सुघड़ शब्दों की साधना है ” उम्मीद की हथेलियाँ “
…….
फगवाड़ा के प्रखर कवि दिलीप कुमार पांडेय की ” उम्मीद की लौ ” अभी कुछ दिनों पहले मेरे पढ़ने में आई थी, जिस पर मैंने अपनी सहज ही विचाराभिव्यक्ति प्रकट की थी और बेसाख़्ता सोच बैठा था कि कविता की तरल एवं कोमल थाती पर लौ का क्या काम और मक़ाम ? उस वक़्त शायद मुझे यह नहीं पता था कि आधुनिक कविता प्रचंडता से भी फूटती है ! इस लतीफ़ व नाज़ुक विधा में जब लौ फूटती है, तो विविध भावों की ख़ुशनुमा शमा जल उठती है | ऐसे में कोई रचनाकार उम्मीद का
दामन क्यों छोड़े ? यही तो जिजीविषा है और जीवन का अदम्य सहारा भी |
” उम्मीद की लौ ” आई और चली गई अपने पैग़ाम को आम करने ! अब बड़े ही सुयोग्य और शब्दों की सुघड़ता के महारथी कवि बलवेन्द्र सिंह की शाहकार कविताओं का गुलदस्ता ” उम्मीद की हथेलियाँ ” के रूप मेरे सामने है | यह कवि का पहला काव्य-संग्रह है |
ये दोनों उम्मीद वाली पुस्तकें एक ही प्रकाशन केंद्र बिंब – प्रतिबिंब प्रकाशन, फगवाड़ा [ पंजाब ] से प्रकाशित हैं | आम तौर पर कोई प्रकाशक बआसानी एक ही तरह का या मिलता-जुलता शीर्षक अपनी पुस्तकों के लिए पसंद नहीं करता | ऐसा लगता है कि इन पुस्तकों के शीर्षक-चयन में किसी एक ही महानुभाव का मानसिक श्रम लगा है | संयोग भी संभव है और असावधानी भी | बहरहाल, दोनों ही नाम सुंदर और सार्थक हैं | शैली ” भेषज ” है, जो गोस्वामी तुलसीदास के इस दोहांश के अनुकूल है, क्योंकि ” उम्मीद की हथेलियाँ ” जिजीविषा पैदा करने का एक सशक्त माध्यम है –
” भव भेषज रघुनाथ जसू …. “
निश्चय ही ” उम्मीद की हथेलियाँ ” कवि के रचना-कर्म के प्रति बड़ी उम्मीद जगाती हैं | इसकी रचनाएँ अत्यंत प्रौढ़, पठनीय, सार्थक, स्तरीय और सारगर्भित हैं | किसी भी रचना पर कोई उंगली नहीं उठा सकता | और न शब्द-प्रयोग में कोई शिथिलता व बोझिलपन का ही कोई बोध होता है | अलंकार, वक्रोक्ति आदि का उचित सन्निवेश है | समीक्ष्य पुस्तक में कुल साठ कविताएँ और 25 हिंदी ग़ज़लें हैं | लेकिन हिंदी ग़ज़लों का मजमुआ अलग से आता, तो बेहतर था | फिर भी 148 पृष्ठीय इस पुस्तक के दोनों खंड – कविता और ग़ज़ल – अत्यंत भवोद्बोधक, प्रभावोत्पादक और स्तरीय हैं | संवेदन के आयामों से लेकर जीवन के विभिन्न पहलुओं, एहसासों और चित्रों पर कवि की दृष्टि का कहना ही क्या ! सर्वत्र गहरे भावों और अंतश्चेतना के नाना रूपों का सुंदर बिंबित एवं अभिव्यंजित प्रकटीकरण ही नज़र आता है, जो एक सफल कवि की प्राथमिक पहचान है |
सभी कविताएं जीवंत हैं और नीरसता व भदेसपन से दूर रहकर जीवन की विसंगतियां को उच्छ्वास तथा ज़हूर प्रदान करती हैं | पहली कविता बहुत छोटी है, जो ” देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर ” की उक्ति को सार्थक करती है | यह सात लाइनी है, ” बयान की धार ” है, मसानी भी है, जो मनुष्यता की पीड़ा को बार-बार आवाज़ देने का आह्वान करती है –
” होना तो है ही हमें
ज़िंदगी के तमाम झगड़ों-झमेलों में
सारे हँसी-ठठ्ठे के बीच
प्यार और मनुहार के रहते
होना तो है ही हमें
