( 1 )
तारीख़
………
हर दिन की
नई सुबह
नई तारीख़ लाती थी
नई आशाओं के साथ
सुबह होते ही
अपना चेहरा दिखाती थी
कभी कैलेंडर
तो कभी अख़बार में
टी वी और रेडियो में
सुबह से देर रात तक
वही तारीख़ …
परत दर परत
…..
एक दिन
मैंने देखा
तारीख़
हर उस जगह से गायब है
जहां से दिखती थी
जहां से उगती थी
अब वह बेतरतीब हो गई है
झुंझला कर चीख़ पड़ी है –
” मेरा तुम्हारे साथ
कैसे हो सकता गुज़ारा ?
जब तुम्हारा हर दिन
होता आखिरी हफ्ता है।”
( 2 )
कोल्हू का बैल
……………….
कोल्हू का बैल
हूं मैं
पिरता हूं
दिन – रात
तेली के चक्कर में
तिल – तिल
धुआं
होता हूं मैं
कहता है –
बैल में जीवन है
इसलिए बन जाओ
चिमनी
सोच – सोच
मुस्काता
हूं मैं
नियति देख
तेलवालों की
बार – बार
शर्माता हूं
मैं।
– राम पाल श्रीवास्तव ‘ अनथक ‘
( दोनों कविताएं 2001 में रचित, प्रकाशित )