आज दादा की याद बड़ी शिद्द्त के साथ आ रही है…. कारण पता नहीं, पता है तो सिर्फ़ उनका स्नेह – प्यार – भ्रातृत्व जो मेरे लिए बेमिसाल है। मेरे सबसे बड़े भाई जो ठहरे ……. ऐसे भाई जो हर हाल में अपने थे…………………………..अपनत्व का भाव इतना बढ़ा हुआ कि कोई विचार – भेद , मतभेद कोई मायने नहीं रखता था उनके लिए …… हर परिस्थिति में बड़प्पन और उच्च आदर्श का इज़हार !ऐसे लोग विरले ही होते हैं, जो एक अति पिछड़े और विकास से कोसों दूर इलाक़े में पले – बढ़े और महान कार्य किए | वे उच्च कोटि के इंजीनियर, अकडमीशियन [ academician ] और प्रबंधक ही नहीं थे , अपितु प्रतिष्ठित लेखक और कवि भी थे। बहुत सदा तबियत वाले , आत्मश्लाघा से दूर , मगर विद्वता से भरपूर थे दादा। सरल इतने कई हर कोई उनसे बेझिझक बात कर लेता ….. किसी मुद्दे पर बात करते तो उसकी तह तक जाने का प्रयास उनकी सामान्य आदत में शुमार था।

देश के अति पिछड़े 115 ज़िले में आज भी नाम लिखाने वाले बलरामपुर की उस समय क्या बदहाली रही होगी, जब दादा का जन्म हुआ ? उस समय बलरामपुर ज़िला न होकर गोंडा ज़िले में था , जबकि बलरामपुर स्टेट था और इस रियासत का बड़ा नाम था , फिर भी देश की आज़ादी के बाद उपेक्षा का शिकार रहा …. आज भी है और सरकारी लूट का ख़ास अड्डा है ! होना तो यह चाहिए था कि आज़ादी के साथ ही इसे ज़िला बनाया जाता और विकास की और बढ़ा जाता। दुर्भाग्य है, यह ज़िला बना तो दशकों के जन – संघर्ष के बाद और विकास तो अब भी दरकार है …. ऐसे में बलरामपुर का नाम बड़े राजनेताओं के नाम से जोड़ना ख़याली पुलाव पकाना, संतोष करना और इतराना भर है ! सवाल यह है कि बलरामपुर को मिला क्या ?

बलरामपुर रियासत के शिक्षा – प्रयास न होते, तो यह बात हतमी तौर पर कही जा सकती है कि बलरामपुर में कहीं जो ‘उजियारा ‘ दिखाई पड़ रहा है , न होता। मेरे उल्लेख्य भाई साहब के लिए भी यही सच है | उनका जन्म बलरामपुर [ तत्कालीन गोंडा जनपद ] के तप्पा – परगना – तुलसीपुर के सुदूर नेपाल सीमावर्ती क्षेत्र के ग्राम मैनडीह में 22 मई 1952 ई. को हुआ था। पिता जी [ स्व. बाबू उदय प्रताप लाल श्रीवास्तव ] के पहले के पांच पुत्र [ मेरे अग्रज ] अल्पायु में ही इस दुनिया से रुख़्सत हो चुके थे। अतः पिता जी को यह भय था कि कहीं दादा भी न चल बसें ! अतः आजा [ स्व. हर दयाल लाल श्रीवास्तव ] ने कुछ बड़े होने पर दादा का नाम रखा – शंकर बख़्श श्रीवास्तव | जब दादा पांच साल के हो गए, पिताजी ने उनका नाम गांव से लगभग तीन किलोमीटर दूर पहाड़ के गवाक्ष क्षेत्र खैरमान बांध के मुख्यद्वार के निकट ग्राम महादेव बांकी की प्राइमरी पाठशाला में लिखवा दिया। यही पूरे लगभग बीस किलोमीटर आवृत्त का शिक्षण केंद्र था , जहां कक्षा पांच तक ही पढ़ाई होती थी , वह भी एक ही शिक्षक द्वारा ! पिता जी बहुत ख़ुश थे। उन्हें अब अपने बेटों के खोने का ग़म नहीं था।

