योगदा सत्संग सोसाइटी के संस्थापक श्री श्री परमहंस योगानंद को पश्चिम में ‘योग के पथ प्रदर्शक’ के रूप में जाना जाता है। 1920 में 27 वर्ष की उम्र में जब उन्होंने अमेरिका में प्रवेश किया, तभी से योग के प्राचीन विज्ञान के प्रचार–प्रसार में उनकी आधारभूत भूमिका के कारण वे पश्चिम में ‘योग के जनक’ भी कहे जाते हैं। ‘शांतिपूर्ण ढंग से सक्रिय रहें व सक्रिय रूप से शांत रहें।’
‘मैं इस संसार रूपी नाटक का एक हिस्सा हूं, परंतु इससे पृथक भी हूं।’
‘वर्तमान के प्रत्येक पल को पूरी तरह जीयो; तब भविष्य अपने आप ही संवर जाएगा।’
उपरोक्त उद्धरण एवं इसी प्रकार की अनेक ज्ञान–वर्धक उक्तियां योगानन्द जी की विश्व–प्रसिद्ध आध्यात्मिक शिक्षाओं का हिस्सा हैं, जिन्होंने विश्वभर में लोगों को आत्मनिरीक्षण करके अपने जीवन को सुधारने के लिए प्रेरित किया है। संसार भर में लाखों भक्त योगानन्दजी की शिक्षाओं का अनुसरण करते हैं। इन शिक्षाओं ने पूरे विश्व में रहने वाले ग्रहणशील व्यक्तियों के मन एवं आत्मा पर अमिट छाप छोड़ी है।
योग का अर्थ है ईश्वर से मिलन है, और योगानन्दजी की शिक्षाएं मूलत: यह सिखाती हैं कि किस प्रकार हर कोई व्यक्ति इस मिलन को प्राप्त कर सकता है। योगानन्दजी ने ही सर्वप्रथम आधुनिक युग के लोगों के समक्ष योग के वैज्ञानिक स्वरूप को व्यक्त किया। क्रिया योग विज्ञान, ध्यान की एक ऐसी प्रविधि है, जिसका जिक्र भगवान कृष्ण ने गीता में किया है और जिसका आधुनिक युग में योगानन्दजी ने प्रचार किया और सिखाया।
योगानन्दजी ने अपनी आत्मकथा ‘योगी कथामृत’ में शरीर, मन व आत्मा के सुसंगत विकास के लिए क्रिया योग प्रविधि की मुख्य विशेषताओं का वर्णन किया है। मनमोहक एवं वाकपटुता की अद्वितीय शैली में लिखी गई इस पुस्तक में ऐसे वैश्विक सत्य हैं, जो हर युग, हर राष्ट्र, हर पृष्ठभूमि से आए व्यक्ति के लिए उपयुक्त हैं।
परमहंस योगानन्द जी द्वारा बताई गई क्रमबद्ध ध्यान की प्रविधियों का पूर्ण श्रद्धा व नियम से अभ्यास करके साधक उस आत्मसाक्षात्कार के योग्य हो जाता है, जिसकी चर्चा संसार के सभी मुख्य धर्मों में की गई है। योगानन्द जी ने शरीर, मन और आत्मा के संतुलित विकास पर बल दिया है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कुछ शारीरिक व्यायाम अथवा क्रियाएं मात्र योग नहीं हैं, अपितु इसका अंतिम लक्ष्य है– ईश्वर के साथ एकाकार। [ Bharatiya Sanvad Desk ]