सूफ़ी संत मंसूर हल्लाज को मक्का में संगसारी के लिए बांधा गया | पत्थर फेंकने का आमंत्रण दिया गया |  जब उनका एक करीबी दोस्त उधर से गुज़रा, तो उसे भी उन पर कुछ फेंकना था। उसकी जब पत्थर फेंकने की हिम्मत नहीं हुई तो उसने उनकी ओर एक फूल फेंक दिया। तभी मंसूर के मुंह से एक कविता फूट पड़ी, जिसमें उन्होंने कहा- ‘मुझ पर फेंके गए पत्थरों ने मुझे कष्ट नहीं दिया, क्योंकि इन पत्थरों को अज्ञानी लोगों ने फेंका था। लेकिन तुमने जो फूल मुझ पर फेंका, इससे मुझे गहरी तकलीफ़ हुई है, क्योंकि तुम तो ज्ञानी हो और फिर भी तुमने मुझ पर कोई चीज़ फेंकी।’ हल्लाज  अर्थ धुनिया होता है |

कहते हैं , मूल इस्लामी शिक्षाओं को चुनौती देने के आरोप में इनको इस्लाम का विरोधी मान लिया गया। लोग कहते कि वह अपने को ईश्वर का रूप समझता हैं, पैज़म्बर मुहम्मद साहब का अपमान करता हैं और अपने शिष्यों को नूह, ईसा आदि नाम देता हैं। इसके बाद उसको आठ साल जेल में रखा गया। तत्पश्चात भी जब इसके विचार नहीं बदले तो इसे फ़ाँसी दे दी गई।अत्तार लिखते हैं कि उन्हे तीन सौ कोड़े मारे गए, देखने वालों ने पत्थर बरसाए, हाथ में छेद किए और फिर हाथों-पैरों का काट दिया गया। इसके बाद जीभ काटने के बाद इनको जला दिया गया। इन्होने फ़ना (समाधि, निर्वाण या मोक्ष) के सिद्धांत की बात की और कहा कि फ़ना ही इंसान का मक़सद है। इसको बाद के दूसरे सूफ़ी संतों ने भी अपनाया। उनकी एक कविता का आनंद लीजिए —-वियोग जन्म देता है बोध को बोध- प्रेम के सच्चे मार्ग का बोधप्रेम जो कुछ नहीं चाहता जिसे नहीं है, जरूरत किसी की अपने प्रियतम की भी नहीं,क्योंकि यथार्थ की ऐसी हालत में प्रेमी और प्रियतम नहीं होते हैं दोअलग-अलग, नहीं कभी दो हो जाते हैं एक। एक साथ, सदा के लिए !

ध्यान दीजिए – सूफ़ियों का रहस्य है यही —–मंसूर अल-हलाज कहते हैं –‘अनल हक’ देखो! एक सच्चा प्रेमी पूर्ण समर्पण कर विलीन हुआ समा गया उस दिव्य प्रियतम के चरम प्रेम में / मैं वही हूं, जिसे मैं प्रेम करता हूंऔर जिसे मैं प्रेम करता हूं, वह मैं हूंहम दो आत्माएं हैंजो एक ही शरीर में हैं अगर तूने मेरे दर्शन कर लिए समझ ले तूने उसके दर्शन कर लिए |

मंसूर हल्लाज ने काफ़ी कुछ लिखा है | उनके इस काव्य – रूप का आनंद लीजिए —- अगर है शौक़ मिलने का, तो हरदम लौ लगाता जा,जलाकर ख़ुदनुमाई को, भसम तन पर लगाता जा। पकड़कर इश्क़ की झाड़ू, सफ़ा कर हिज्र-ए-दिल को,दुई की धूल को लेकर, मुसल्ले पर उड़ाता जा।मुसल्ला छोड़, तसवी तोड़, किताबें डाल पानी में,पकड़ तू दस्त फ़रिश्तों का, ग़ुलाम उनका कहाता जा।न मर भूखा, न रख रोज़ा, न जा मस्जिद, न कर सज्दा,वुजू का  तोड़  दे कूजा, शराबे  शौक़  पीता  जा।हमेशा खा, हमेशा पी, न ग़फ़लत से रहो एकदमनशे में सैर कर अपनी, ख़ुदी को तू जलाता जा।न हो मुल्ला, न हो बह्मन, दुई की छोड़कर पूजा,हुकुम शाहे कलंदर का, अनल हक तू कहाता जा। कहे ‘मंसूर‘ मस्ताना, ये मैंने दिल में पहचाना,वही मस्तों का मयख़ाना, उसी के बीच आता जा।[ ” Bharatiya Sanvad ” presentation ]

कृपया टिप्पणी करें