शब्द श्री ने दर्शन दिए
मेरी श्रद्धा – भक्ति से प्रसन्न हुए
कहा –
मैं चाहता हूं
कुछ बताऊं तुमको
मैं कौन हूं ?
क्या हूं ?
जानोगे ?
मैं थोड़ा विस्मय में पड़ गया
सोचने लगा –
भगवान, इस तरह,
इस विशेष अंदाज़ में
जो कह रहे हैं
अवश्य ही कुछ विशेष प्रयोजन होगा
मैं जिज्ञासु प्रवृत्ति का जो ठहरा
परत दर परत जानने की तमन्ना लिए
जो ठहरा…..
मैंने किया निवेदन –
बताइए शब्द श्री भगवन् ?
बोले –
” मैं ब्रह्म हूं,
क्या तुम मुझे ऐसा जानते हो ?
नहीं, तो
मैं तुम्हें तुम्हारे बचपन में ले चलूंगा
जब तुम्हारे माता – पिता
गुरुजन और शुभेच्छु नसीहत करते
मेरी बेअदबी न करने की
चाहे मैं पुस्तक होता या अन्य रूप वाला
मर्यादा,शिष्टाचार से पेश आने को कहते
पुस्तक गिर जाती तो
सिर / माथे पर लगाने का फ़रमान सुनाते
मेरे ब्रह्म होने का प्रमाण बताते
मेरी लिपि कैसी भी होती
मगर मैं होता मुकद्दस
पावन – पवित्र आज भी हूं
सदा रहूंगा
क्योंकि
मैं शब्द हूं
मैं ब्रह्म हूं।
…..
यह व्याख्या जानकर
मुझमें और तजस्सुस पैदा हुआ
जानने का
शब्द श्री को पहचानने का
अतएव
फिर किया निवेदन –
और बताइए भगवन् !
उन्होंने शफ्कत से हाथ फेरा
स्नेहपूर्ण दृष्टि डाली मुझ पर
कहने लगे –
सुने श्री जन !
कुछ और बताता हूं तुमको
जो नहीं बताते उनको भी
मैं निराकार हूं
चित्रगुप्त हूं
अक्षर ही मेरा आकार है
विभिन्न प्रकार है
दाएं से बाएं लिखा जाता हूं
बाएं से दाएं भी
क्योंकि मैं कहीं बंधता नहीं
कहीं समाता नहीं
इसलिए
निराकार हूं।
…..
मैं विस्मय में पड़ गया
कुछ दमबखुद
किंकर्तव्यविमूढ़
कुछ हतप्रभ
पहले कभी यह जाना नहीं
शब्द श्री को पहचाना नहीं
मैंने कुछ सहमते
कुछ सकुचाते
कुछ और जानने की इच्छा जताई
प्रार्थना की –
शब्द श्री भगवान से –
यदि आपके पास कुछ हो समय
शान्त करें मेरी जिज्ञासा भगवन् !
……
भगवान बोले –
तुम्हारी जिज्ञासा ज़रूर शान्त करूंगा
श्री जन
पुराण पढ़े होंगे ही
उनमें जो बार – बार दोहराया गया
उसे ही इस समय बता पाऊंगा
समय नहीं मेरे पास इतना
इसलिए सुनो !
बताऊं जितना
पुराण कहते हैं –
” चित्रगुप्ताय नमस्तुभ्यम वेद अक्षरा दातारे …”
प्रभो !
इसका अर्थ भी बता दीजिए ?
शब्द श्री ने कहा –
जान लीजिए –
” उन चित्रगुप्त को प्रणाम, जिन्होंने प्रदान किए वेदों को अक्षर “
मैं विभिन्न अक्षरों के रूप धारता हूं
बहु लिपियां
बहु बोलियां
हैं मेरी
ब्रह्मा के श्री आनन से
प्रसूत !
मैं देववाणी हूं
मैं वेद रूप हूं
मैं ब्रह्म हूं
…..
मैं फिर चकित हुआ
साहस करके पूछा –
आप तो जीवों के
कर्म – लेखक हैं
फिर शब्द कैसे ?
भगवान बोले –
शब्द ही तो मैं हूं
उसी से कर्म लिखता हूं
ब्रह्मा की काया से हूं
इसलिए ब्रह्म हूं
” ॐ तत्पुरुषाय विद्महे चित्रगुप्तायाः श्री महालेखा प्रचोदयात।”
– राम पाल श्रीवास्तव ‘ अनथक ‘
26 अक्तूबर 2022