मान्यता है कि शिवभक्त रावण ने कैलाश पर्वत ही उठा लिया था और जब पूरे पर्वत को ही लंका ले चलने को उद्यत हुआ उस समय अपनी शक्ति पर पूर्ण अहंकार भाव में था। महादेव को उसका यह अहंकार पसंद नही आया तो भगवान् शिव ने अपने अंगूठे से तनिक सा जो दबाया तो कैलाश फिर जहां था वहीं अवस्थित हो गया। शिव के अनन्य भक्त रावण का हाथ दब गया और वह आर्त्तनाद कर उठा – “शंकर शंकर” – अर्थात क्षमा करिए, क्षमा करिए, और स्तुति करने लग गया; जो कालांतर में शिव तांडव स्तोत्र कहलाया।

इस स्रोत की भाषा अनुपम और जटिल है, पर महाविद्वान रावण ने इसे कुछ पलो में ही बना दिया था। शिव स्तुति और प्रसन्नता में यह स्तोत्र राम बाण है।

शिवताण्डव स्तोत्र स्तोत्रकाव्य में अत्यन्त लोकप्रिय है। यह पञ्चचामर छन्द में आबद्ध है। इसकी अनुप्रास और समास बहुल भाषा संगीतमय ध्वनि और प्रवाह के कारण शिवभक्तों में प्रचलित है। सुन्दर भाषा एवं काव्य-शैली के कारण यह स्तोत्र विशेषकर शिवस्तोत्रों में विशिष्ट स्थान रखता है।

जटाटवी गलज्जल प्रवाह पावित स्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुंगमालिकां
डमडुमडुमडुमनिनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नःशिवः शिवम्।

`शिवताण्डवस्तोत्रम्` के रचयिता दशानन रावण ने इक्कीस श्लोकों के इस ताण्डव-स्तोत्र का शुभारम्भ भगवान शिव के ताण्डव-रत रूप की अभ्यर्थना (प्रार्थना) करते हुए किया है । शिव की घनी रुक्ष (रूखी ) जटा को घने जंगल की उपमा देते हुए वह कहता है कि जटा रुपी सघन वन से निकलती हुई गंगा के प्रवाह से पवित्र किये हुए स्थल पर, गले में विशाल सर्पों की माला पहने हुए और डमरू से डम-डम डम-डम का महाघोष करते हुए शिव ने प्रचंड ताण्डव किया, वे शिव हमारा कल्याण करें, हमारे हितों की रक्षा करें।

रावण ताण्डव-नृत्य करते हुए अपने आराध्य पर मुग्ध है और भलीभांति जानता है कि विकराल सर्पमाल धारण करने से भयंकर दिखने वाले भगवान शिव वास्तव में शुभंकर हैं, शंकर (शुभ करने वाले) हैं ।

जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी
विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि
धगद्धगद्धगज्वाललाटपटापावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम।

इस श्लोक में रावण ने शिव के सौम्य और रौद्र रूप का वर्णन किया है । यहाँ शिव की जटा को एक कड़ाह (कड़ाही जैसा एक बड़ा पात्र) की उपमा देते हुए वह कहता है कि जटा में बड़ी द्रुत (तेज) गति से चक्कर लगाती हुई देवनदी गंगा की चंचल लहरें लता की तरह (लिपटी हुई बेल की भांति) लग रहीं हैं व उनके शीश (सिर) पर प्रदीप्त हो रही हैं ।

दूसरी ओर उनके भाल-पट पर अर्थात् माथे पर धक धक करती हुई भीषण अग्नि प्रज्वलित हो रही है । अपने शीश (सिर) पर वे बाल-चन्द्रमाँ (अर्ध-चन्द्र) धारण किये हुए हैं । स्तुतिकार कहता है कि ऐसे भगवान शंकर में हर पल मेरी प्रीति बनी रहे । जिससे हमारी प्रीति होती है, हम सदा उसके बारे में सोचा करते हैं, उसी का चिंतन किया करते हैं।

