षी, नदी-नाले, पेड़-पौधे, लोक कला, लोक संस्कृति एवं मानवीय संवेदना की गहन पड़ताल एवं भ्रष्ट व्यवस्था पर चीत्कार करता है आदरणीय राम पाल श्रीवास्तव जी का सद्य प्रकाशित उपन्यास “त्राहिमाम युगे युगे।”
राहुल सांकृत्यायन के “अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा” की तरह संपादक माधवकांत सिन्हा दो सहयोगियों नवीन कुमार तथा अब्दुल्लाह के साथ सीवीसी के भारत प्रमुख कल्पेश पटेल के स्वप्न “ग्रामीण पृष्ठभूमि पर वास्तविकता आधारित औपन्यासिक कृति” को साकार करने के लिए निकल लिए देश के पिछड़ेतम जिले बलरामपुर के ग्राम मैनडीह, जिससे वे अपने उपन्यास में अपने स्वयं के भोगे हुए यथार्थ को हूबहू रच सकें।
प्रकृति ने धरती की प्यास बुझाने के लिए नदी-नालों में कल-कल बहता हुआ निर्मल जल प्रवाहित किया है। हमारे पूर्वज भविष्य दृष्टा थे, उन्होंने जल की महत्ता को महसूस करते हुए तथा मानव की संभावित अबुझ प्यास की कल्पना करते हुए संसाधनों को संरक्षित रखने के उद्देश्य से जल को वरुण देवता तथा नदी-नालों, पेड़-पौधों को देवी-देवताओं के नाम दे दिए थे। राजे-महाराजों ने भी जल संरक्षण के लिए तालाब और डेम बनवाए थे। बलरामपुर रियासत ने नेपाल की तराई में खैरमान बाँध बनवाकर भुलवा नाले को चिरयौवन का वरदान दिया था। किंतु मनुष्य की भेड़ियाई भूख ने उपजाऊ जमीन के लालच में भुलवा जैसे असंख्य नदी-नालों, तालाबों और बांधों की नोंच-खसोट की तथा उन्हें मृतप्राय कर उनका अस्तित्व ही मिटा दिया है। कई बार क्षेत्र भ्रमण या यात्राओं के दौरान बिना नदी-नाले के सड़क पर सीना ताने खड़े पुल और पुलियाओं की हास्यास्पद स्थिति नजर आ जाती है। संभवतः उस जगह के नदी या नाले का अपहरण वहाँ के दबंगों द्वारा कर लिया गया होगा।
दरअसल नदी-नाले तथा कूले-कांतर का अंत होना केवल नदी-नालों का अंत नहीं होता है बल्कि एक सभ्यता का अंत होना होता है। बकौल उपन्यासकार श्रीवास्तव जी की चिंता बाजिव है –
“नाले और कूले-कांतर सभ्यता का अभिन्न हिस्सा होते हैं। यदि इनको अच्छे से संरक्षित न किया जाए तो एक समय ऐसा आता है कि हमारी संस्कृति ही नष्ट हो जाती है।” (भुलवा की मौत, पेज 36)
नदी-नाले ही गायब नहीं हुए हैं बल्कि सदियों से आबाद रहे दर्जीपुरवा, तिलकपुरवा जैसे अनेक गाँव विभिन्न कारणों से मानचित्र से गायब हो गए या गायब कर दिए गए हैं।
“ऐसे लगभग दो दर्जन गाँव हैं जो अब मानचित्र पर नहीं हैं। पुराने दस्तावेज़ों में कुछ का उल्लेख अवश्य है।” (दो पाटन के बीच में, पेज 90)
नदी गायब हुई, नाले दम तोड़ गए, गाँव विलुप्त हो गए, लोक वाद्य लुप्त हो गए, लोक गायकी खत्म हो गई, यहाँ तक कि पेशेगत जातियों का पेशा लोक कलाएं समाप्त हो गई हैं। पिता दिलावर की नट खेल दिखाने के दौरान हुई मृत्यु से रघुवीर जैसे नट कला के स्थान पर भिक्षावृत्ति करने लगे।
धन-दौलत, जमीन-जायदाद, यौनिकता की बड़ी गजब भूख पैदा कर ली है मनुष्य ने। अपनी हड़प नीति में उसने न लाज-लिहाज का ध्यान रखा है, न मान-मर्यादा का। चाहे वह योगेश द्वारा अपनी विधवा भाभी देवेंद्र कुंवरि के सभी पैसे हड़प लेने के बाद घर से निकालने की घटना हो।
“उनके पास अब कुछ भी नहीं है कि धेला भी किसी को कुछ दे सकें। उनकी सगाई वाली सोने की अंगूठी भी तो उषा ने चुरा ली है।” (ये कहानी फिर सही, पेज 134)
