प्रतिभावान कथाकार तेजबीर सिंह सधर का प्रथम कथा संग्रह “डेढ़ आँख से लिखी कहानियाँ” पढ़ते समय ऐसा लगा कि एक ऐसे उपवन में विचरण कर रहा हूं, जहां नाना प्रकार के पुष्प अपनी सुगंध बिखेर रहे हैं। पाठक इनमें अनायास खो-सा जाता है। उसे यह भी बोध नहीं होता कि उसमें किस पुष्प को उत्तम बताए, क्योंकि सभी एक से बढ़कर एक हैं। ये सभी पुष्प अर्थात कहानियां कतई रहस्यवादी, निष्प्राण और स्पंदनहीन नहीं हैं।
सभी यथार्थवादी पुट से परिपूर्ण हैं, तथापि सभी कहानियां सपाट चलती हैं बिना किसी लाग-लपेट और घनी बुनावट के ! फिर भी अपने निहितार्थ एवं मंतव्य को सुस्पष्ट करने में सभी सक्षम हैं। कथावस्तु की जो तंगी कहीं-कहीं दिख जाती है, वह असहज और अस्वाभाविक नहीं है, अपितु यह विशिष्ट लेखकीय प्रस्तुति है ! ये सभी आम तौर से रोज़मर्रा की ज़िंदगानी से उठाई गई हैं, जिनको कथाकार ने इंतिहाई फनकारी एवं बोधगम्यता के साथ शब्दों में पिरोया है। कथाकार पाठक का ख़ूब खयाल रखता है। इतना कि कभी-कभार कथा के थीम को वाजेह करते चलता है।
मेरा यह मानना अतिशयोक्ति नहीं कि इस तरह की कहानियां आजकल बहुत कम लिखी जाती हैं, जिनको पढ़कर पाठक बिना किसी उलझाव के उनके मर्म तक पहुंच जाता है। अन्यथा सामान्यतः आजकल वाग्जाल का ज़माना है, ऐसा भी कि रचनाकार के भी पल्ले नहीं पड़ता कि उसने क्या लिख मारा ! इस प्रकार उसने ख़ुद भी उससे दूरी नापी और पाठक को अपनी कथित बौद्धिकता के बलबूते दूर कर दिया ! हैं ना यह करिश्मा ! फिर हम पाठकों पर यह ठीकरा फोड़ा जाने लगा कि साहित्य की दुनिया से पाठक हटते जा रहे हैं !
इस संक्रमण काल में कथा सत्य नारायण व्रत कथा सरीखी भी नहीं बन पाती। इतनी सघन बनावट कर दी जाती कि उसका असल सत ही मारा जाता है। कभी इतने प्लॉट और दृश्य डाल दिए जाते हैं, जो कथा के अंत तक निष्प्रयोज्य ही साबित होते हैं। ऐसे में कहानी अपना धरातल छोड़ देती है और लेखक-पाठक संबंध बिगड़ कर रह जाता है।
फिर कभी यह कथा स्वस्थ कहानी कम, रहस्यवादी, तिलिस्मी कथा अधिक जान पड़ने लगती है, जो अब गुज़रे ज़माने की बात हो गई। इस पंडिताऊ और शेखीबघार कुप्रवृत्ति के चलते हिंदी कथा साहित्य से उसके पाठक लगातार हटते चले जाते हैं, यहां तक कि यह कुछ समय तक सरकारी/ गैर सरकारी पुस्तकालयों की ज़ीनत बनने के साथ इसे कुंआरा मरने के लिए अभिशप्त होना पड़ता है। लेकिन यहां वस्तुस्थिति बिलकुल भिन्न है।
सुनिश्चित और सुचिंतित रूप से यह कहा जा सकता है कि तेजबीर सिंह सधर की कहानियां पाठकों को जोड़ती हैं। उन्हें बोझिलपने और नीरसता के गर्त से बचाती हैं एवं अभिनव यथार्थवाद से आगे ले जाती हैं, जो उत्तर फासिज्म के आज के काले दौर में एक महती प्रयास है।
