कल्याणपुरी [ नई दिल्ली ] के ईस्ट विनोद नगर के डलाव घर में 25 दिन की स्टेविया को मारकर फेंक दिया गया | पहली संतान थी वह, फिर भी माँ की ममता द्वारा ठुकरा दी गई। इसलिए नहीं कि बेटी थी, बल्कि इसलिए क्योंकि वह अपने बालपन की जुबां यानी रोकर-मुस्कुराकर कुछ कहना चाहती थी पर उसे क्या पता था कि नौ महीने कोख में रखने वाली मां ही उसकी किलकारियों का गला घोट देगी। लेकिन विडंबना देखिए कि 25 दिन बाद ऐसा ही हुआ। 23 फ़रवरी 2018 की शाम करीब सात बजे मां नेहा तिवारी ने बच्ची को डलावघर में फेंका था। पुलिस ने जिस वक्त बच्ची को बरामद किया, उसकी सांसें चल रही थीं। एंबुलेंस में डाला गया तो बच्ची ने आंखें भी खोलीं, लेकिन उसके सिर में चोट की वजह से खून का थक्का जम चुका था। जीटीबी अस्पताल में उसके सिर का ऑपरेशन हुआ लेकिन उसे बचाया नहीं जा सका | पड़ोसियों बताया कि सौरभ और नेहा की करीब दो साल पहले शादी हुई थी। इसके बाद दोनों यहां किराये के मकान में रहने लगे। नेहा ने दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलतराम कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई की थी। ऐसी पढ़ी-लिखी महिला इस तरह का कदम उठा सकती है, ऐसा न तो उसके परिवार और न ही पड़ोसियों ने कभी सोचा था। बेटी की मौत से सौरभ और उनकी मां सदमे में हैं। वह किसी से बात तक नहीं कर पा रहे हैं। सौरभ तो बस मूक होकर अपने वाट्सएप पर डीपी में स्टेविया को निहार रहा है। जांच में ऐसी कोई बात भी सामने नहीं आई कि नेहा अभी संतान नहीं चाहती थी या उसे बेटी पसंद नहीं थी। कहते हैं कि वह सिर्फ अपनी दिनचर्या खराब होने से परेशान हो गई थी। इसलिए उसने बच्ची को मौत के घाट उतारने की बात सोची | उसने अपना जुर्म कबूल कर लिया है |
मानव व्यवहार व संबद्ध विज्ञान संस्थान (इहबास) के निदेशक डॉ. निमेष जी देसाई ने बताया कि इस मामले में तुरंत किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है। यह मनोवैज्ञानिक रूप से शोध का एक विषय है। अगर महिला अवसाद में होती तो बच्ची को नुकसान पहुंचाने के बाद खुद को भी चोटिल करती, लेकिन इस मामले में ऐसा नहीं हुआ है। संभव है कि गर्भ के दौरान या उससे पहले वह किसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त रही हो। वहीं, सामाजिक और मानवीय तरीके से इस मामले को देखें तो यह चिंता का विषय है। जिसकी कल्पना भी कठिन है, वह सब हमारे सामने हो रहा है। यह समाज के लिए चेतावनी है।
पिछले वर्ष 21 जनवरी को दिल्ली के द्वारका के सेक्टर 14 [ भरत विहार क्षेत्र ] में लोगों ने कुत्तों द्वारा एक बच्ची की लाश को खाते देखा था . जिस पर काफ़ी शोर – शराबा मचा था | मगर नवजात बच्चियों की हत्याओं का सिलसिला नहीं रुका | कुछ साल पहले कुरुक्षेत्र [ हरियाणा ] के बस अड्डे के निकट ज्योतिसर टूरिस्ट काम्प्लेक्स के सामने लगे कूड़े के ढेर से एक कुत्ते ने एक मृत बच्ची की लाश को खींच कर खाते हुए देखा था | ” दैनिक भास्कर ” [ 18 मार्च 2009 , हिसार संस्करण ] में इस बाबत छपी रिपोर्ट के अनुसार , बच्ची होने के कारण उसे मृत्यु का दंश झेलना पड़ा , वह भी अत्यंत बर्बर , नृशंस और निर्मम ! कन्या हत्या और भ्रूण – हत्या के आंकड़े बार – बार सामने आते हैं , जो समाज की संवेदनहीनता को बख़ूबी दर्शाते हैं |
