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देश को अंग्रेज़ों से मुक्त कराने के लिए जब जनमानस उद्यत हो उठा था, ” वन्दे मातरम् ” की गूंज हर तरफ़ सुनाई देती थी, तभी ऑस्ट्रिया की एक कंपनी ने ” वंदे मातरम् ” अंगूठी और छल्ले की भारत में बिक्री हेतु सप्लाई शुरू कर दी थी।
इसको महावीर प्रसाद द्विवेदी विदेशी ” वंदे मातरम्” कहा !
द्विवेदी जी ” सरस्वती ” ( जनवरी 1908 ई. ) में लिखते हैं, ” अंगूठी की कीमत आठ आने और छल्ले की चार आने हैं। कंपनी के मैनेजर साहब लिखते हैं, अंगूठी के नीचे श्री राम , कृष्ण आदि देवताओं के चित्र हैं, परन्तु जो अंगूठी हमारे पास ” समालोचना ” के लिए आई है, उसके नीचे एक छेद तो ज़रूर है, चित्र उत्र कोई नहीं है। ये अंगूठियां और छल्ले ऑस्ट्रिया के बने हुए हैं…. भारतवर्ष के स्वदेशी भक्तों की करांगुलियों की शोभा बढ़ाने के लिए ये ” वंदे मातरम् ” अंगूठियां और ” वंदे मातरम् ” छल्ले आए हैं। स्वदेशभक्ति की जय ! ” ( पृष्ठ 6 )
क्या आज ऐसे प्रयास की ज़रूरत नहीं महसूस होती ?
– Dr RP Srivastava