पहली कहानी पेंशन एक पेंशनभोगी की व्यथा-कथा है। आज के जीवन की सच्चाई है। पेंशन समय पर नहीं आई, तो चिंता बढ़ गई, मानो चिंता से मुक्ति असंभव है। ऐसे में जीवन के बाद की स्थितियां घेर लेती हैं और इंसान का ध्यान मृत्यु पर टिक जाता है। इस पर पत्नी स्थान परिवर्तन करवाती है, ताकि एकाग्र के खतरे से पति महोदय बच सकें। दोनों पुणे पहुंच जाते हैं अपने बेटे बहू के पास। फिर भी मानसिक केंद्रीकरण भंग नहीं होता। शरीर को चील कौवों अथवा नदी को देने की बात पति कविता में उतार देता है, जिसे देखकर पत्नी चिंतित होती है। इसी बीच पेंशन आ जाती है, लेकिन वे चल बसते हैं। पत्नी की ज़िंदगी का खाता ख़ाली हो जाता है। फिर उनकी स्मृति में पत्नी कह उठती है, “ज़िंदगी के दौड़ में वो बाज़ी मार गए थे।” इस भावनाप्रधान मार्मिक कहानी को थोड़ा और विस्तार दिया जा सकता था और महसूस होनेवाली किंचित रिक्तताओं को पाटा जा सकता था।
दूसरी कहानी “पीठ” सरकारी और गैर सरकारी प्रतिष्ठानों की वर्तमानकालीन रविश का एक हिस्सा है। अपसंस्कृति है, जिसका त्याग ही कल्याणकर है। कहानी में होता यह है कि अपनी कमज़ोरी छिपाने के लिए एक अधीनस्थ कर्मचारी अपने शातिराना दिमाग़ को भिड़ाकर अपनी पत्नी को बॉस की शहवानी भूख के हवाले कर देता है और बडे़ साहब की पीठ धरा से स्पर्श करा देता है एवं उन्हें बैरंग उनके वतन कानपुर लौटने के लिए विवश कर देता है।
अगली कहानी “रिश्ता” एक असाधारण कैफियत को जन्म देती है, जब 13 वर्षीया रीना का 65 वर्षीय एक वृद्ध से प्रेम संबंध का चक्कर चलता है, जो एक पवित्र रिश्ते में तब्दील हो जाता है। “साइकिलवाली आंटी” प्रारब्ध आधारित सफल कथा है, जिसमें साहिब जी एक ट्रक से साइकिल सहित कुचलकर मर जाते हैं। उनका और नीरू का बेटा कारगिल युद्ध में शहीद हो चुका होता है। अब नीरू ही बचती है एकाकी जीवन जीने के लिए ! बुढ़ापे की लाचारी और संत्रास का चित्रण है “सूखे पत्ते”। “सच है, सूखे पत्ते ही तो होते हैं उम्रदराज़ लोग।” “कूड़े का ढेर” शराबनोशी की दुर्गति पर है। गरीब तबके के दुखद जीवन की एक झांकी है। भिखमंगा भगत सिंह शराब का रसिया बना और उसकी पत्नी नैना जिस्मफरोशी के लिए विवश हुई। कैंसर से भगत सिंह मर गया और वह जिस्मफरोशी से अभिशप्त हुई। समाज की हकीकत बयां करती हुई शिक्षाप्रद कहानी के रूप में इसका अंत होता है।
सातवीं कहानी “ठंडी रात” विडंबना से परिपूर्ण है। जिस शख्स का सियासी रसूख ही नहीं दख़ल भी था, उसकी क़िस्मत में गुरबत बिन बुलाए सा गई। दिल का दौरा पड़ने पर इलाज के उनके पास पैसे नहीं थे, तो पूर्व विधायक माला ने उनकी आर्थिक सहायता की। ऐसा उन्होंने क्यों किया ? “आपको नहीं पता कि एक बार बाबू जी ने प्रदेश की गिरती हुई सरकार को बचाने के लिए माला जी को बारह विधायकों की सेटिंग करवाई थी।” फिर भी पटेल का अंत पैसों की खस्ताहाली में हुआ। कहानी की अंतिम पंक्ति को इसका सारतत्व समझना चाहिए – “मुखड़े अलग होते हैं और मुखड़ों के पीछे गरीबी का दुख और सिक्कों की खनखनाहट का आनंद छिपा होता है।”
