हिंदी के महान साहित्यकार, पत्रकार एवं युगप्रवर्तक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की साहित्यसेवा अविस्मरणीय है | उनके योगदान के कारण हिंदी साहित्य का दूसरा युग ‘द्विवेदी युग’ के नाम से जाना जाता है | जनवरी, 1903 ई. से दिसंबर, 1920 ई. तक आपने ‘ सरस्वती ‘ नामक मासिक पत्रिका का संपादन कर एक कीर्तिमान स्थापित किया था | आपने अपने लिए बहुत – ही सुविचारित एवं अनुकरणीय सिद्धान्त बना रखे थे – वक़्त की पाबंदी करना, रिश्वत न लेना, अपना काम ईमानदारी से करना और ज्ञान-वृद्धि के लिए सतत प्रयत्न करते रहना | द्विवेदी जी ने लिखा है, ‘‘पहले तीन सिद्धान्तों के अनुकूल आचरण करना तो सहज था, पर चौथे के अनुकूल सचेत रहना कठिन था , तथापि सतत् अभ्यास से उसमें भी सफलता होती गई | आपने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि ” इस समय तो कितनी महारानियाँ तक हिंदी का गौरव बढ़ा रही हैं , पर उस समय एकमात्र ‘ सरस्वती ‘ ही पत्रिकाओं की रानी नहीं , पाठकों की सेविका थी | तब उसमें कुछ छपाना या किसी के जीवन – चरित्र आदि प्रकाशन कराना ज़रा बड़ी बात समझी जाती थी | दशा ऐसी होने के कारण मुझे कभी – कभी बड़े – बड़े प्रलोभन दिए जाते थे | कोई कहता , मेरी मौसी का मरसिया छाप दो , मैं तुम्हें निहाल कर दूंगा . कोई लिखता , अमुक सभापति की ‘ स्पीच ‘ छाप दो , तो मैं तुम्हारे गले में बनारसी दुपट्टा डाल दूंगा . कोई आज्ञा देती , मेरे प्रभु का जीवन – चरित्र निकाल दो , तो तुम्हें एक बढ़िया घड़ी या पैर – गाड़ी नज्र की जाएगी | इन प्रलोभनों पर विचार करके मैं अपने भाग्य को कोसता ….. भला ये घड़ियाँ और गाड़ियाँ मैं कैसे हज़म कर सकूंगा ? नतीजा यह होता कि मैं गूंगा और बहरा बन जाता और ‘सरस्वती ‘ में वही मसाला जाने देता , जिससे पाठकों का लाभ समझता |” आज कहाँ गयी यह पत्रकारिता ? कहाँ गये आदर्श मूल्य और नैतिकता ? अब तो ‘ पेड न्यूज़ ‘ का चक्कर चल रहा है ! ऊपर से इसे क़ानूनी जामा पहनाने की कुचेष्टा चल रही है ! किस अंधे युग में जी रहे हैं हम ? क्या सब कुछ भौतिकता के हवाले हो गया है ?
अतिथि लेखक/पत्रकार
“जित देखूं तित लाल” की सुखद अनुभूति
21 पुस्तकों की समीक्षा पढ़ने का मतलब आपने 21 पुस्तकों को पढ़ भी लिया और समझ भी लिया यानी मुफ्त में इतनी सारी पुस्तकें पढ़ने को मिल गयीं, ये दूसरी बात है इनमें से 8 Read more…