खल गनन सों सज्जन दुखी मति होहिं हरिपद मति रहे |
अपधर्म छूटै सत्य निज भारत गहै कर दुःख बहै |
बुध तजहिं मत्सर नारिनर सम होंहि जब आनन्द लहैं |
तजि ग्राम कविता सुकवि जन की अमृत बानी सब कहैं |
– भारतेन्दु हरिश्चंद
1868 ई. में जब आपने ‘ कवि वचन सुधा ‘ का प्रकाशन शुरू किया | तब यह मासिक था . बाद में गद्य की आवश्यकता समझ इसे पाक्षिक और फिर साप्ताहिक कर दिया गया | इस पत्र का सिद्धांत – वाक्य उपर्युक्त पंक्तियाँ थीं |
वे इन्हीं आदर्श वाक्यों पर अमल भी करते थे | अन्य साहित्य मनीषियों एवं पत्रकारों का भी उच्च आदर्श होता था | स्वनामधन्य गणेश शंकर विद्यार्थी ने ” प्रताप ” के द्वारा , तो महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ” सरस्वती ”के माध्यम से इस अलख को जलाये रखा | इस आदर्श परंपरा को बनारसीदास चतुर्वेदी ने ” विशाल भारत ” , प्रेमचंद ने ” हंस ” एवं ” जागरण ” , अज्ञेय ने ” प्रतीक ” एवं ” नया प्रतीक ” तथा बाबू राव विष्णु पराड़कर ने ” आज ” के माध्यम से जीवंत रखा | भारतेंदु हरिश्चंद का एक चिन्तन देखिए , जिससे आसानी से पता चल जायेगा कि उनकी कितनी उच्च आदर्शोंवाली पत्रकारिता थी |
” रचि बहु विधि के वाक्य पुरातन मांहि घुसाए ,
सैव , सावत , वैष्णव अनेक मत प्रकति चलाये !
जाती अनेकन करी , नीच अरु ऊंच बनायो ,
खान – पान संबंध सबन सों बरजि छुड़ायो !
जन्म पत्र बिन मिले ब्याह नहीं होन देत अब ,
बालकपन में ब्याहि प्रीति , बल नस कियो सब !
करि कुलीन के बहुत ब्याह बलबीरजु मारयो ,
विधवा ब्याह निषेध कियो , बिभिचार प्रचारयो !
रोकि विलायत – गमन कूप – मण्डूक बनायो ,
औरन को संसर्ग छुड़ाइ प्रचार घटायो !
[ पद्य कृति ” भारत दुर्दशा ” से एक अंश ]
आज कहाँ है ऐसी पत्रकारिता ? और कहाँ हैं ऐसे पत्रकार ? वास्तव में पत्रकारिता एक ओर जन – जन की आकांक्षा – जिज्ञासा का परितोष करती हुई उसके उज्ज्वल भविष्य का मार्ग प्रशस्त करती है , तो दूसरी ओर साहित्य को गति और गरिमा प्रदान करती हुई संस्कृति को परिपुष्ट करती है |
– Dr RP Srivastava