राम पाल श्रीवास्तव जी का उपन्यास ‘त्राहिमाम युगे युगे’ प्राप्त हुआ है। ‘त्राहिमाम युगे युगे’ एक संस्कृत वाक्यांश है। जिसका अर्थ है– “हे प्रभु, हर युग में मेरी रक्षा करो।” ‘त्राहिमाम युगे युगे’ न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली से प्रकाशित एक बहुत ख़ूबसूरत क़िताब है। जिसकी साज-सज्जा और बाइंडिंग क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। पुस्तक को हाथों में लेते ही उसके प्रति एक अनायास प्यार उमड़ आता है। राम पाल श्रीवास्तव जी ने इस पुस्तक को बहन स्वर्गीय इंदिरा अग्रवाल को समर्पित किया है। पुस्तक की भूमिका में राम पाल श्रीवास्तव जी ने बहुत दिलचस्प बातों का उल्लेख किया है। जो उनके जीवन मर्म और रचना कर्म को समझने के लिए पर्याप्त है। यह उपन्यास 16 अध्यायों में विभक्त है। जो उपन्यास की प्रवाहमयता को बनाए रखता है।
राम पाल श्रीवास्तव जी मैनडीह, बलरामपुर, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। इनकी शैक्षणिक उपलब्धियाँ मील का पत्थर हैं। वह उच्च कोटि के कवि, लेखक, समीक्षक, उपन्यासकार और पत्रकार हैं। उनके उपन्यास ‘त्राहिमाम युगे युगे’ में एक कालजयी रचना की ख़ूबियाँ परिलक्षित हो रही हैं। राम पाल श्रीवास्तव जी का यह उपन्यास ‘मैला आँचल’ और ‘राग दरबारी’ के कुछ अंशों की परम्परा को आगे बढ़ाने का एक सतत् प्रयास लगता है। जिसमें राम पाल श्रीवास्तव पूर्णतया सफल रहे हैं। इसके अलावा वह लगभग एक दर्जन कृतियों के प्रणेता हैं। आपकी कुछ प्रसिद्ध रचनाओं में ‘शब्द-शब्द’, ‘अँधेरे के खिलाफ’, ‘जित देखूँ तित लाल’ तथा ‘बचे हुए पृष्ठ’ इत्यादि प्रमुख हैं। अनेक पुरस्कारों से सुशोभित राम पाल श्रीवास्तव जी सहज, सरल और सौम्य प्रकृति के इंसान हैं।
राम पाल श्रीवास्तव द्वारा रचित उपन्यास ‘त्राहिमाम युगे युगे’ ग्रामीण भारत की सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक वास्तविकताओं का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करता है। कहानी का मुख्य पात्र माधवकांत सिन्हा एक प्रतिष्ठित मीडिया समूह में कार्यरत है, जिसे ग्रामीण जीवन के संघर्षों पर साहित्यिक कृति तैयार करने का दायित्व सौंपा जाता है। इस उद्देश्य से वह अपने दो सहयोगियों नवीन कुमार और अब्दुल्लाह के साथ उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले के मैनडीह गाँव की यात्रा करता है। वहाँ, वे स्वतंत्रता के दशकों बाद भी व्याप्त सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, और राजनीतिक समस्याओं का सामना करते हैं। उपन्यास में प्राकृतिक संसाधनों के अवैध दोहन, भ्रष्टाचार, शिक्षा प्रणाली की खस्ताहालत और न्यायिक व्यवस्था की कमजोरियों को उजागर किया गया है। माधवकांत द्वारा रचित इस कृति को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिलती है और उन्हें न्यूयॉर्क में सम्मानित किया जाता है। हालाँकि, पुरस्कार ग्रहण करने के लिए यात्रा के दौरान विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो जाती है, जिससे उपन्यास का समापन होता है। यह कृति ग्रामीण भारत की जटिलताओं और चुनौतियों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती है, जो पाठकों को बहुत देर तक सोचने को मजबूर करती है।