शिवजी रावण के आराध्य हैं । इस श्लोक के द्वारा वह दो बातें विशेष रूप से कहना चाहता है, एक तो यह कि भगवान शिव के स्वरूप में सभी विरोधाभासी तत्वों का समन्वय और संतुलन पाया जाता है, जैसे अग्नि भाल पर, चन्द्रमाँ कपाल पर । और दूसरी बात यह कि वह हमेशा उनके चिंतन में रत रहने का इच्छुक है ।

धराधरेन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर
स्फ़ुरद्दिगन्तसंततिप्रमोदमानमानसे
कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि।

इस श्लोक में रावण अपने आराध्य भगवान शिव की महिमा का गान करते हुए कहता है कि उनकी एक कृपा-दृष्टि भर से निरंतर आने वाली दुस्सह (जिसे सहन करना अति कठिन हो) विपत्तियों का सार्थवाह (कारवां) रुक जाता है । शिव तथा शक्ति दोनों एक ही हैं । वे पर्वतराज-पुत्री पार्वती के सुन्दर और सनातन लीला-सहचर है, उमाकांत हैं, देवी की विलास-लीला में उनके साथी हैं।

देवी उल्लसित हो रही है और सभी दिशाओं में दूर दूर तक उनके उल्लास की छटा विस्तार से फैली है जिसे देख कर शिव का मन प्रमुदित हो रहा हैं । रावण अभिलाषा करता है कि धराधरेन्द्रनन्दिनी यानि पर्वतेश-पुत्री पार्वती के चारु हास-विलास से दिशाओं को प्रकाशित होते देख जिनका मन आनंदित हो रहा है, जिनकी कृपादृष्टि मात्र से निरंतर आने वाली दुस्सह आपदाएं नष्ट हो जाती हैं, ऐसे किसी दिगंबर तत्व में अर्थात् महादेव में मेरा मन विनोद प्राप्त करे ।

जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा
कदम्बकुमकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे
मदान्धसिन्धुस्फूर्त्त्वगुत्तरीयमेंदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि |

अपने आराध्य भगवान शिव के लिए रावण के मन में इतनी निष्ठां है कि वह सदा उनके चिंतन में मग्न रहना चाहता है और भक्तों के मनरंजन एवं मनभावन भूतनाथ, जिनकी जटा में सर्प कुंडलित रहता है, के बारे में वह कहता है कि जटा से लिपटे मणिधारी सर्प की मणि के पीले प्रकाश से दिशाएं इस तरह परिव्याप्त हो गई हैं, मानो दिशा कोई सुंदरी स्त्री हो और उस दिशा रुपी सुंदरी के मुख पर केशर-चन्दन-हल्दी का अनुलेप मल दिया गया हो और वह पीली प्रभा से जगमगा उठी हो । भगवान शंकर के शरीर से लिपटा हुआ विशाल सर्प वासुकि मणिधारी महासर्प है ।

एक ओऱ तो शिवजी का ऐसा अनुपम ऐश्वर्य है, और दूसरी ओर वे गजचर्म का उत्तरीय ओढ़े हुए हैं तथा उनकी मस्ती में वह उत्तरीय (उपरना या पटुका) लहरा रहा है, जो गजासुर की मेदुर (चर्बीयुक्त या वसायुक्त) त्वचा से बना हुआ है, जिसे शिवजी ने मार दिया था । रावण कहता है कि ऐसे महिमामय भूतनाथ में मेरा मन अद्भुत विनोद प्राप्त करता रहे । वह स्तुति करता है, हे भूतनाथ ! मेरे मन को अपनी अद्भुत छवि के अनुपम आनन्द से भर दो !

सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर
प्रसूनधूलिधोरणीविधूसरांगघ्रिःपीठभूः
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटकः
श्रीयै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः।

भगवान शिव इंद्र आदि समस्त देवताओं द्वारा पूजित एवं नमस्कृत हैं । इंद्र आदि सभी देवता जब शिवजी के चरण-स्पर्श के लिए उनके कदमों में झुकते हैं, तब देवताओं के मुकुटों पर सजे हुए पुष्पों से फूलों का पराग झड़ झड़ कर उनके चरणों को पुष्परज (पराग) से रंजित कर देता है । शिव के पदतल सदैव देव-मुकुट के पुष्पों की पराग से पिंगल रंग के हो जाते हैं । वे अपने केशों को ऊपर उठा कर उनकी जटा बनाते हैं और उस उठी हुई जटा को बांधने के लिये वे सर्पराज (वासुकि) को लपेट कर कसलेते हैं ।

बड़ा मनोरम स्वरूप है शिवजी का । रावण स्तवन (स्तुति) करते हुए कहता है कि इस प्रकार पुष्परज से धूसरित पादपृष्ठ वाले तथा भुजंगराज से बंधी हुई जटा वाले भगवान चंद्रशेखर मेरी लक्ष्मी पर कृपा करें, जिससे वह चिर काल (दीर्घ काल) तक बनी रहे, अक्षुण्ण रहे । सप्तद्वीपाधिपति रावण की स्वर्ण लंका में अकूत सम्पत्ति थी, अथाह वैभव था, उसके पास पुष्पक विमान भी था । लक्ष्मी चंचल होती है, अतः वह अभ्यर्थना करता है कि वह वैभव चिर काल तक बना रहे ।

ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा
निपीतपंचसायकम् नमन्निलिम्पनायकम्
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरम्
महाकपालि संपदे शिरो जटालमस्तु नः।

शिवजी के भाल पर स्थित तीसरा नेत्र अग्नि का निवास-स्थान है । रावण का कहना है कि भाल के फलक पर जलती हुई अग्नि की लपटों में जिन्होंने कामदेव को भस्म कर दिया तथा इंद्र (निलिम्पनायक) का गर्व से भरा हुआ शीश झुका दिया (क्योंकि देवराज इंद्र ने शिवजी को मोहित करने व उनके तपोभंग की योजना बनाई थी तथा इस आशय से कामदेव को उनके सम्मुख भेजा था), चन्द्रमाँ की अमृतवर्षी शीतल किरणों से जिनका शीश सुशोभित है , साथ ही जो महामुण्डमाली हैं, जटाजूटधारी हैं, ऐसे भगवान शिव से मैं प्रार्थना करता हूँ कि वे हमारी श्री, हमारा विपुल वैभव सदा बनाये रखें।

करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्जवल
द्धनंजयाहुतीकृतप्रचंडपंचसायके
धराधरेंद्रनंदिनीकुचाग्रचित्रपत्रक
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम।

विकराल भाल-पट की धग् धग् धधकती अग्नि में जिन्होंने प्रचंड पुष्पशर (पुष्प है धनुष जिसका अर्थात् कामदेव) को आहुति बना डाला, भस्मीकृत कर दिया, जो गिरिराजनन्दिनी (पर्वतराज-पुत्री पार्वती) के अंगों पर, उनके वक्ष-कक्ष पर सुगन्धित द्रव्यों तथा वन-धातुओं से श्रृंगारिक चित्र-रचना करने वाले चतुर चितेरे हैं, कुशल शिल्पी हैं, उन भगवान त्रिनयन में मेरा प्रेम, मेरी धारणा सदा बनी रहे ।

एक ओर कामदेव को भस्मीभूत करना व दूसरी ओर `धराधरेंद्रनन्दिनी` अर्थात् पार्वती के साथ शृंगार-लीला करना, दोनों में यद्यपि विरोधाभास दिखाई देता है, किन्तु इससे अभिप्राय यह प्रकट करने से है कि शिव गृहस्थ होते हुए भी, श्रृंगारलीला में रत दिखते हुए भी इन सभी भावों से निर्लिप्त रहते हैं, वे मायापति हैं, माया को वश में रखते हैं, उसमें लिप्त नहीं होते । वे माया से अतीत हैं ।