“वो खिड़की” एक ओपन इंडेड संवेदन प्रधान कहानी है, जिसमें दिमाग़ की खिड़की खोलकर रखने पर बल दिया गया है। पत्नी से निभ नहीं पाती और अंततः तलाक हो जाता है। आज के युग की लगभग घर-घर की कहानी है “करेला”। नयनतारा ने अपने को करेले सा कड़वा बना लिया था ससुर को लेकर। जब सास-ससुर बोझ समझे जाएं, तो यही सब होता है। वैसे इस कथा में सास का अभाव है।
दसवीं कहानी “फायदा” एक लड़की बांसरी के प्रेम में पगने की गाथा है, जो इस शिक्षा पर पाठकों को छोड़ जाती है कि “होना वही होता है जो होना होता है। सब कुछ चाहने से नहीं होता।” “एक नीम पागल लड़की” सोशल मीडिया की काल्पनिक एवं आभासी दुनिया के मकड़जाल पर आधारित है, जो इससे उपजे संत्रास और घुटन के गिर्द घूमती है। मानव जीवन इससे कितना नकारात्मक बन रहा और यह इसे कितने गर्त में लेकर जा रहा है, इसे और इससे जुड़े आयामों को इस कथा में उकेरने का प्रयास किया गया है।
बारहवीं कहानी “एक ख़त तुम्हारे लिए” खोखले दांपत्य जीवन की दास्तान है। पति-पत्नी के संबंधों में खटास और फिर अलगाव की कैफियत आज किसी एक वर्ग, जाति और समुदाय तक सीमित नहीं है। मीतू को तनवीर द्वारा लिखा गया ख़त ऐसा ही भावना प्रधान है, जो जीवन के विविध आयामों एवं संवेगों से होकर गुज़रता है।
“घूमते ठग” ठगी की रिवायती कथा है। वैसे भी भांति- भांति के ठग प्राचीन काल से हैं। अक्ल के गोदाम में चूना लगाने के बाद “आइशा” अपने लक्ष्य के घर ठहरकर नब्बे हज़ार रुपए ले उड़ी।
चौदहवीं कहानी “एक लड़की” भी शिक्षाप्रद है। बिना अक्ल के गोदाम को खटखटाए कोई काम नहीं करना चाहिए, इसका संदेश है। रश्मि अपने पति से विलग होकर अपने मायके रहने लगी। पिता रामलाल अकेले थे। पिता के मरणोपरांत जब उसकी उसकी शादी होने लगी, तभी पुलिस आ धमकी। बहरहाल अपहरण की एफ आई आर रफ़ा-दफा हो गई।
अंतरधार्मिक विवाह की भारत में कम जगह है। “, गुलमोहर” इसी का बयान है। मुस्लिम लड़की और सिख युवक महीप की प्रेमकथा धर्म के सवाल पर परवान चढ़ने से पहले ही टूट जाती है। फिर अफ़ज़ल से उसका निकाह संपन्न होता है।
बुरे का बुरा अंत होता है। “अर्थी” से यह साबित है। हरमन बुरे किरदार वाला पात्र है, जिसकी मृत्यु पर उसकी अर्थी को कंधा देनेवाले मुश्किल से मिले। उसकी बेटी लाज आईलेट कर कनाडा चली गई और वहां एनआरआई लड़के के प्रेम में पग गई। फिर भी 25 लाख के लिए हरमन ने कारज से उसकी झूठ- मूठ की शादी करा दी और दस लाख रुपए हड़प लिए !
बड़ा घर में कहानी का अंत पहले बता दिया गया है। हरदयाल सिंह ने बड़े घर के लिए बड़े पापड़ बेले और फोर बीएचके मिलते ही चल बसे। उसका एक कोना भी उन्हें नसीब नहीं हुआ !
