भारतीय रिजर्व बैंक के अधिकार क्षेत्र में कटौती के मक़सद से ही मौद्रिक नीति समिति [ एम पी सी ] बनाई गई थी | इससे सरकार को उम्मीद थी कि आर बी आई निरंकुश होकर निर्णय नहीं कर पाएगा | इसके बाद भी आर बी आई और मोदी सरकार के बीच टकराव सामने आया है | विगत सात जून को आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल के नेतृत्व वाली मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने रिजर्व बैंक के रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट की दरें यथावत रखीं , जबकि मोदी सरकार चाहती थी कि ये दरें कम की जाएं।

कोलकाता के अंग्रेज़ी दैनिक ‘ द टेलीग्राफ ‘ के अनुसार , रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों पर फैसला लेने से पहले वित्त मंत्रालय के अधिकारियों के साथ बैठक का अनुरोध ठुकरा दिया था। देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम ने भी पत्र लिखकर रेपो रेट कम न किए जाने की वजहें बताईं। ऐसा शायद पहली बार ही हुआ है कि मुख्य आर्थिक सलाहकार ने लिखित रूप से सफाई दी हो। इस अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार मोदी सरकार की रिजर्व बैंक से नाराजगी तब शुरू हुई जब फरवरी-मार्च में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के समय रिजर्व बैंक ने भारतीय निर्वाचन आयोग का उम्मीदवारों को ज्यादा नकदी निकालने की छूट देने का अनुरोध ठुकरा दिया था। चुनाव आयोग चाहता था कि उम्मीदवारों को नकद निकासी की तय सीमा 24 हजार प्रति सप्ताह की जगह दो लाख रुपये प्रति सप्ताह कर दी जाए। नोटबंदी के कारण नकदी की दिक्कतों के चलते रिजर्व बैंक ने इस मांग को मानने से इन्कार कर दिया था | आर बी आई की शिकायत रही है कि नोटबंदी के फ़ैसले में भी उसकी राय की अनदेखी की गई |

वास्तव में ये सभी परेशानियाँ आर बी आई के कामकाज में सरकार के अनावश्यक दखल से बढ़ी हैं | आर बी आई का सबसे बड़ा और अहम काम देश की अर्थब्यवस्था को मज़बूत बनाने के लिए दीर्घकालिक कदम उठाना है | अगर आर बी आई के इस काम में किसी भी कारण से अडचन पैदा हो , तो अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती है | अतः आर बी आई को किसी हद तक स्वायत्त बनाये रखना चाहिए | आज भी देश की आर्थिक स्थिति जटिल ही है | भूमण्डलीय व्यवस्था का अभिशाप पूंजीवाद की शक्ल में हमारे सामने मौजूद है | देश के बाज़ार विदेशी वस्तुओं से पटते जा रहे हैं। हम केवल विदेशी उद्यमों में होने वाली प्रतिस्पर्धा से लाभान्वित हो रहे हैं , लेकिन कुल मिलाकर यह अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने वाली नहीं कही जा सकती। भूमंडलीकरण को स्वीकार करने के सवाल पर लगभग सभी राजनैतिक दल सहमत थे , लेकिन विदेशी वस्तुओं को कम करके उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए देश के भीतर प्रयत्न करने का साहस न तो किसी के पास था और न आज है । यह आशंका पहले से मौजूद रही है कि भूमंडलीकरण जैसे प्रयोग हमारे लिए मुश्किलों और परेशानियों का कारण बन जायेंगे | वास्तविकता यह है कि आज ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जिसमें हम अपने को आत्मनिर्भर कहकर संतोष जता सकें। हमारा देश कृषि प्रधान है | हमारी अर्थव्यवस्था मूलतः कृषि पर निर्भर है | यह थोड़े संतोष का विषय है कि कृषि – उत्पादनों से विदेशी निर्भरता थोड़ी समाप्त हुई है , लेकिन अभी भी उन्नत बीजों के इस्तेमाल, रासायनिक उर्वरक और कृषि के औज़ारों पर निर्भरता के मामलों में हम आत्मनिर्भर नहीं हुए हैं। आज भी हम विभिन्न प्रकार के उन्नत बीज विदेशों से आयात कर रहे हैं , लेकिन पेटेंट विदेशों के पास होने से हम इसके उत्पादन को बीज में कन्वर्ट नहीं कर सकते | फिर उसे विदेशों से ही मंगाना पड़ेगा |

यहाँ भी पूंजीवाद का ज़हरीला सांप कुंडली मारे बैठा हुआ है | इसी प्रकार सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी अस्पतालों और उद्यमों में प्रयुक्त होने वाली फिल्म और अन्य कुछ चीज़ें अपनी आवश्यकता भर बनाने में हम सक्षम नहीं हैं। हमने जो प्रयोग किये, उन्हें समुन्नत श्रेणी में नहीं शामिल कर सके , इसलिए उन्नत व्यापार और औद्योगिक आवश्यकताओं में हम पिछड़ी तकनीक से मुकाबला नहीं कर सकते। इस आधुनिक एवं परिवर्तनशील युग में हम कैसे अपने को जीवन योग्य और सक्षम बनायेंगे, यह अभी तय होना बाकी ही है।विदेशी मुद्रा के अर्जन का सवाल बड़ा टेढ़ा है | इसका सर्वमान्य उसूल यही है कि जितना निर्यात बढ़ेगा, उतनी ही विदेशी मुद्रा आयेगी और इससे हमारा आयात कम हो तो यह संतुलन लाभकारी होगा। यदि आमदनी कम और खर्च अधिक होगा, तो हमारी निर्भरता बढ़ती जायेगी और हम कंगाल होते जायेंगे | विदेशी पूंजी को देश में लाने और इसके विनियोजन के लिए मोदी सरकार प्रयासरत है , लेकिन इससे हमारी अर्थव्यवस्था कितनी मज़बूत हुई है , यह गौरतलब विषय है |आज के युग में भी युद्धक अस्त्रों और हथियारों पर सबसे अधिक खर्च होता है | पूंजीवाद ने ऐसी स्थितियां बना दी हैं कि हर देश अपना सबसे अधिक धन इस मद में बहाने के लिए मजबूर है | यदि हमारी विदेशी निर्भरता बढ़ती जायेगी तो अर्थव्यवस्था इससे कमजोर होती जाएगी, इसे रोका नहीं जा सकता। हमारे हस्तकला, गृह और कुटीर उद्योग लोगों को काम देने में सहायक होंगे, इन्हें हमें सुरक्षित करना पड़ेगा , लेकिन यदि मुक्त व्यवसाय इनको समाप्त करने में सहायक हो तो देश में बेरोजगारों की संख्या और भी बढ़ेगी। गरीबी और अमीरी का अन्तर तथा बेरोजगारी निरंतर बढ़ती ही जा रही है। आज यही हो रहा है ! ऐसे में आर बी आई को स्वायत्त रूप से मौद्रिक गतिविधियों को संचालित करने देना चाहिए | – Dr RP Srivastava

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