पिछले दिनों महिलाओं के अधिकारों के लिए कानूनी सूचना और कानूनी सहायता प्रदान करने वाले एक संगठन द्वारा कराए गए सर्वेक्षण में बताया गया कि भारत महिलाओं के लिए विश्व में चौथा सबसे खतरनाक देश है। इससे तो यही प्रतीत होता है कि हम कितने भी शिक्षित और संपन्न क्यों न हो गए हों, पर वास्तविकता यह है कि कुछ अपवादों को छोड़कर अभी भी हमारा समाज नारी विरोधी मानसिकता ही रखता है | कुछ मामलों में महिला ही महिला की शत्रु नज़र आती है |
कड़वा सच यही है कि इस दौर में भी हमारा समाज अपने वंश को आगे बढ़ाने की मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाया है। भले ही लड़का वंश की इज्जत मिट्टी में मिला दे, लेकिन हम लड़के के जन्म को ही प्राथमिकता देते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण और अफ़सोसनाक है कि अधिकतर संपन्न और शिक्षित तबका ही चुपचाप लिंग जांच कराकर कन्या भ्रूणहत्या को बढ़ावा दे रहा है। इस माहौल में समाज की भूमिका संदिग्ध है। जब शिक्षित समाज ही लड़कियों का महत्व नहीं समझ पा रहा है , तो इस मुद्दे पर मौजूदा स्थिति में परिवर्तन की उम्मीद कैसे की जा सकती है? हमारे देश में जिस तरह से लिंगानुपात असंतुलित हो रहा है, वह भविष्य में एक गंभीर सामाजिक खतरे की ओर संकेत कर रहा है। कन्या भ्रूणहत्या को मात्र कानून के माध्यम से ही रोका नहीं जा सकता है, बल्कि इसके लिए एक सार्थक जन-जागरण अभियान की जरूरत है। हमें यह समझना होगा कि किसी भी समाज का आधार स्त्री और पुरुष ही होते हैं।
मानव जाति का अस्तित्व नारी के बिना होना असंभव ही नहीं बल्कि कल्पना के परे से दूर है। मानव जाति के जीवन का अस्तित्व पूर्ण रूप से नारी और पुरूष की समान योगदान से अब तक परिपूर्ण है अन्यथा एक के बिना भी जीवन का अस्तित्व नामुमकिन है। सच्चाई तो यही है कि मानव जीवन की विकास के लिए नारी ही उत्तरदायी है अर्थात मानव जीवन के संपूर्णता एवं अस्तित्व को बनाए रखने हेतु नारी की सर्वोच्च स्थान है। नारी चाहे स्वतंत्र हो या पराधीन परन्तु मानव के अस्तित्व को बनाए रखने हेतु जितना पुरूष का उत्तरदायित्व है उससे बढ़कर नारी का उच्च और सराहनीय योगदान है। अतः पुरूष और नारी एक-दूसरे के पूरक है एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती यही एक मात्र सच्चाई है जो मानव जीवन के अस्तित्व को बनाये रखने में महत्वपूर्ण और अटूट कड़ी है। एक ओर स्त्री की अस्मिता से सरोकार रखने वाले स्वतंत्रता, शिक्षा, समानता एवं अधिकारों के बुनियादी सवाल है तो दूसरी ओर स्त्री को मात्र भोग्या , बच्चे जनने वाली उपकरण मात्र माने जाने वाले धार्मिक सामजिक संस्कार, विधान, प्रथाएं और अंधविश्वास उसकी अस्मिता पर सवालिया निशान लगाते हैं। विडम्बना यह है कि पुरूष के वर्चस्व को स्थापित कर स्त्री की मर्यादा को अपदस्थ करने वाले संस्कार रीति-रिवाज और प्रथाओं को अगली पीढ़ी तक संवाहित करने वाली अधिकांशतः स्त्रियां ही होती है जो अपने अज्ञान व अशिक्षा के फलस्वरूप उन संस्कारों को अपना धर्म समझकर स्वयं पालन करती – करवाती हैं | इस स्थिति में अवश्य बदलाव आना चाहिए | – Dr RP Srivastava