नवीनमेघमण्डली निरुद्ध स्फुरत्
कुहू निशीथिनीतमःप्रबंधबद्धकन्धरः
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः
कलनिधानबन्धुरः श्रियं जगत् धुरन्धरः।

सागर-मंथन के समय सागर से निकले कालकूट विष का पान करने वाले भगवान नीलकण्ठ के गले की श्यामलता (कालिमा) की उपमा रावण ने मेघाच्छादित अमावस्या की अर्ध-रात्रि से दी है, जब आकाश में काली घटा के छा जाने से अँधियारा और भी घना हो जाता है।

रावण इस श्लोक में शिवजी के नीलकण्ठ का चित्रण करते हुए स्तुति करता है कि नवीन मेघमाला (बादल-समूह) से आच्छादित, अमावस्या के अर्धकालीन सघन अंधकार की सी कालिमा जिनके गठीले (सुपुष्ट) गले पर अंकित है (अर्थात् गले का रंग गहरा नीला है) और जिन्होंने देवसरिता गंगा को धारण किया है, जो गजचर्म से सुसज्जित हैं तथा चन्द्रकला के सुन्दर आगार (आश्रयस्थान) हैं व जगत के आधार हैं, वे शिव मेरी लक्ष्मी का विस्तार करें ।

प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभा
वलंबीकंठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम्
स्मरच्छिदम् पुरच्छिदम् भवच्छिदम् मखच्छिदम्
गजच्छिदान्धकच्छिदम् तमन्तकच्छिदम् भजे |

यहाँ इस श्लोक में रावण ने भगवान शिव के नीले कण्ठ का एक अन्य चित्रण प्रस्तुत किया है । शिव के गले की श्यामलता की उपमा नीलकमल की सांवली प्रभा से दी है इसके अलावा शिवजी को विविध नामों से पुकारते उनका स्तवन किया है । इन नामों का आधार है भगवान शिव के द्वारा किये गए वे कार्य, जिनसे देवताओं तथा मनुष्यों की बाधाएं और भय दूर हुआ।

रावण का कथन है, जिनका कंठ-प्रदेश (गले का बाहरी भाग) पूर्ण विकसित नीलकमल की श्यामल आभा से दीप्त है तथा जो स्मर यानि कामदेव, त्रिपुर तथा भव (जन्म-मरण रुपी संसार), के भय व बंधन को समाप्त करने वाले हैं, जो दक्ष द्वारा अभिमान के साथ किये गए यज्ञ के नष्टकर्ता हैं, जो गजासुर, अंधकासुर का संहार करने वाले हैं, तथा यमराज अर्थात् मृत्यु को भी नष्ट करने वाले हैं, ऐसे भगवान शिव की मैं आराधना करता हूँ ।

अखर्वसर्वमंगलाकलाकदम्बमन्जरी
रसप्रवाहमाधुरीविज्रिम्भणामधुव्रतम्
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे।

दसवें श्लोक में भगवान शिव के लोकरंजक, लोकमंगल रूप को वर्णित किया गया है । यहाँ समाज का मंगल करने वाली, भव्य कलाओं की उपमा मंजरी (अविकसित फूलों या पत्तों के गुच्छे) से की है । जैसे भ्रमर मंजरी के मकरंद का पान करने के लिए अपना मुंह खोले हुए तत्पर रहते हैं, कुछ इसी तरह भगवान शिव कला रुपी मंजरी का रसपान करने के लिए तत्पर रहते है । भाव यह है कि भव्य कलाएं, लोकहितकारी कलाएं उन्हें प्रसन्न करती हैं और उन्हें महादेव का वरद आशीष मिलता है।

