एक तरफ़ तो देश में खाद्य सुरक्षा क़ानून लागू है , जिसके तहत भुखमरी , कुपोषण और खाद्य असुरक्षा के लिए सरकार को ज़िम्मेदार माना गया है | फिर भी देश में हर साल लाखों टन अनाज सिर्फ भंडारण के उचित प्रबंध के अभाव में बर्बाद हो जाता है | खाद्य सुरक्षा क़ानून में सस्ते रेट पर चावल , गेहूं और मोटे अनाजों को उपलब्ध कराने की व्यवस्था है | इसके बावजूद भूखे लोगों की तादाद घट नहीं पा रही है ! कितनी बड़ी विडंबना है कि सरकार अनाज को तो सड़ने देती है , दूसरी ओर यह कहती है कि अनाज की कमी है , लिहाज़ा वह गरीब जनता को मुफ़्त में अनाज नहीं उपलब्ध करा सकती | भूखे लोगों तक मुफ़्त अनाज आपूर्ति के सुप्रीमकोर्ट की हिदायत पर बार – बार सरकार यही बात कहकर पल्ला झाड़ लेती है | हैरानी की बात यह भी है कि उचित भंडारण न हो पाने के कारण अनाज के सड़ने की खबरें पिछले कई साल से आती रही हैं, लेकिन इस दिशा में सरकार को कोई ठोस कदम उठाने की जरूरत महसूस नहीं हुई। एक आंकड़े में यह बात सामने आई कि देश में हर साल लगभग साठ लाख टन अनाज या चूहे खा जाते हैं या सड़ जाते हैं | अगर अनाज को सही – सुरक्षित रखा जाए , तो इससे 10 करोड़ बच्चों को एक साल तक खाना खिलाया जा सकता है | पंजाब में पिछले आठ सालों में जितना अनाज बर्बाद हो गया , उससे कई राज्यों में चार साल तक लोगों का पेट भर जाता |
इस बाबत एसोचैम ने बार – बार फिर सरकार को सचेत किया है। उसकी एक रिपोर्ट के मुताबिक, फिलहाल देश में साढ़े तीन करोड़ टन भंडारण क्षमता की जरूरत है, मगर इसकी कमी के चलते लगभग चालीस फीसद अनाज का रखरखाव सही तरीके से नहीं हो पाता। उसमें अवैज्ञानिक और गैर-व्यावसायिक तरीके से किए गए भंडारण और गोदामों की उपलब्धता में क्षेत्रीय विसंगति के चलते देश में कुल उपज का बीस से तीस फीसद अनाज बर्बाद हो जाता है। दूसरी ओर एफ . सी . आई . के एक अधिकारी के अनुसार , ‘‘देश में अनाज भंडारण सुविधा की कोई कमी नहीं है | एफसीआई तथा राज्य सरकार की एजेंसियों की कुल भंडारण क्षमता मार्च 2017 में समाप्त वित्त वर्ष में 772.93 लाख टन तक पहुंच गयी है।” इन भंडारण सुविधाओं में एफसीआई के खुद के गोदामों और अन्य भंडारण सुविधाओं के साथ राज्यों की सरकारी एजेंसियों के भंडारगृह शामिल हैं।
खाद्य सुरक्षा क़ानून के आने के बाद यह आशा की जा रही थी कि देश से भुखमरी का खात्मा हो जाएगा , किन्तु व्यवहार में ऐसा नही दीखता | आज भी करोड़ों लोगों को दिन की शरुआत के साथ ही यह सोचना पड़ता है कि आज पूरे दिन पेट भरने की व्यवस्था कैसे होगी ? सुप्रीम कोर्ट की फटकार का भी सरकार पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता | भंडारण में व्यापक खामियों के चलते लाखों टन अनाज सड़ जाने की खबरों के मद्देनजर कुछ साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को कड़ी फटकार लगाई थी कि अगर भंडारण का प्रबंध नहीं किया जा पा रहा है तो क्यों नहीं अनाज को गरीबों में मुफ्त