राम पाल श्रीवास्तव जी के उपन्यास ‘त्राहिमाम युगे युगे’ को पढ़ते वक्त लगता है कि यह कथाकार की अपनी आत्मकथात्मक औपन्यासिक कृति है। क्योंकि कथावस्तु के साथ-साथ देश, काल और परिस्थितियाँ भी इसी तरफ इशारा करती हैं। या फिर कहें, लेखक ने असीम कल्पना की एक ऊँची उड़ान भरके खुद को स्थापित करने का प्रयास किया है। जिसमें ख़ुद के परिवेश को व्याख्यायित करने में वह सफल हैं। बहुत ही सुघड़ कथावस्तु लिए यह उपन्यास अपने बनावट एवं बुनावट में एक गहरी छाप छोड़ता है। इसकी भाषा शैली प्रगाढ़ है। वर्तनी की त्रुटियाँ न के बराबर हैं। इस पुस्तक के लिए बहुत मेहनत और लगन से काम किया गया है। क्योंकि इसके शब्द-शब्द सुगठित एवं सुनियोजित हैं।
राम पाल श्रीवास्तव जी ने अपने उपन्यास ‘त्राहिमाम युगे युगे’ में अपने वैचारिक जीवन का सम्पूर्ण निचोड़ प्रस्तुत कर दिया है। जैसे प्रेमचंद ने ‘गोदान’ में अपने लेखन कर्म की पूर्णता प्रदान की थी; वैसे ही रामपाल श्रीवास्तव ने भी ‘त्राहिमाम युगे युगे’ में अपने रचना कर्म को पूर्णता पर पहुँचाया है। ‘त्राहिमाम युगे युगे’ राम पाल श्रीवास्तव जी की प्रौढ़ता, परिपक्वता और प्रबुद्धता की उत्कर्ष रचनाधर्मिता है। जिसमें उन्होंने अपना पूरा अनुभव झोंक दिया है। जिसकी भूमिका में वह लिखते भी हैं कि- “मैंने ग्रामीण जीवन के परिवेश का जैसा अनुभव किया है, उसी को इस उपन्यास में समाहित करने की कोशिश और काविश की गई है। मैं यह सकता हूँ कि आम आदमी की पीड़ा, विवशता, संत्रास जैसी स्थितियों के साथ ही उसकी आकांक्षाओं, आस्थाओं, उम्मीदों के प्रवाह में झूठ, छल, प्रपंच, ग़लत राहरवी, ऐय्यारी-मक्कारी आदि रुझानों एवं प्रवृत्तियों को जैसा मैंने देखा, सुना और महसूस किया है, उनको मैंने अपने इस प्रथम प्रकाशित उपन्यास में अपनी पूरी संचेतना और प्रतिबद्धता के साथ पेश करने का प्रयास किया है।”
‘त्राहिमाम युगे युगे’ उपन्यास के पात्र अपनी भूमिकाओं के निर्वहन में खरे उतरे हैं। माधवकांत सिन्हा, नवीन कुमार और अब्दुल्लाह इत्यादि अपनी अमिट छाप छोड़ते हैं। पात्रों का संयोजन न केवल साहित्यिक दृष्टि से बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी सामंजस्य स्थापित करने के लिए रचा गया है। उपन्यास की भाषा-शैली बहुत बेहतर बन पड़ी है। इसकी संवाद योजना के तो कहने ही क्या? इसका एक उदाहरण निम्नलिखित पंक्तियों में देखा जा सकता है-
“बिरयानी-उरयानी मत मंगाना। मैं शुद्ध शाकाहारी हूँ। यहाँ केबिन में मांसाहार होगा, तो मेरी तबीयत बिगड़ जाएगी।”
“नहीं जी, हम लोगों ने वेज बिरयानी का आर्डर दिया है।” मैंने सफाई दी, और यह भी कहा-
“हमें एक-दूसरे के अभिरुचि का ख़्याल जरूर रखना चाहिए। इसका दायरा सिर्फ़ इस केबिन तक सीमित नहीं है।”
“ठीक कह रहे हैं आप।” चौथे यात्री ने सहमति जताई।
‘त्राहिमाम युगे युगे”‘ उपन्यास के उपसंहार के रूप में कहा जा सकता है कि यह साहित्य का एक अनमोल मोती है। जिसे राम पाल श्रीवास्तव ने अपनी श्लिष्ट हिंदी भाषा के अलावा उर्दू शब्दों के ख़ूबसूरत प्रयोग से और लाजवाब रचना बना दिया है। 232 पेज की 425 रुपये मूल्य की यह पुस्तक बहुत ही पठनीय और संग्रहणीय रचना है। जो हिंदी साहित्य की एक अमूल्य धरोहर है। जिसने साहित्य की निधि को और परिपूर्ण करने का काम किया है। इस उपन्यास के लिए राम पाल श्रीवास्तव जी बधाई के पात्र हैं। उनको मेरी तरफ से ढेर सारी शुभकामनाएँ। भविष्य में उनसे ऐसी ही और महान कृतियों के आमद की उम्मीद रहेगी। शुभमस्तु।
– उपेंद्र यादव
[ कवि / लेखक ]
पंजाब
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“त्राहिमाम युगे युगे” – एक कालजयी रचना
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