उन्होंने अपने पसंदीदा घोड़े [ सफ़ेद रंग के भूटानी ] को दादा को स्कूल ले जाने और लाने के लिए लगाया |एक हरवाह [ सेवक ] को इसी कार्य पर लगाया कि दादा को सुबह घोड़े पर बैठा कर स्कूल ले जाए और जब तक दादा स्कूल में पढ़ें , वह बाहर रहे , घोड़े को चराए। जब स्कूल में छुट्टी हो जाए , घोड़े पर बैठाकर घर लाए। इसे ही अमली शक्ल मिली , जो बरसों तक चलती रही। कुछ ही बरस के बाद मेरे मंझले भाई यानी दादा के छोटे भाई राम बख़्श श्रीवास्तव [ वर्तमान में प्राचार्य , एम एल के कालेज , बलरामपुर ] भी दादा के साथ घोड़े पर सवार होकर स्कूल जाने लगे।

एक दिन एक हादसा हो गया ….घोड़े ने दादा राम बख़्श को लत्ती मार दी। पिता जी को बहुत दुःख हुआ। कहने लगे, मैंने अपने सबसे सधाए हुए घोड़े को इस काम पर लगाया था, जिसने भी दग़ा दिया ! पिताजी के पास अन्य छह – सात घोड़े थे , किन्तु उनका ‘ विश्वसनीय ‘ यही था। सबसे अधिक सधा हुआ….. स्कूल जाते समय , ज़मीन पर बैठ जाता…. जब मेरे दोनों भाई उसकी पीठ पर सवार होकर काठी में बैठ जाते , वह उठ खड़ा होता
…. ऐसे ही स्कूल पहुंचकर बैठ जाता और भाइयों को उतारता। एक दिन घर पर बैठते वक़्त घोड़े ने मंझले दादा राम बख़्श को लत्ती मार दी, जिससे उन्हें गहरी चोट लग गई। फिर क्या था ?…. पिता जी बेटों के मामले में रिस्क नहीं ले सकते थे। लिहाज़ा स्कूल आने – जाने में घोड़ा निष्प्रयोज्य हो गया। दादा शंकर बख़्श के पांचवीं पास होने के बाद गांव के चतुर्दिक दूर – दूर तक आगे की कक्षाओं में पढ़ने के लिए कोई स्कूल न था , तो पिता जी ने लगभग 25 किलोमीटर दूर लक्ष्मणपुर बाज़ार [ ज़िला बहराइच ] स्थित जूनियर हाई स्कूल में नाम लिखाया। साथ ही मंझले भाई राम बख़्श का भी नाम लिखाया।