बांट दिया जाता। इसके अनुपालन में सरकार मूक – बधिर नज़र आती है | एक आंकड़े के अनुसार , सही रखरखाव के अभाव में पंजाब में पिछले कुछ वर्षों के दौरान पंजाब में 16 हज़ार 500 टन अनाज सड गया | मध्य प्रदेश में अनाज भंडारण को लेकर सरकार कितनी लापरवाह है इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि पिछले कुछ सालों में प्रदेश के सरकारी गोदामों में रखा 157 लाख टन अनाज सड़ गया, जिसकी अनुमानित कीमत पांच हजार करोड़ रुपए थी। इसमें 54 लाख टन गेहूं व 103 लाख टन चावल शामिल था। यह खुलासा हुआ है उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय की रिपोर्ट में।
यह स्थिति तब है जब वर्ष 2010 में सुप्रीम कोर्ट सभी राज्यों को स्पष्ट निर्देश दे चुकी है कि अनाज गोदामों में सड़े इससे बेहतर है कि गरीबों में बांट दे। अनाज की ज्यादा पैदावार के लिए लगातार चार बार कृषि कर्मण अवॉर्ड जीतने वाली मप्र सरकार अनाज की अधिक पैदावार के बाद भी रखरखाव पर ध्यान नहीं दे पा रही है। प्रदेश में अनाज भंडारण का जिम्मा एफसीआई, मार्कफेड और नागरिक आपूर्ति निगम पर है।
गोदामों में अनाज के खराब होने की बात अधिकारी भी छिपाते हैं। खाद्य मंत्री ओमप्रकाश धुर्वे ने जुलाई 2016 में जबलपुर के सहकारी गोदाम में औचक निरीक्षण किया था। उन्होंने पाया कि बड़े पैमाने पर अनाज सड़ चुका था। आकलन करने पर यह मात्रा करीब दस हजार क्विटंल अनाज की निकली। इससे पूर्व 2013 में सिंगरौली में 26 हजार क्विंटल और सीधी में चार हजार क्विंटल धान सड़ चुका है। नाम न उजागर करने की शर्त पर वेयरहाउस से जुड़े कुछ कर्मचारियों ने बताया कि अनाज खराब होने की एक बड़ी वजह मिलीभगत है, जिसका फायदा शराब कंपनियों को पहुंचाना है।अनाज जानबूझकर सड़ने दिया जाता है जिससे शराब कंपनियां बीयर व अन्य मादक पेय बनाने के लिए सड़े हुए अनाज खासतौर से गेहूं को औने-पौने दाम में खरीद सके। वर्ष 2013-14 और 2014-15 में मध्यप्रदेश में गोदामों में जो अनाज सड़ा , जिसकी कीमत पांच हजार करोड़ से ज्यादा की थी। इसमें चावल जो सरकार 2800 रुपए क्विंटल खरीदती है, के हिसाब से 157 लाख टन यानी 15 करोड़ 70 लाख क्विंटल की कीमत ही चार हजार 396 करोड़ होती है। वहीं गेंहू का समर्थन मूल्य प्रति क्विंटल 1700 रुपए होता है। इस हिसाब से 54 लाख टन गेंहू यानी पांच करोड़ 40 लाख क्विंटल गेहूं की कीमत 918 करोड़ रुपए होती है। जानकार बताते हैं कि अनाज की खरीदी में समर्थन मूल्य की राजनीति भी जमकर चलती है।
सरकार किसानों से अनाज को खरीद लेती है, लेकिन सही भंडारण और भ्रष्टाचार पर लगाम न होने के चलते अनाज सड़ जाता है। वर्ष 2016 में प्याज की हुई बंपर पैदावार के बाद भी ऐसा हुआ था। सरकार ने छह रुपए किलो से प्याज खरीदा, लेकिन हजारों टन प्याज गोदामों में ही सड़ गया। प्याज खरीदी में सरकार को 60 करोड़ से ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा । सरकार एक तरफ़ यह दावा करते नहीं थकती कि देश में अनाज प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं , फिर भी देश में भूख से मौतों का सिलसिला बरक़रार है |
