चीन में जब से
गिद्ध आए
कबूतर नहीं उड़े !
मगर क्यों ?
सबकी आंखें बंद हैं
सबकी हरकतें बंद हैं
उन्हें नहीं सुनाई पड़ती
सिसकती आवाज़ें
नहीं महसूस होती
क्रूर पीड़ा
निचुड़ती उम्मीदें
बिछड़ती सांसें !
कोई जीवंतता नहीं
मगर चंगेज़ ज़िंदा है
भेड़ियों के भेष में
दाल – रोटी तक छीन रहे
उस दिल को भी हलकान किए जाते हैं
जहां बसते हैं जज़्बात
होती जहां मुहब्बत की बरसात …
कबूतर देख रहा टुकुर – टुकुर यह मंज़र
लेकिन बेचारा है
कि उड़ नहीं पाता है
न कोई सहारा
न कोई आसरा
बस मर्म – गीत गाता है
रुदन ही नहीं, क्रंदन भी
जो मर्सिया बन जाता है !
…..
चीनी सुंग
राजवंश
भारत के हर्षवर्धन की तरह ?
नहीं … नहीं …..
हर्षवर्धन पहले के हैं
सातवीं शताब्दी के
सुंग
तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के
जिनकी सत्ता उखाड़ फेंकी
बर्बर मंगोलों ने
क्या कहा ?
मंगोल और मुहम्मद बिन क़ासिम
एक जैसे थे ?
हां … हां …..
दोनों विस्तारवादी !
अतिवादी
ख़ूंख़्वार और
हमलावर
सब एक जैसे …
दोनों कबूतरबाज़ !
अपने जीव लाते और छोड़ जाते
चरने – चुगने के लिए
इसी की दावत देते
इसी को फैलाते
मानो यही इनका जीवन हो
परजीवियों की तरह
खंडहररूपी …
…..
मंगोली आए
हवेई लाए
चीन में बसे
उइगुर आए हिस्सा बने
लेकिन कोई मुसलमान नहीं !
जब मंगोल जीते
1271में
सुंग नाश करके
तब भी मंगोली थे
अपने मज़हब पर थे
मंगोली जब सरहद पार कर
भिड़ने लगे मुसलमानों से
हारे
मुस्लिम ममलूकों से
तब मुसलमान बने/ बनाए गए
हवेई, उइगुर की तरह
कज़ाख़ , करकज, साला,
ताजिक, उज़्बेक, तंगश्यांग,
पाउआन और तातार
दस जातियां चंगेज़ी तर्ज़ पर चलीं
” रसगंगा ” का किया पान
हान और अन्य से किया विवाह
हवेई ही अधिक हैं मुसलमान
सब अब हैं दो करोड़ श्रीमान !
…..
सभी हैं हिसार में
क़ैदखाने में
ख़्वाह वह खुली जेल हो या बंद
छोटा काम हो या
घर की चाकरी का
मेहनत – मशक़्क़त का
खेती – किसानी का
ईंट – गारे का
ख़्वाह कोई भी खिदमत हो
हाज़िर रहते हैं
ग़ुलाम की तरह
आधुनिक काल के ग़ुलाम हैं ये
जिनकी आज़ादी की बात कम्युनिस्ट करते हैं !
उसूली ही सही, अमली नहीं !!
अस्ली भी !!!
…..
ख़्वाह आज के
शी जिनपिंग हों
जिन्हें दोबारा दुर्रा लगाने का मौक़ा मिला है !
निरीह कबूतरों पर
मूक परिंदों पर
जो उनके जैसों के जाल में फंसे हैं दशकों से –
” पीपुल्स रिपब्लिक ” के
” जनता के राज्य ” के
जनवादी शासन के !
ख़्वाह वह जू दी हों
सूंग चिंग लिंग हों
या दांग वीयू
ई चियांग हों
शी जियानियन हों
या यांग शांगकुन
जियांग जेमिन हों
या हू जिंताओ
या आज के
शी जिनपिंग हों
सभी ने पंख तोड़े हैं इनके
ख़ूंरेज़ी की है
क़त्ल और ग़ारतगीरी को छोड़िए जनाब
ये कबूतर को कबूतर तक नहीं मानते !
सत्ता की
ऐसी हनक
ऐसी सनक है इनकी ?
दुनिया की रहबरी का दावा है ?
…..
थांग तो ऐसे न थे
सराहा था
तीसरे ख़लीफ़ा उस्मान बिन अफ़्फ़ान को
उनके चीनी मिशन को नवाज़ा था
जब 25 अगस्त 651ई. को
उनसे मिलने पहुंचा था मिशन
…..
तीस हज़ार से अधिक उपासना स्थल बंद पड़े हैं
दशकों से इन पर ताले जड़े हैं
जो कहता है
हमें इबादत करनी है
ताले खुलते हैं
क़ैदख़ाना बन जाता है
इमाम और ” आख़ुन ” भी क़ैद हैं
हज़ारों के साथ
कोई आज़ादाना चल – फिर नहीं सकता
बोल नहीं सकता
लिख नहीं सकता
पढ़ नहीं सकता
सभा की बात छोड़िए
विरोध की बात तर्क कीजिए
हर अवामी आज़ादी पामाल है
पत्ता – पत्ता
बूटा – बूटा बदहाल है
सभी खामोश हैं !
सबके होंठ सिले हुए हैं !
सारे होनहार / दावेदार चुप हैं
कुछ तो बोलो …..
कुछ बोलते नहीं
अजीब सियापा छाया है
कुछ सोचने की बात छोड़िए
सभी बेहिस हैं
बेसुध हैं
ये मर्सिया भी नहीं पढ़ते
मगर
लहूलुहान / पंगु हुए कबूतर
” गुटर गूं ” का विर्द न कर
शांति के गीत गाते हैं !
चीन की ” लौह ” दीवार से टकराकर
जो मर्सिया बन जाता है !
गिद्ध फिर घेर लेते हैं !
आज की दुनिया में सब कुछ होता ही है
इंसानी हुक़ूक़ की पामाली का
नंगा नाच … ओह !
कफस काटेगा कौन ?
अलमनाक ! अलमनाक !! अलमनाक !!!
– राम पाल श्रीवास्तव ” अनथक “
( 4 नवंबर 2022 )