ऐ आफ़ताबे सुबहे वतन! तू किधर है आज,
तू है किधर कि कुछ नहीं आता नज़र है आज।
तुझ बिन जहां है आंखों में अंधेर हो रहा,
और इंतिज़ामे दिल ज़बरो ज़ेर हो रहा।
तुझ बिन सब अहले दर्द हैं दिल मुर्दा हो रहे,
और दिल के शौक़ सीनों में अफ़सुर्दा हो रहे।
ठंडे हैं क्यों दिलों में तेरे जोश हो गए,
क्यों सब तेरे चराग़ हैं ख़ामोश हो गए।
हुब्बे वतन की जिंस का है क़हतसाल क्यों,
हैरां हूं आजकल पड़ा इसका है काल क्यों ?
कुछ हो गया ज़माने का उलटा चलन यहां,
हुब्बुल वतन के बदले है बुग्ज़ुल वतन यहां।
बिन तेरे मुल्के हिंद के घर बेचराग हैं,
जलते एवज़ चरागों के सीनों में दाग़ हैं।
कब तक शबे स्याह में आलम तबाह हो,
ऐ आफ़ताब इधर भी करम की निगाह हो।
आलम से ताकि तीरा दिली दौर हो तमाम,
और हिंद तेरे नूर से मामूर हो मदाम।
उल्फत से गरम सबके दिले सर्द हों बहम,
और जो कि हमवतन हों वो हमदर्द हों बहम।
लबरेज़ जोशे हुब्बे वतन सबके जाम हों,
सरशारे ज़ौक़ो शौक़, दिले ख़ासो आम हों।
– मुहम्मद हुसैन आज़ाद
( हिन्दुस्तान हमारा ( उर्दू), हिन्दुस्तानी बुक ट्रस्ट, बंबई, पृष्ठ 102 )