या नेहा द्वारा अपने पति राजकुमार के दोस्त भूलन को राजकुमार की जानकारी में होते हुए अपने रूप-सौंदर्य के जाल में फँसाकर 5 बीघा खेत की रजिस्ट्री अपने नाम करा लेने की घटना हो।
“अरी सुनत हेव, दुरिया तौ बनाए रहव, जिसिम के साथ आगे ना बढ़ै देव और खेतवक बात कै लेव।” (जमाने से पंगा, पेज 193)
या भूलन के भाई छांगुर द्वारा लता के प्रेम में अपने हिस्से की 5 बीघा जमीन की रजिस्ट्री लता के नाम करने की घटना हो।
“जब ऐसी बात है तब हम तुम्हारे साथ इसकी शादी कर देंगे लेकिन एक शर्त है। तुमको अपना 5 बीघा खेत लता के नाम करना होगा।” (जमाने से पंगा, पेज 195)
न केवल उपन्यास में बल्कि समाज में भी कोमल मानवीय संवेदनाओं की जगह धोखाधड़ी, छल-कपट, झूठ-प्रपंच ही दिखाई देते हैं। ग्रामीणों के उत्थान तथा ग्रामीण विकास हेतु सरकार द्वारा चल रही तमाम योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार ने इनमें पलीता लगाने का काम ही किया है। रही बची कसर सरकारों ने जगह-जगह दारू (मेरी व्यंग्य रचनाओं अनुसार राष्ट्रीय पेय) के ठेके खुलवा कर पूरी कर दी है। खैरात में मिले पैसों से ग्रामीण दारू पीकर लत लगा रहे हैं और बाद में अपनी जमीन-जायदाद औने-पौने दामों में बेचकर परिवार को तंगहाली में डाल रहे हैं तथा असमय मौत का शिकार हो रहे हैं।
समाज में मुस्लिमों के प्रति देखने के नजरिए में आए बदलाव को सीमा सुरक्षा बल एवं पुलिस की कार्यवाही से समझा जा सकता है कि किस तरह अब्दुल्लाह को बिना किसी सबूत के केवल मुस्लिम होने के नाते देशद्रोह व आतंकवादी धाराएं लगाकर जेल में बंद कर दिया गया।
उपन्यास ने समाज में व्याप्त तमाम रूढ़ियों यथा गौवंश की मृत्यु पर अनुष्ठान, वन भूमि पर अवैध कब्जा, शिक्षकों द्वारा बच्चों के साथ अमानवीय व्यवहार को भी पाठकों के सामने विचार करने के लिए प्रस्तुत किया है।
किंतु अंत भला तो सब भला। आखिरकार “त्राहिमाम युगे युगे” को योकर पुरस्कार मिल ही गया। लेकिन न जाने क्यों राम पाल जी ने न्यूयॉर्क जाते समय प्लेन क्रेश कराकर कथा को दुखांत बना दिया। मेरी समझ से शायद उनके मन में अब्दुल्लाह को जेल, कोर्ट, कचहरी से बचाने की जद्दोजहद रही होगी।
राम पाल जी उर्दू के विद्वान हैं इसकी झलक उपन्यास में प्रयुक्त हुए उर्दू के शब्दों से मिलती है। पाठक को इन शब्दों के अर्थ जानने के लिए गूगल की मदद लेनी पड़ सकती है। हालाँकि समूचे वाक्य को एक प्रवाह में पढ़ने से अर्थ समझ में आ जाता है।
जैसा कि राम पाल श्रीवास्तव जी ने “दो बातें” में स्पष्ट कर दिया कि वे बलरामपुर के मैनडीह के निवासी हैं। इसलिए उपन्यास के सभी सोलह अध्याय यथार्थ के करीब हैं और माधवकांत में उनकी ही झलक लगने लगती है।
प्रकाशक न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन दिल्ली एवं मुद्रक सूरज प्रिंटर्स दिल्ली द्वारा उपन्यास “त्राहिमाम युगे युगे” का उत्कृष्ट प्रकाशन किया है। बधाई।
पाठकों के द्वारा दी जा रही सतत प्रतिक्रियाएं “त्राहिमाम युगे युगे” की लोकप्रियता को दर्शाती है।
समाज के नंगे सच को पाठकों के सामने लाने के लिए बहुत बहुत बधाई राम पाल श्रीवास्तव जी। और हमसब इस उम्मीद में हैं कि कभी तो नेता,  दबंग, अधिकारी तथा ग्रामीण अपनी-अपनी काली कारगुजारियों पर त्राहिमाम करेंगे।
मधुर कुलश्रेष्ठ 
नीड़, गली नं 1, आदर्श कॉलोनी गुना
पिन 473001
मोबाइल 9329236094

कृपया टिप्पणी करें