कितनी अजीब बात है , जब सरकार विरोधाभासी बयान देकर यह कहती है कि अनाज की कमी है , जिसकी भरपाई के लिए जीएम तकनीक से अनाज उत्पादन को प्रोत्साहित किया जाता है ,जबकि जीएम [ जेनेटिकली मोडीफाइड ] जी ई [ जेनेटिकली इंजीनियर्ड ] तकनीक से पैदा ऐसी फसलों के जोखिम से भरे होने को लेकर कई अध्ययन आ चुके हैं। जीई फसलें डीएनए को पुनर्संयोजित करनेवाली प्रौद्योगिकी ( Recombinant DNA technology) के माध्यम से प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप से तैयार किए गए पादप जीव हैं। आनुवांशिकी इंजीनियरिंग (जीई) की अनिश्चितता और अपरिवर्तनीयता ने इस प्रौद्योगिकी पर बहुत सारे सवाल खड़े कर दिए हैं। इससे भी आगे, विभिन्न अध्ययनों ने यह पाया है कि जीई फसलें पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती हैं और इससे मानव स्वास्थ्य को संकट की आशंका है। इन सबके परिणामस्वरूप, इस खतरनाक प्रौद्योगिकी को अमल में लाने की आवश्यकता पर दुनिया भर में विवाद खड़ा हो गया है। भारत एवं अन्य बहुत सारे देशों में, पर्यावरण में छोड़े जा रहे जीई या जीएम पौधों-जंतुओं (organism) के विरूद्ध प्रचार के साथ ग्रीनपीस का कृषि पटल पर पदार्पण हुआ। जीई फसलें जिन चीजों का प्रतिनिधित्व करती हैं वे सब हमारी खेती के लिए वाहियात हैं। वे हमारी जैवविविधता के विनाश और हमारे भोजन एवं खेती पर निगमों के बढ़ते नियंत्रण को कायम रखती हैं। करीब छह महीने पहले ब्रिटेन स्थित मेकेनिकल इंजीनियरिंग संस्थान की ओर से जारी एक रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया था कि भारत में मुख्य रूप से भंडारण और ढुलाई सहित आपूर्ति की खामियों के चलते हर साल लगभग दो करोड़ टन गेहूं बर्बाद हो जाता है।जबकि देश में ऐसे लाखों लोग हैं, जिन्हें भरपेट भोजन नहीं मिल पाता या फिर पर्याप्त पोषण के अभाव में वे गंभीर बीमारियों का शिकार होकर जान गंवा देते हैं। हैरानी की बात है कि एक ओर भंडारण के क्षेत्र में निजी क्षेत्र को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहित किया गया, लेकिन स्थानीय जरूरतों के हिसाब से सरकारी पैमाने पर ऐसे प्रबंध करना या फिर इस व्यवस्था का विकेंद्रीकरण करके सामुदायिक सहयोग से इसे संचालित करना जरूरी नहीं समझा गया। इसके अलावा, जरूरत से अधिक भंडारण को लेकर खुद कृषि मंत्रालय से संबद्ध संसदीय समिति की आलोचना के बावजूद यह सिलसिला रुका नहीं है। सरकार की लापरवाही से स्थिति दिन – प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है | ऐसे में खाद्य सुरक्षा क़ानून के क्रियान्वयन पर सवालिया निशान लग गया है | देश की नई सरकार को चाहिए कि इस गंभीर समस्या पर प्राथमिक रूप से ध्यान दे और विगत सरकारों द्वारा की जा रही अनदेखी पर रोक लगाए | – Dr RP Srivastava