वरिष्ठ एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार विष्णु प्रभाकर जी की पुण्यतिथि [ 11 अप्रैल ] हर वर्ष मुझे संतप्त और ग़मगीन कर जाती है | प्रेम चंद , जैनेन्द्र , अज्ञेय और यशपाल जैसे दिग्गज रचनाकारों के सहयात्री रहे विष्णु प्रभाकर जी की अपनी अलग पहचान थी | मुझे फ़ख्र है , लेकिन दर्प नहीं कि मुझे उनका अच्छा सान्निध्य प्राप्त हुआ …. लगातार कई वर्षों तक उनकी कृपा दृष्टि बनी रही | उनसे मिलना और बातें करना बिलकुल ऐसा था , जैसे हमारे परिवार के ही सदस्य हों | जनवरी 2010 में आपकी अंतिम कृति ” चलता चला जाऊंगा ” आपकी मृत्यु के कुछ ही महीने के बाद छपी , जिसमें वह कविता भी शामिल है , जो उन्होंने अपनी अंतिम यात्रा के 25 दिन पहले बीमारी की दशा में मुझे सुनाई थी | यह विष्णु जी की अंतिम कृति कही जा सकती है | यह अंतिम कृति काव्य है और कहते हैं कि आपकी पहली रचना भी कविता ही थी | अंतिम कृति का शीर्षक है ” शब्द और शब्द ” , जो सप्त पंक्तियों पर आधारित है | आप भी इन पंक्तियों को गुनगुनाइए ….. विष्णु जी के मुख से ये पंक्तियाँ प्रकाशना की मानिंद निकली थीं …..

समा जाता है

श्वास में श्वास

शेष रहता है

फिर कुछ नहीं

इस अनंत आकाश में

शब्द ब्रह्म ढूँढ़ता है

पर-ब्रह्म को |

ये पंक्तियाँ वास्तव में मेरे लिए धरोहर हैं | 21 जून 1912 में मुज़फ़्फ़रनगर (उत्तर प्रदेश) में आपका जन्म हुआ था | आपका मौलिक नाम ‘विष्णु दयाल’ है | एक मित्र का परामर्श स्वीकार कर ‘ प्रभाकर ‘ लगाना शुरू किया | आपने साहित्य की सभी विधाओं में लेखन किया . कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, निबंध, एकांकी , यात्रा-वृत्तांत और कविता आदि प्रमुख विधाओं में बहुमूल्य रचनाएँ लिखीं | यद्यपि आपने कविताएँ कम लिखीं है , फिर भी इतनी कम नहीं …’ चलता चला जाऊँगा ‘ बहुत ही उल्लेखनीय है . आपकी कहानियों का तो कोई जवाब नहीं | आपके कुंडेवालान [ दिल्ली ] स्थित आवास पर आपसे 1997 में भेंट हुई थी | पहली ही मुलाक़ात में दो – ढाई घंटे तक बातचीत होती रही | आपने अपने जीवन की कई घटनाओं का उल्लेख किया , जिनमें एक घटना सांप्रदायिक उपद्रव की स्थिति में आपके संयम और उपद्रवियों के हरकतों से निबटने के बारे में थी |

इसी भेंट में आपने अपनी मुंहबोली मुस्लिम बहन , जो उस समय घर पर ही थीं , से परिचय कराया | आपने अपनी चर्चित कृति ‘ आवारा मसीहा ‘ के लेखन से संबंधित बहुत – सी बातें बतायीं | इसके लेखन के बाबत आपने कई स्थानों का भ्रमण किया था | यह लेखन महान साहित्यकार शरत चन्द्र के जीवन पर आधारित था | इसके बाद आपसे अक्सर भेंटें होती रहीं |.कभी काफ़ी हॉउस और आपके निवास पर तो बार – बार मिलना हुआ , जिसके कारण आपसे मैंने बहुत कुछ सीखा |

मेरा यह मानना है कि आप इन्सान और इंसानियत को ही सदैव प्राथमिकता देते थे | आप स्पष्टवादी भी थे |. जिस वाद या विचारधारा से असहमत होते , बता देते , लेकिन आपका इंसानियत – प्रेम का परचम सदा सबसे ऊपर रहता | जब मैंने आपसे अपने काव्य – संकलन ‘ यथाशा ‘ के विमोचन का निवेदन किया , तो आपने बड़े ही सहज भाव से कहा , भाई , मैं कवि थोड़े ही हूँ ‘. मैं कहा , आप कवि भी हैं और अच्छे कवि ‘ | आदरणीय प्रभाकर जी ने कहा , अच्छा तो सुनाओ भाई , मेरी किसी कविता की कुछ पंक्तियां ‘.| मैंने कहा कि बहुत याद नहीं , पर ‘ निकटता ‘ शीर्षक कविता की चंद पंक्तियाँ आपकी सेवा में प्रस्तुत करता हूँ – ‘ त्रास देता है जो / वह हँसता है / त्रसित है जो / वह रोता है / कितनी निकटता है / रोने और हँसने में ! ‘ आपने कहा , ‘ हाँ भाई हाँ , यही तो बात है |’

फिर आपने कुछ दिनों के बाद 29 जनवरी 2001 को ‘ यथाशा ‘ का विमोचन किया . आपने आशीर्वचन में कहा कि ” मैं ‘ यथाशा ‘ की अभिव्यक्ति को मानव के सहज स्वभाव की अभिव्यक्ति मानता हूँ …. कविता होनी ही ऐसी चाहिए , जसका हमारे मन पर अच्छा और स्वस्थ प्रभाव पड़े | ‘ यथाशा ‘ ऐसी ही है , जिसमें गज़लें भी हैं , गीत भी हैं , क्षणिकाएं आदि भी हैं | इसके साथ ही इन्हें पेश करने का अच्छा सलीक़ा भी है |” …….. आदरणीय विष्णु प्रभाकर जी की आज 11अप्रैल [ 2009 ]  पुण्यतिथि है , जो प्रति वर्ष साहित्य जगत की अपूरणीय क्षति का एहसास करा जाती है | वास्तव में आप साहित्य के शिखर पर थे ही , एक बहुत ऊंचा अख्लाक़ी क़द रखते थे और सच्चे इन्सान दोस्त थे ………….. आपको शत – शत नमन

  • Dr RP Srivastava

 

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