वे विविध कलाओं के प्रवर्तक भी कहे जाते हैं । नाट्य-संगीत आदि कलाओं के वे आदि गुरु हैं । अतःउन्हें कला रुपी मंजरी के पराग की मिठास का रसपान करने वाला रसिक बताते हुए आगे उनके मंगलकर्ता को रूप प्रकाशित करते हुए रावण कहता है कि वे कामदेव, भवभय, त्रिपुर, दक्ष-यज्ञ, गजासुर, अंधकासुर व यमराज के भी अंतक अर्थात् अंत करने वाले प्रभु हैं, मैं उनकी आराधना करता हूँ ।

जयवदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट्
धिमिद्धिमिद्धिमिद्ध्वनन्मृदन्गतुङ्गमङ्गल
ध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचंडताण्डवः शिवः |

इस श्लोक में ताण्डवनृत्य करते हुए भगवान शिव का चित्रण है, जो इस प्रकार है । जिनके मस्तक पर बड़े वेग से सर्प कुंडलाकार चक्कर लगा रहा है और उसके फ़ुफ़कारने से, जिनके ललाट अर्थात् भाल की अग्नि और भी अधिक प्रचंडतर हो कर धधक उठती है, जो धिम धिम की ध्वनि से बजते हुए मृदंग के गंभीर घोष की ताल से ताल मिला कर प्रचंड ताण्डव कर रहे हैं, उन भगवान शिव की जय हो !

दृषद्विचित्र तलप्योर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजो
र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुर्हृद्विपक्षपक्षयोः
तृणरविन्द्चक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
संप्रवर्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहम् |

भगवान शिव की भक्ति में रत रावण जानता है कि वे सभी के प्रति समभाव रखते हैं, सबसे प्रेम करते हुए भी सबसे निलिप्त रहते हैं।

उसके मन में यह अभिलाषा जागृत होती है कि उन्हें पाने के लिए, उनका सानिध्य पाने के लिए मैं भी उनके जैसा समभाव सब के प्रति रख पाउँ तो कितना अच्छा हो ! इसलिए वह सोचता है कि मैं कब पत्थर की शय्या और सुन्दर बिछौनों में, सर्पमाला और मोतियों की माला में अंतर न करते हुए उन दोनों के प्रति एक ही अनासक्त दृष्टि और निलिप्त भाव रखूंगा ! कब मित्र एवं शत्रु को समतुल्य समझ कर उनसे अप्रभावित अंतःकरण वाला बनूँगा तथा कमलनयनी रमणियों को तृणवत् (घास की तरह) तुच्छ समझूंगा।

ह्रदय में उठती हुई कामनाओं से मैं कब ऊपर उठ पाउँगा ! क्या मैं किसी साधारण प्रजाजन और पृथ्वी के किसी चक्रवर्ती सम्राट के प्रति एक-सी दृष्टि, एक सा भाव रख पाउँगा ? मेरे आराध्य के लिए तो दोनों ही समतुल्य हैं, तो फिर मैं कब इन सभी में समान भावना रखते हुए अपने भगवान सदाशिव की आराधना करूंगा !

कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुंजकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन्
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् |

रावण के भक्त-मन की यह साध है कि मैं भगवान शिव को निरंतर भजता रहूं । बस गंगाजी की गोद में, गंगा के कछारों में, किसी वन-उपवन में तृण-लताओं से आच्छादित छोटा सा कुटीर हो, जहाँ मैं सब कुछ बिसार कर केवल शिव-मन्त्र के जाप का सुख पाऊं !

अपने ह्रदय की इसी कामना को, अपनी आत्मा की इसी पुकार को रावण इस प्रकार इस श्लोक में ध्वनित करता है । वह कहता है कि कब निलिम्पनिर्झरी यानि सुरसरिता गंगा के तटवर्ती किसी कुंजबन में, पर्णकुटीर में निवास करता हुआ मैं अपने मन में उठने वाले दुर्विचारों को छोड़ पाउंगा तथा अपने माथे से अंजलि लगा कर शिव को भजूँगा !