अट्ठारहवीं कहानी “बदबू” एक शराबी की कथा है, जिसे कुछ शराबी शराब पिलाकर उसकी बाइक “लूट” ले जाते हैं। यह कहानी शराबियों के लिए ख़ास नसीहत है। “बंटवारे का दर्द” उसी पुराने देश विभाजन का दंश है, जिसे शहनाज़ ने मुसलसल झेला। पति और प्रेमी दोनों को खोया। हिस्से में आया केवल दर्द। एक मार्मिक कहानी, जो कालगत परिस्थितियों को एक ख़ास नज़र से देखती है।
बीसवीं कहानी “कॉल हिस्ट्री” एक मिस्ट्री है, जिसमें पति को गुमान हो जाता है कि पत्नी का किसी से अवैध संबंध है। जबकि वह पंडित सुंदर दास से दूरभाषिक बात करती है और अपने पति के लिए महामृत्युंजय जाप विधि-विधान से करवाती है। पति मुगालते में रहता है। पति ने कॉल हिस्ट्री चेक करके पत्नी के झूठा भ्रम पाल लिया।
पुस्तक की अंतिम आठ कहानियों में से एक “चौरासी” 1984 के सिख विरोधी दंगों पर है। बताया गया कि 31 साल बीत गए, सिख अब भी इंसाफ़ की लड़ाई लड़ रहे हैं। इसमें एक सिख युवक की व्यथा का बयान है, जिसकी दाढ़ी क्लीन सेव कर दी जाती है और केश के जूड़े को सिर से अलग कर दिया जाता है। सौभाग्यशाली है वह। इतने से बच गया। एक हिंदू परिवार ने उसे अपने घर के अंदर खींच लिया। बाद में समाधान शर्मा की विधवा बेटी के साथ उसकी शादी हो गई।
“चिंतामणि” निम्नवर्गीय सुखराम की कथा है, जिसकी मृत्यु होने पर उसकी जेब से दो करोड़ की लाटरी का टिकट मिलता है। संयोग से लाटरी पर दो करोड़ रुपए का उसे पहला इनाम मिला, जो उसकी पत्नी के जीवन में खुशहाली ले आया। वह फ्लाइट से अपने वतन झारखंड चली गई। कथा के अनुसार, लाटरीधारक के जीवित न रहते उसके आश्रित को इनाम की रकम मिलने में कोई दिक्कत नहीं होती है ?
“डेढ़ आंख” और “24वीं कहानी” एक रचनाकार की कथाएं हैं, जिसका स्मृति लोप हो जाता है। कहानी के अंत में वह पंखा साफ़ करते समय गिर पड़ता है और उसकी स्मृति बहाल हो जाती है। कथाकार विभिन्न रोगों से लड़ते और अपने पारिवारिक दायित्वों को पूरा करते-करते अपनी मृत्यु को वरण करता है। “झल्ला” का भी कथानक अच्छा है। जिसे लोग झल्ला ( पागलों जैसा व्यवहार करनेवाला) कहते थे, वह एक दिन कलक्टर बन गया और प्रेयसी लाभ कौर से उसकी शादी हो गई। “उम्र न बोले” उम्र और प्रेम के फासले को मिटा देती है। 45 वर्षीया की 26 वर्षीय सुधीर की शादी हो जाती है। “हनी ट्रैप-सा” ट्रेन में ठग युवक-युवती द्वारा ठगी करने का अच्छा चित्रण है। अंतिम कहानी “एक झलक ताज की” कृपण और बखील इंसान मानिक लाल की ज़िंदगानी का वृत्तांत है। उसने अपनी दूकान पर चाय के पैकेट के अधिक पैकेट मांगे और विरोध करने पर ग्राहक को धक्का दे दिया, जिससे वह घायल हो गया और मामला पुलिस तक पहुंच गया। मानिक हवालात में गया, तो बेटी मानिक लाल के बक्से से हज़ारों रुपए लेकर अपने प्रेमी संग भाग गई।
इस संग्रह की सभी कहानियों में दम-खम है। प्रूफ में सावधानी आवश्यक है। न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली से प्रकाशित 127 पृष्ठों की इस पुस्तक का आवरण, लेआउट, छपाई आदि बेहद खूबसूरत है।
– Dr. RP Srivastava
Editor-in-Chief “Bhartiya Sanvad”
यथार्थवादी पुट से परिपूर्ण “डेढ़ आंख से लिखी कहानियां”
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