विष्णु प्रभाकर जी ‘आख़िर क्यों ?’ क्या आपको अपने प्रश्नों का उत्तर मिल गया ? परमात्मा ने आपको जो दीर्घायु [ जन्म 21 जून 1912 ई. – मृत्यु 11 अप्रैल 2009 – 97 वर्ष ] प्रदान की और आपने जिस तरह लगन, निपुणता और प्रांजलता के साथ अपने अनुभवों को शब्दों में पिरोया, उसे देखकर यही लगता है कि आपके प्रश्न अनुत्तरित नहीं रहे होंगे |
दिसंबर 1998 ई. का वह संध्याकाल मुझे याद आ रहा है, जब मैं आपसे मिलने 818, कुण्डेवालन [ अजमेरी गेट, दिल्ली ] स्थित आपके पुराने आवास पहुँचा था और आपने जो आवभगत की और जिस सज्जनता, शिष्टता और अपनी उदारमना प्रवृत्ति का परिचय दिया, वह आज भी मेरे मन – मस्तिष्क में किसी जगह संचित है | इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि इस लगभग एक दशकीय संबंध में मैंने और उन्होंने इसके स्तर को बनाए ही नहीं रखा, अपितु इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि जारी रखी, यहां तक कि मेरा – उनका संबंध प्रगाढ़ हुआ और वह वैयक्तिकता के दौर से भी गुज़रता रहा | जब प्रभाकर जी पीतमपुरा [ नई दिल्ली ] के अपने नए विस्तृत आवास में रहने लगे, तो महीने में औसतन एक बार अवश्य फोन करके या करवाकर मुझे अपने यहाँ बुला लेते, बावजूद इसके कि कॉफी हॉउस में अक्सर ही उनसे भेंट हो जाया करती थी | यह उनका आशीर्वाद, प्रेम और स्नेह ही था, जो इस रूप में भी प्रकट हुआ करता था |
पहली मुलाक़ात में उन्होंने अपनी कहानियों के एक उत्कृष्ट संकलन ‘आख़िर क्यों ?’ की पृष्ठभूमि पर जो बातें कही थीं, वे आज भी मेरे स्मृति – पटल पर अंकित हैं | यह कहानी – संग्रह भारत विभाजन की त्रासदी और पीड़ाजनक काल पर आधारित है | इसमें जो कहानियाँ हैं, वे सांप्रदायिक सौहार्द और सद्भावना को बढ़ाने वाली हैं | हिंसा और रक्तपात के कारकों की खोज शायद इनमें न हो सके, लेकिन विष्णु प्रभाकर जी जब – जब भी बातें और मुलाक़ातें हुईं, उनमें उन्होंने कुछ कारकों को अवश्य गिनाया |
जनवरी 2001 में जब उन्होंने मेरे काव्य – संग्रह का विमोचन किया, तब भी उन्होंने भारतवासियों विशेषकर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बढ़ाई जानेवाली दूरियों पर चिंता प्रकट की और सांप्रदायिकता के बढ़ते रुझान की निंदा करते हुए इसे देश और समाज के लिए घातक एवं संहारक बताया | उन्होंने कहा कि साहित्य – सर्जना का यह उद्देश्य उभरा हुआ होना चाहिए कि मानवता टुकड़ों में न बँटे |
विष्णु जी सिद्धांतवादी तो थे ही, कट्टर मानवतावादी भी थे | वे मुझे मित्र कहते, लेकिन उन्होंने कभी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया | एक बार मैंने अपने समाचारपत्र में प्रकाशन के लिए उनसे कुछ रचनाएं चाहीं, तो उन्होंने अपनी कहानियों के कई संग्रह भेजवा दिए | वे कभी – कभार मुझे पत्र भी लिखते रहे | रचनाएँ छपने पर उनका पत्र आना तो लाज़िम था ही ! वृद्धावस्था की उन्होंने कोई परवाह न की और अपने जीवन के अंतिम समय तक साहित्य – सर्जना करते रहे |
अपनी अंतिम यात्रा और महाप्रयाण के लगभग एक वर्ष पूर्व उन्होंने मुझे एक पत्र में लिखा था , ” कहानी – लेखन के वर्तमान क्रम के पश्चात एक दीर्घकाय उपन्यास लिखने का विचार है |” जब मैंने यह मालूम किया कि क्या वह ‘आवारा मसीहा’ से उत्तम होगा ?, तो उन्होने जवाब दिया, ‘उत्तम नहीं तो मध्यम भी नहीं होगा |’ ज़ाहिर है उनकी इस उपन्यास को लिखने की अभिलाषा पूरी नहीं हो सकी | वैसे प्रभाकर जी मूलतः कहानीकार थे |
संबंधों के बड़े अंतराल में विष्णु जी ने बार – बार सहनशीलता का परिचय दिया | वे बड़े जीवट – पुरुष थे | केंद्रीय गृह मंत्रालय के पूर्व हिंदी अधिकारी डॉ. देवेश चंद्र ने प्रभाकर जी को राष्ट्रपति पदक दिए जाने पर अपनी एक विस्तृत प्रतिक्रिया लिखकर प्रकाशन के लिए मुझे दी, जिसे भी मैंने प्रकाशित की | इस प्रतिक्रिया में डॉ, देवेश ने प्रभाकर जी जमकर आलोचना की थी | प्रतिक्रिया छपते ही प्रभाकर जी का पत्र आया , जिसमें उन्होंने प्रकाशन का विरोध नहीं किया, बल्कि मेरे इस कार्य को पत्रकारिता का गुरुतर दायित्व बताया | लिखा कि ” आप संपादक हैं | आपको विचार – अभिव्यक्ति के प्रकाशन का अधिकार है |” फिर उन्होंने हर आरोप का वैसे ही विस्तृत उत्तर दिया, जिसको भी मैंने प्रकाशित किया |
प्रभाकर जी के बारे में मेरा व्यक्तिगत मत यह है कि वे न पूर्णतः आर्यसमाजी थे और न ही पूर्णतः गाँधीवादी, अपितु वे पूर्णतः मानवतावादी थे | मुझे दीर्घ संपर्क – काल में उनमें संकीर्ण व सांप्रदायिक सोच की प्रतिच्छाया तक कभी नहीं नज़र आई | सिद्धांतवादी होना अलग बात है और संकीर्ण व सांप्रदायिक होना बिलकुल अलग बात है | प्रभाकर जी आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी सज्जनता, शिष्टता, उदारता, सुशीलता और उत्कृष्ट रचनाधर्मिता अमर एवं अक्षय है, उन्हें कोटिशः नमन !
[ निधन पर श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत उद्गार, जो अप्रैल और मई 2009 में कई पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ | ] – – Dr RP Srivastava, Editor – in – Chief , ”Bharatiya Sanvad”