स्कूल के पास के गांव जोगिन भरिया में सबसे बड़ी बहन के घर रहने का प्रबंध कराया , जहां से दादा शंकर बख़्श के आठवीं पास करने के बाद दोनों भाइयों का दाख़िला बलरामपुर नगर के प्रतिष्ठित एम पी पी इंटर कालेज में कराया गया। पिता जी ने एक बार मुझे यह पूरा वृतांत सुनाया था। उन्होंने बताया था कि ”जब मैं तुम्हारे दोनों भाइयों – शंकर बख़्श और राम बख़्श को लेकर बलरामपुर पहुंचा , तो सबसे पहले वहां के अच्छे स्कूल की जानकारी हासिल की। पता चला कि सबसे अच्छा स्कूल एम पी पी इंटर कालेज है , जिसे महाराजा बलरामपुर सर पाटेश्वरी प्रसाद सिंह ने स्थापित किया था , बिलकुल तत्कालीन मियो कालेज , अजमेर की तर्ज़ पर , जहां पर वे स्वयं पढ़े थे। जब मैं उस स्कूल में दाख़िले के लिए गया , तो यह कहकर साफ़ मना कर दिया कि देहाती स्कूल के आठवें पास का यहां दाख़िला नहीं होता ! फिर तुम्हारे भाइयों के कपड़े की ओर इशारा किया गया , जो कुर्ता – पायजामा पहने हुए थे। मतलब यह कि ये ” अयोग्य ” हैं , दाख़िले के लिए। ” मैंने कहा कि ”मेरे दोनों बेटे पढ़ने में तेज़ – मेधावी हैं , पर वे न माने। ” पिताजी ने बताया कि मैं इस बेलाग – साफ़ इन्कार से बेहद चिंतित हुआ , परन्तु हार नहीं मानी। स्कूल [ एम पी पी ] के एक अध्यापक राम लखन श्रीवास्तव, जिनसे मैं पूर्व परिचित नहीं था, से मिला। वे गणित पढ़ाते थे। उनका प्रिंसिपल के बाद एक प्रभाव था। उनसे इस बाबत आग्रह किया, तो उन्होंने कहा कि ‘ ग्रामीण परिवेश के ऐसे छात्र आम तौर पर आगे अच्छी पढ़ाई नहीं कर पाते , इसलिए ही हम लोग दाख़िला नहीं लेते।’ पिता जी ने एक मौक़ा दिलवाने का अनुरोध किया। कहा कि’ अगर नंबर नहीं आए , तो नाम काट दीजिएगा।’ इस पर राम लखन जी ने कहा कि यह बात लिखकर देनीं होगी।

पिता जी ने लिखकर दे दिया। मेरे दोनों भाइयों का दाख़िला हो गया। यही वह समय था , जब दोनों भाइयों की प्रतिभा खुलकर सामने आई। लोग इनके नंबरों को देखकर दांतों तले उँगलियाँ दबा लेते। ऑल राउंड फ़र्स्ट डिवीज़न …… कभी टॉपर भी , उन सबकी ज़ुबानें बंद थीं , जो यह कहते थे कि ये क्या कर पाएंगे …. कथन में हिक़ारत भाव साफ़ झलकता। पिता जी कहते थे , ‘ जब शंकर बख़्श ने इंटरमीडियट मैथ – साइंस से एम पी पी स्कूल में टॉप किया, तो उसे [ दादा को ] लोग देखने आते थे कि कौन है वह लड़का ?’ इंटर के बाद दादा को तत्कालीन गोरखपुर विश्वविद्यालय के मदनमोहन मालवीय इंजीनियरिंग कालेज में दाख़िला मिला , जहां भी उन्होंने बी ई [ मेकेनिकल ] में फर्स्ट आने के साथ ही कालेज टॉप किया। प्राथमिक शिक्षा में घर से ले जाने और लाने वाले पिता जी के सफ़ेद भूटानी  घोड़े ने बड़ा साथ दिया। पिताजी गांव से खाद्यान्न, सब्ज़ी और अन्य सामग्री जो तीन – चार कुंतल तक होती घोड़े पर लदवा देते और उसके साथ ही मुहम्मद मूने [ हरवाह ] उस पर सवार होकर उसके वज़न को और बढ़ाते | घोड़ा लगभग दो सौ किलोमीटर का सफ़र तय करके एक ही दिन में गोरखपुर के डिभिया गांव पहुंचता , जहां दादा किराए पर रहकर अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर रहे थे। घोड़ा रात में कुछ देर रुकता , फिर भोर में ही अपने स्वामी के घर ग्राम मैनडीह के लिए चल पड़ता।
दादा 26 वर्षों तक विभिन्न सरकारी विभागों में उच्च पदों पर काम किया। यद्यपि सेवा का आरंभ निजी क्षेत्र से किया। बलरामपुर शुगर फैक्ट्री में दो – तीन साल काम किया। फिर कई वर्ष सरकारी क्षेत्र के सीमेंट उद्योग में गुज़ारने के बाद डिफेन्स में भी काम किया। फिर प्राइवेट कंपनियों में गए। बिरला उद्योग समूह के जनरल मैनेजर भी रहे। चुर्क , चुनार , डाला के बाद बड़ोदरा, जगदीशपुर, जमशेदपुर , कोलकाता , कानपुर , लखनऊ , सीतापुर आदि शहरों में अनेक पदों पर रहे। इंडोनेशिया , इटली , पोर्टलैंड और मलयेशिया में भी काम किया।