सदियों से स्थगित होती चीख़ को
बयान की धार देते हुए – “
मानव-मूल्यों का चौतरफ़ा क्षरण जारी है, जिसे रोकने के लिए मुख़्तलिफ़ शक्लों में सदिच्छाएँ और व्यावहारिकताएं कारफ़रमा होने लगती हैं | यह प्रकृति का स्वाभाविक नियम है | इनमें काव्य-लेखन एक शस्त्र के तौर पर हमारे सामने आता है |
” उम्मीद की हथेलियाँ ” का कवि इसी शस्त्र का बख़ूबी इस्तेमाल करता है | लेकिन मानव-मूल्यों की पुनर्नवाई के सिलसिले में कवि के पास शायद एक बेहतरीन विकल्प के रूप में प्रार्थना ही सम्मुख है | वह कह उठता है –
” प्रार्थना यही है सदा-सदा —
इन्सान में बची रहे थोड़ी-सी इन्सानियत
जैसे कहन से कभी चुके न उम्मीद और
भाषा भी बनी रहे तमीज़ के लिए गुंजाइश | “
इसी प्रकार कवि जीवन के झंझावातों के बीच सुखद भविष्य के प्रति आशान्वित है | उसे जन-जीवन की आपन्न अवस्थाएँ बहुत दुखती हैं और वह स्वत्व को मरते देखता है, तो उसे स्वर देना अपना फ़र्ज़ समझता है –
” अजब विश्वास है उनका कि
अन्हुओं को होना सिखाएँगी ये कविताएँ
इनमें से जिभकटों की बात बोलेगी
जब गाँव के पास पहुँचेगी मोटर-रोड
विश्वास की बलि चढ़े खेतों का
उचित मुआवज़ा दिलाएँगी कविताएँ
ये तिल-तिल खटती ज़िन्दगी में से
आत्मा के सूदख़ोरों को करेगी निकाल बाहर | “
कवि का दार्शनिक अंदाज़ हर किसी को भा सकता है, किसी के भी दिल में उतर सकता है, क्योंकि कोई भी इसे स्व का रूप दे सकता है मनुष्यता के नाते | ” मुझे खोजना ” वास्तव में अन्तस की खोज है, बेजोड़ है | भेंट कहीं भी हो फ़र्क़ नहीं पड़ता –
” रग्घू मजूर के पैताने बैठूँ
दिख ही पडूँगा कहीं भी —
फूटते कल्लों में, उछाह भरे चैत-बैसाख कि
धान-रोपाई के गीतों में लहक-लहक जाऊँगा ! “
चैत-बैसाख में ही धान-रोपाई का युग आया हुआ है | चहुंओर कृत्रिमता की चादर फैली हुई है ना | इसलिए हमें अच्छी शुरुआत का संकल्प लेना है –
” शुरुआत करो बेहतर कल की
हाँ, करो शुरू आपस में किसी बात से
बस तनिक एहतियात से ! “
जीवन में उमंग और चाहत न हो, तो निरर्थक है | प्रतिकूल परिस्थितियाँ इन मनोभावों के मार्ग में बाधा बनती हैं | अनाचार की आड़ बन जाती हैं, तो इन्हें ख़ूबसूरत-सा तमग़ा देकर अनदेखेपन को प्रगाढ़ कर दिया जाता है ! कवि का संकेत इसी ओर है –
” उस अबोले, अलिखे , असमझे का
भाष्य होना था जिस ‘ चीख़ ‘ को
उसके हाथों में थमा दिया
गूंगेपन का चमचमाता प्रशस्ति-पत्र | “
बदहाली और अभाव जब ज़ोर मारते हैं, तो सांत्वना भी बड़ा सहारा बन जाती है | कभी दुःख और परेशानी का आलम छंटता ही नहीं |
ऐसी स्थितियों से कविमन का विचलित होना लाज़िमी है | फिर चाहे वह निराला की ” तोड़ती पत्थर ” हो या बलवेन्द्र सिंह की ” कंडे पाथती औरत ” हो, सभी जगह उसकी पीड़ा झलकने और लिपिबद्ध होने लगती है | इन कवियों की संदर्भगत प्रस्तुतियाँ अपने आप में कविबोध भी समेटे हुए हैं, जिनमें ” कंडे पाथती औरत ” की दुर्दशा और ज़लालत अधिक है | काव्य-सौंदर्य भी अधिक निखरा हुआ है |
पढ़िए, इस लंबी कविता की कुछ पंक्तियाँ और मेरे अभिमत पर विचार कीजिए –
