महाराष्ट्र के बाद मध्य प्रदेश में किसानों की आत्महत्या की घटनाएं बड़ा मुद्दा बनी हुई हैं। कर्ज में डूबे या फिर फसल के कम दाम से परेशान कई किसानों के जान देने की खबरें समय-समय पर सामने आती रहीं हैं। सरकार ने कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि देश में हर साल लगभग बारह हज़ार किसान आत्महत्या कर लेते हैं | यह संख्या समय बीतने के साथ बढ़ती जाती है ! 1990 से यही स्थिति है | समान्यतः देखा जाता है कि कर्ज़दार किसानों के प्रति बैंक हमदर्दी नहीं दिखाता , जबकि अमीरों व पूंजीपतियों के प्रति उसका रवैया ललित मोदी , विजय माल्या , नीरव मोदी और विक्रम कोठारी के भ्रष्टाचार कांडों में साफ़ देखा जा सकता है | किसान का क़र्ज़ ब्याज के प्रभाव से बढ़ता ही जाता है , जबकि पूंजीपति का क़र्ज़ एन पी ए की शक्ल लेकर माफ़ी की ओर बढ़ जाता है | किसान संकट में फंसता चला जाता है |नतीजा यह होता है कि वह जीवन से भी हार जाता है और कायरतापूर्ण क़दम उठा लेता है |संबंधित जिम्मेदार मंत्रियों से आत्महत्या को रोकने के लिए उपाय करने की उम्मीद होती है, मगर उनकी हास्यपूर्ण गलतबयानी अजीब स्थिति पैदा करती है और ज़िम्मेदारी से भागने का प्रमाण जुटाती है | ताजा मामला मध्य प्रदेश सरकार के ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव का है। जिन्होंने राज्य में एक किसान की आत्महत्या के पीछे बवासीर की बीमारी को जिम्मेदार ठहराया है। इससे पहले केंद्रीय कृषिमंत्री राधामोहन सिंह ने किसानों की आत्महत्या के पीछे नपुंसकता की वजह बताई थी। इस बयान के कारण कृषि मंत्री को काफी आलोचना का सामना करना पड़ा था।

मध्य प्रदेश के अशोकनगर के सिंगपुर गांव में एक किसान ने आत्महत्या की थी। कहा गया कि फसल बर्बाद होने से परेशान होकर किसान ने जान दी। जब ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव से पत्रकारों ने इस बारे में पूछा तो उन्होंने फसल बर्बादी की वजह से आत्महत्या की बात को झूठ करार दिया। कहा कि किसान ने फसल खराब होने के कारण नहीं बल्कि बवासीर और अल्सर जैसी बीमारी के कारण जान दी। ग्रामीण विकास मंत्री ने कहा कि मृतक किसान के इलाके में ओलावृष्टि नहीं हुई थी। लिहाजा फसल नष्ट होने के कारण आत्महत्या करने की बात सरासर झूठी है। मंत्री ने अपने दावे के समर्थन में कहा कि आत्महत्या करने वाले किसान और उसके बेटे का इलाज उनके ही बंगले से हो रहा था। हमारे देश में आर्थिक उदारीकरण की हवा डॉ . मनमोहन सिंह द्वारा बहाई गई थी | कुछ जानकार इसके नतीजों के प्रति आशंकित थे और वे इसका अपने – अपने स्तर से विरोध कर रहे थे | मगर कहते हैं कि सत्तामद के शिकार लोग हक़ीक़त भूल जाते हैं और जो उनके दिल में आता है , बिना विचारे सब कर गुजरते हैं ! यह वही दशक था , जब देश में ज्ञातव्य तौर पर किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला शुरू हुआ | 1990 के बाद प्रति वर्ष लगभग दस हज़ार किसानों की आत्महत्याओं का आंकड़ा सामने आया , जो आज बढ़ते – बढ़ते हर दिन औसतन 46 किसानों की आत्महत्याओं में तब्दील हो चुका है !

यह एक खुली हकीक़त है कि देश की जनसंख्या के साठ फ़ीसद से अधिक जनसंख्या वाले किसानों की समस्याओं पर कभी कोई संजीदा सोच-विचार नहीं हुआ | उलटे बेशर्मी की हद यह भी हुई है कि उत्तर प्रदेश , छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने इन आँकड़ों को छिपाना शुरू कर दिया था और कुछ राज्य ‘शून्य आत्महत्याएँ’ घोषित करना शुरू कर दिया था | कहा जाने लगा कि आत्महत्याएँ खेती की वजह से नहीं, बल्कि नशे की लत, पारिवारिक झगड़े, बीमारी की परेशानी, लड़की की शादी या ऐसे ही किसी कारण से लिये गये क़र्ज़ को न चुका पाने के कारण हो रही हैं ! इस मामले में सपा के शासनकाल में उत्तर प्रदेश में तो खुले झूठ का बाज़ार गर्म था , जहाँ आधिकारिक रूप से फ़सल बर्बादी की वजह से 99 किसानों द्वारा आत्महत्या की बात आई , वहीं दूसरी ओर तत्कालीन वरिष्ठ मंत्री शिवपाल यादव ने बड़ी ढिठाई के साथ कह दिया था कि प्रदेश ने फसल बर्बादी से एक भी किसान ने आत्महत्या नहीं की | वास्तव में आर्थिक उदारीकरण ने किसानों को निगला है | इसी वजह से खेती लगातार किसान के लिए घाटे का सौदा साबित होती जा रही है और उसकी लागत लगातार बढ़ती जा रही है, जिसे बर्दाश्त करना नामुमकिन है | वर्तमान मोदी सरकार की किसानों की मौलिक समस्याओं से अनभिज्ञ है | बस जुमलेबाज़ी जारी है | पूंजीवाद इस कदर हावी है कि किसानों को उत्पादित फ़सल का मुनासिब दाम नहीं मिलता | सरकारी आँकड़े बताते हैं कि गेहूँ की फ़सल पर औसतन एक हेक्टेयर में क़रीब 14 हज़ार, सरसों की फ़सल पर क़रीब 15 हज़ार, चने की फ़सल पर महज़ साढ़े सात हज़ार रुपये और धान पर सिर्फ़ साढ़े चार हज़ार रुपये प्रति हेक्टेयर ही किसान को बच पाते हैं | लेकिन अगर फसल खराब हो गई तो वह भी नहीं | अगर खेती खुद नहीं की , साझेदारी या बटाई के माध्यम से करवाई तो कुछ ही मिल पाता है | हमारी कृषि नीति इतनी ख़ामियों वाली है कि किसानों को कोई उल्लेखनीय सरकारी लाभ नहीं मिल पाता | किसानों के लाभार्थ कभी कुछ कार्यक्रम चलाए भी जाते हैं , तो वे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ा दिए जाते हैं | ऐसे में बहुत आवश्यक है कि अब किसान हितों पर पर्याप्त  ध्यान दिया जाए , रस्मन नहीं अमलन उन कारकों को तलाश करके उनका हल भी तलाश करना होगा , जो किसानों को आत्महत्या की ओर ले जाते हैं |- Dr RP Srivastava , Editor in Chief , Bharatiya Sanvad

 

 

 

 

 

 

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