बादल गरजें या फिर बरसें
आशाएं न छोड़ो
मौसम कैसा भी हो तुम सच बोलो |
चहुँदिश आंगन में हवा चले कितनी सर्दीली
घात करे प्रतिघात से चाल कितनी कंटीली
संयम की बातें सुनकर हुई कितनी भड़कीली
जल के अजस्र स्रोत बहें राह कितनी पथरीली
तुम भी जागो , हम भी जागें
दिये जलाएं , तमस मिटाएं
ज़हरीले प्रपात में तुम मधुरस घोलो
मौसम कैसा भी हो तुम सच बोलो |
बिजली की कड़कें होती नहीं मादक हैं
वर्षा की खोज में निकले कितने चातक हैं
श्रृगाल , वानर , भेड़िये हुए इनके नेता
लोमड़ी , स्वान , गिद्ध बने हैं उपनेता
अब इस व्यवस्था को
इनके हाल पर मत छोड़ो
जब भी हो उचित अवसर तुम मुंह खोलो
मौसम कैसा भी हो तुम सच बोलो |
अब तो तेज़ हवा आने लगी है
प्राण – पखेरू सबको सताने लगी है
पक्षी पिंजरे से उड़ – उड़कर गिरते हैं
आकाश ख़ाली है , फिर भी मरते हैं
घोर कालिमा देख
उठो , इसे ऐसे मत छोड़ो
सामर्थ्य के सारे बीज तुम बो लो
मौसम कैसा भी हो तुम सच बोलो |
– राम पाल श्रीवास्तव ‘ अनथक ‘