दादा ने एम बी ए किया और फिर पीएच डी की उपाधि प्राप्त की थी। कई वर्षों तक कई शिक्षण संस्थाओं में प्रोफ़ेसर थे। कानपुर के नारायणा इंजीनियरिंग कालेज में डीन थे और मेकेनिकल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के अध्यक्ष थे | जब जुलाई 2015 में उनका देहांत हुआ , उस समय वे सीतापुर शिक्षा संस्थान ग्रुप आफ इंस्टीट्यूशंस में डायरेक्टर थे। दादा ने कई उल्लेखनीय किताबें लिखीं, जो प्रकाशित भी हुईं और कई पुरस्कृत भी। सिर्फ़ काव्य – संग्रह प्रकाशन की उनकी योजना साकार नहीं हो पाई। हिंदी में उन्होंने ‘ शंकर लाला ‘ नाम से कुछ पुस्तकों की रचना की, जिनमें श्रीमद भगवद गीता का हिंदी काव्यमयी अनुवाद ” भावगीत – गीता के ” शामिल है। यह काव्य – रचना महाकाव्य है। एक उदाहरण देखिए – भगवान श्री कृष्ण जी अर्जुन को नसीहत करते हुए कहते हैं —

सम्मान मिला है तुमको
अपने नाम और यश का
जिन – जिन महान योद्धाओं से
वे सभी लोग सोचेंगे
तुमने रणभूमि छोड़ दी है
अपने दुश्मन के डर से
तुच्छ मान लेंगे सब तुमको
फिर क्या तुम कर पाओगे ? [ अध्याय 2 ]

यह महाकाव्य काफ़ी चर्चित हुआ। बड़ी हस्तियों और मनीषियों ने सराहा। दादा की एक अन्य हिंदी पुस्तक को बड़ी ख्याति मिली। इसका नाम है ” अपरंपरागत ऊर्जा ” , जिसे उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान , लखनऊ ने प्रकाशित किया था। यह बृहताकार पुस्तक है , जो किसी थीसिस से कम नहीं ! AICTE , नई दिल्ली ने उन्हें इस पुस्तक पर नेशनल अवार्ड से सम्मानित किया था। दादा की तीन पुस्तकें देश – विदेश के विभिन्न इंजीनियरिंग कालेजों के पाठ्यक्रमों में चल रही हैं , जिनके नाम इस प्रकार हैं – 1- Managerial Economics 2- Technical Audit – A Through fare Of System Perfection और 3- Professional Ethics And Human Values . इस तीसरी तीसरी पुस्तक के लिए 31 जुलाई 2013 को गुरु गोविन्द सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय ने प्रोफ़ेसर डाक्टर शंकर बख़्श श्रीवास्तव को ‘गेस्ट आफ ऑनर ‘ दिया। इन रचनाओं के अतिरिक्त विभिन्न व्याख्यानों में उनके द्वारा प्रस्तुत पेपर्स भी अनमोल धरोहर हैं। इन सबको पुस्तकाकार में प्रकाशित किए जाने की ज़रूरत है। दादा को शत – शत नमन …… विनम्र श्रद्धांजलि ……
उसी प्रकार मृत्यु होने पर
दूसरी देह मिल जाती है ,
होते रहते हैं परिवर्तन
पर धीर नहीं मोहित होते।
[ शंकर लाला , ‘ भावगीत – गीता के ‘ ]

Dr RP Srivastava, Editor – in – Chief , ”Bharatiya Sanvad”

 

 

 

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