इधर उधर घूमते नेत्रों वाला, चंचल नेत्रों वाला मैं कब अपने माथे पर पवित्र तिलक (त्रिपुण्ड्र तिलक) अंकित करूंगा, जो भाल पर भूषण- सा प्रतीत होगा । और फिर शिव का मंत्रोच्चार करता हुआ मैं कब सुखी होऊंगा ! अपने आराध्य शिव की निकटता उसे सुलभ हो, वही उसका सुख है ।

निलिम्पनाथनागरी कदंबमौलिमल्लिका
निगुम्फनिर्भरक्षन्मधूष्णीकामनोहरः
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनीमहर्निशम्
परश्रियं परं पदं तदंगजत्विषां चयः।

इस श्लोक में रावण ने बताया है कि भगवान शिव परम पद (मुक्ति) के देने वाले भी हैं तथा परम श्री के प्रदाता भी हैं । साथ ही शिव व शक्ति की एकता पर भी प्रकाश डाला है।

पार्वती को `निलिम्पनाथनागरी` कहा है, निलिम्पनाथ अर्थात् देवताओं के नाथ शिवजी हैं, क्योंकि देवता इन्हीं से सनाथ होते हैं, शिव ही देवों पर विपत्ति आने पर उनके हेतु राक्षसों का संहार करके उन सभी को भयमुक्त करते हैं । नागरी अर्थात् चतुर स्त्री । देवी पार्वती शिवजी की कुशल गृहिणी और उनकी लीलाओं में उनका साथ देने वाली पटु सहधर्मिणी हैं।

अतः उन्हें `निलिम्पनाथनागरी` कहा है । वर्णन इस प्रकार है कि साजसज्जा में निपुण देवी पार्वती के केशपाश में चमेली के फूलों की पुष्पमाला गुंथी है । इन फूलों से झरते हुए मधुकणों से, झरते उए परागकणों से भगवान निलिम्पनाथ (शिव) का स्वरूप मनोहारी लग रहा है, शिवप्रिया के फूलों की सौरभ से शिव का अंग अंग सुरभित हो उठा है।

इसके अलावा अपने अंगों से निकलते हुए तेजपुंज की आभा से वे देदीपमान हो रहे हैं । रावण प्रार्थना करता है कि दिनरात हमें मुदित रखने वाली, शोभाशालिनी परम श्री तथा परम पद के देने वाले, सौरभमय एवं कांतिमय शिव हमारी रक्षा करें ।

प्रचंडवाडवानलप्रभाशुभप्रचारिणी
महाष्टसिद्धिकामिनीजनावहूत जल्पना
विमुक्तवामलोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषणो जगज्जजयाय जायताम् |

इस श्लोक में रावण पवित्र शिवमंत्र के प्रति अपनी अनन्य श्रद्धा व्यक्त करते हुए उसकी जयकार करता है । यहां वर्णन शिव-पार्वती के विवाह के समय का है । इस दिव्य विवाह में सभी दिव्य विभूतियां उपस्थित थीं । रावण का कथन है कि महा अष्टसिद्धियाँ साक्षात् स्त्री रूप धारण करके वहां आईं थीं ।

इन महा अष्टसिद्धियों को रावण ने प्रचंड पापनाशिनी बताते हुए उन्हें बड़वानल की उपमा दी है । समुद्र के भीतर स्थित ज्वालामुखियों के विस्फोट से समुद्र में लगने वाली आग को बड़वानल कहते हैं, जो अतिशय विनाशकारी होती है, कई बार तो टापू के टापू उसके ज्वार में बह जाते हैं । यह सिद्धियां भी ठीक इसी तरह पापों को नष्ट कर देती हैं तथा उनके नष्ट हो जाने से सर्वत्र शुभ ही शुभ बच जाता है व शुभत्व का ही आगे प्रसार होता है ।