” अपने श्रम की आँच में सूखे
कंडों के भीतर छिपे ताप को
हरदम दहकता देखना चाहती वह ।
इस सदी में कंडे थापती औरत को
है मालूम कि इन्हीं की आग के अगल-बग़ल बैठकर
सभ्यताओं ने बाँची जब दुःख भरी लम्बी कथाएँ
कई पीढ़ियों ने तब दिए साथ-साथ हुँकारे
यों कर छकाया बैरन कटकटाती ठंडियों को ।
कसमसाती हड्डियों वाली ठुरठुराती देहों में
इन्हीं के तप-त्याग से बची रही प्यार की ऊष्मा ।
अभावों के पूले काटती ज़िन्दगी ने
जब भी चढ़ाई जलते कंडों के चूल्हे पर बटलोई
उसके भीतर खदबदाते अन्न की सुबास
भूख से खरोलती-परोलती अंतड़ियों को
बंधाती रही ढाँढ़स ।
इन कंडों के मद्धिम सेक पर देर तलक
रखी दूध-भरी कढ़ाई का दूध जब-जब
होंठों से लग हलक में उतरा, तब तो
तर हो जाती रही आत्मा मिठास से…”
” कशमकश ” का दारुण-दृश्य ज़रा कुछ हटकर है, फिर भी मर्म से परिपूर्ण –
” कहीं कोई हवा का झोंका तक नहीं, जो
पलुसता जी-तोड़ मेहनत से बेहाल
दिन की निरीह पीठ को |
डबडबाई पलकों पर उसकी
कौन जन हल्के-से अपने होंठ रखता | “
इस चीख़ पर कवि चुप कैसे बैठ सकता है ? आवेशित होता है और समय के पलटाव की ओर आशान्वित हो, अपनी हथेलियों को उम्मीद का रूप देकर सक्रियता की तरफ़ हाथ बढ़ाता है | ” उम्मीद की हथेलियाँ ” की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं –
” हर-एक ज़्यादती के ख़िलाफ़
कस जाती हैं मुट्ठियाँ
सादा कविताओं की |
बरसातीं वे लाल-लाल अंगारे
अपनी तरफ़ उठती
हर बदनीयती पर |
कविताएँ ही हैं वे
जो गले लग सुबुकती हैं प्यार से
लाख नहीं, करोड़ों-करोड़ मनुहार से
टूटने नहीं देतीं जो
छूटने नहीं देतीं जो
सारी धरती-आकाश को
उम्मीद की हथेलियों से | “
समीक्ष्य पुस्तक की सभी कविताएँ अपने संदेश को देने में सक्षम हैं | अन्य जो विशेष उल्लेखनीय कविताएँ हैं, उनके शीर्षक इस प्रकार हैं – कालभैरव, कचनार, भागे हुए छोकरे, अधूरी कविताएँ, रात गए चींटियाँ, पुल, किसी एक दिन और गंवईपन खोते हुए | ” भावक की दरकार ” की जगह कोई अन्य शीर्षक होता, तो बेहतर था |
सभी पचीसों ग़ज़लें धारदार हैं | इनमें पर्याप्त रवानी और फ़नकारी है, यद्यपि ये सभी हिंदी ग़ज़लें हैं, जिनको अभी गीतों, नवगीतों की तरह मान्यता नहीं मिल पाई है | इनमें उर्दू जैसी बहरें और रुक्न नहीं पाए जाते | इसलिए उर्दू ग़ज़ल के जो लगभग 45 मीटर हैं, उन पर इन्हें नहीं कसना चाहिए | फिर भी हुस्ने मत्ला की ओर ध्यान अपेक्षित है |
समीक्ष्य पुस्तक की छपाई बहुत अच्छी है, फॉन्ट दिलकश है | आवरण-पृष्ट की डिज़ाइन और प्रजेंटेशन शानदार है | अलबत्ता पिछले आवरण-पृष्ठ पर पॉइंट साइज़ का छोटा होना अखरता है | मैटर को थोड़ा एडिट करके इस कमी को दूर किया जा सकता था | पूरे पुस्तक की प्रूफ रीडिंग में अति सावधानी बरती गई है | नुक़्तों का बहुत ख़याल और लिहाज़ किया गया है | फिर भी पता नहीं क्यों कुछ स्थानों पर नुक़्ते लगने से रह गए हैं !
कवि और शायर बलवेन्द्र सिंह को बहुत साधुवाद, मंगलकामनाएँ
सुघड़ शब्दों की साधना है ” उम्मीद की हथेलियाँ ”
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