यह `बड़वानल` जैसी पापनाशिनी सिद्धियां सिद्धिदात्री देवियों के रूप में साक्षात् विवाह में आईं और उन्होंने तथा अन्य चंचल नेत्रों वाली देवांगनाओं ने, विवाह-काल में दूल्हे बने हुए शिवजी का नाम ले लेकर, सस्वर मंगल गीत गाये व शिवमंत्र की पुण्य ध्वनि का घोष किया । उनके मंगल-गीतों में शिव नाम की गिरा गूंजी ।

उस मंगल-निनाद में जिस शिवमंत्र की ध्वनि मुखरित हुई , स्तुतिकार उसे `मन्त्रभूषण` कह कर उसको नमन करता है, उस शिवमंत्र को सभी अन्य मन्त्रों का सिरमौर मानता है और कहता है कि यह मन्त्र जगत में दिग्विजय करें अर्थात् हम शिवमन्त्र का घोष करते हुए दिग्विजय करें । सर्वत्र निर्बाध गति से इसका प्रसार हो, जिससे लोक का मंगल हो । भगवान शिव की जय हो ! शिवमन्त्र की जय हो !

इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमस्तवम्
पठन् स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति सन्ततम्
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिन्तनम्।

इस श्लोक में रावण ने शिव-चिंतन की गरिमा तथा महिमा पर प्रकाश डाला है । वह कहता है कि जो कोई भी व्यक्ति नियमित रूप से इस उत्तम स्तवन का पाठ अथवा स्मरण करता है, या इसे श्रवण करता है, वह सदैव परम शुद्ध व निर्मल रहता है । समस्त जगत के गुरु भगवान हर यानि शंकर की कृपा से अपनी निर्मल भक्ति में वह अविलम्ब (जल्दी) प्रगति करता है

शम्भु उसे अपनी शरण में ले लेते हैं । शिवनिष्ठ व्यक्ति अथवा शिवभक्त की अन्य गति या दुर्गति नहीं होती । यह बात निश्चित है कि श्रीशंकर का चिंतन मनुष्य की मोहमाया को हर लेता है, देहधारी यानि मनुष्य का मोह दूर करता है एवं शिवभक्त इस प्रकार मायाजाल से मुक्त हो कर, निष्पाप हो कर, अंत में शिव-शरणागति पाता है ।

पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं
यःशम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः।

शिवताण्डवस्तोत्रम्` के सत्रहवें और अंतिम श्लोक में रावण इस स्तोत्र या स्तवन की महत्ता बताते हुए कहता है कि प्रदोषकाल में अर्थात् संध्या के समय, पूजन के उपरांत (पूजा के बाद) इस शिवभक्तिमय स्तोत्र का पाठ जो कोई पूजापरायण व्यक्ति करता है, उस भक्त को शिवजी श्रेष्ठ हाथी-घोड़ों से युक्त रथ तथा सदैव अचल रहने वाली, सुमुखी और स्थिर लक्ष्मी प्रदान करते हैं, चंचला लक्ष्मी भी उसके पास अचंचल अर्थात् अचल बन कर स्थिर रहती है।

तात्पर्य यह है कि वह व्यक्ति विपुल वैभव दीर्घ काल तक भोगता है तथा लोक में सम्मानित होता है । लक्ष्मी को सुमुखी कहने से अभिप्राय है लक्ष्मी के सानुकूल रहने से । लक्ष्मी अनुकूल न रह कर यदि प्रतिकूल रहती है, तो व्यक्ति को धनवान तो बनाती है, किन्तु उसकी शुभ बुद्धि को हर लेती है तथा अंत में पीड़ादायिनी बनती है । इसलिए स्थिर और सुमुखी लक्ष्मी के प्रदान करने की महिमा गाई है ।

इति श्रीरावणकृतं शिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम्
रावण- रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् समाप्त ।

– Pandit Krishna Datt Sharma

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