चर्चित उपन्यासकार डॉक्टर अजय शर्मा के सुसंपादन में प्रकाशित पत्रिका ” साहित्य सिलसिला ” का अक्टूबर 2023 अंक मेरे पास कुछ अधिक ताखीर से मिला। इसकी मुख्य वजह मेरा गाँव में रहना है। सेवानिवृत्ति उपरांत मैंने अपने पुश्तैनी आवास को अपना ठिकाना बनाया हुआ है।
चूँकि यह देश के पिछड़े हुए ज़िलों में शुमार किया जाता है, तो इसका भी कोई बड़ा कारण होगा। जो मेरी समझ से प्रशासनिक उपेक्षा और चरम स्तर का भ्रष्टाचार और इस सबसे बढ़कर जनचेतना का घोर अभाव है, जो भ्रष्टाचार को सतत प्रवहमान बनाए रखने में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेता है। यहाँ कूरियर सर्विस भी तो भूले-भटके भी नहीं है।
ख़ैर, इस पर फिर कभी ….
” साहित्य सिलसिला ” का य़ह अंक कई दृष्टियों से उत्तम, बेहतरीन और संग्रहणीय है। इसमें मुख्य फोकस अग्रणी साहित्यकार ममता कालिया पर है । उनके विराट रचना-संसार के सांगोपांग विवेचन का सफ़ल प्रयास है।
इसका प्रथम आलेख, जिसे अग्रलेख कहना अधिक समीचीन होगा, ममता कालिया पर है , जो संस्मरणात्मक है। ” ममता कालिया : जैसा मैंने जाना ” शीर्षक के अंतर्गत उन्होंने उनकी कई खूबियाँ बयान की हैं। इनके उदार हृदय की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं-
” ममता कालिया देश की सेलेब्रिटी लेखकों में से एक हैं। कोरोना के दिनों में उनकी किताब रवि कथा चर्चा में रही । एक दिन मैंने फोन मिलाया और कहा, मुझे रवि-कथा पढ़नी है तो ममता जी ने झट से कहा, अपना पता भेजो डॉक्टर | वह मुझे डॉक्टर कहकर छेड़ती हैं,क्योंकि वह जानती हैं, मैं डाक्टरी छोड़ चुका हूँ। मैं भी हँसी में कई बात कह देता हूँ, भरजाई जी, मैं डाक्टरी छोड़ चुका हूँ।”
गीताश्री का लेख भी जानकारीपरक और पठनीय है। सच लिखा है कि ” ममता जी की हँसी उस पाक आबे ज़मज़म की तरह लगती है, जो कलुष धो देती है।”
” अपनी नज़र में ममता कालिया ” में लेखक अजय कुमार शर्मा ने ममता जी द्वारा स्वयं अपने बारे में व्यक्त आत्मकथात्मक बातें प्रस्तुत की हैं। रजनी मोरवाल ने ममता कालिया की कहानी ” आपकी छोटी लड़की ” के गिर्द अपने संस्मरण को बाँधा है। इस बहाने इस कहानी पर अच्छी चर्चा हो गई है।मीना झा का ममता कालिया से साक्षात्कार की प्रस्तुति अति उत्तम है। ममता जी ने वाद और विमर्श को जिस प्रकार परिभाषित किया है, उससे मैं पूर्णत: सहमत हूँ।
पंजाबी कहानी ” तुम उदास क्यों हो ?” दिल को छू गई। इसका कथानक बड़े सलीके से बुना गया है। जब ” मुक्त कौन ?” में प्रस्तुतीकरण की ओर और ध्यान देने की आवश्यकता है। ‘ हर बात ‘ कथाक्रम में फिट ही बैठ जाए, इसकी अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। जबरन डाले गए संवाद बदहजमी में तब्दील हो जाते हैं।
” खारकीव के खंडहर ” को इस अंक में पेश किया जाना अच्छा लगा। इसमें मनुष्यता के विध्वंस की यथार्थवादी बातों को उपन्यास के रूप में पिरोया गया है। यह रूस और यूक्रेन युद्ध के मानव जाति पर पड़ने वाले जीवंत प्रभाव का सफल औपन्यासिक चित्रण किया गया है। इसके दूरगामी असरात को लेखक डॉक्टर अजय शर्मा ने कई स्थानों पर विभिन्न संवादों से उजागर किया है। इसके चैप्टर छह के एक संवाद का अवलोकन करते हैं, जिसमें दर्शन भी निहित है-
” पैरों से कयामत का क्या संबंध है?’ बेटे ने बापू से थोड़ा तल्खी से पूछा ।
बापू प्यार से बोला, ‘संबंध है पुत्तर | बहुत गहरा संबंध है। असल में दिखने में कई बार चीज छोटी लगती है, लेकिन उसके परिणाम बहुत दूरगामी और भयंकर होते हैं।’
अपने दांतों को जोर से दबाते हुए बेटे ने पूछा, ‘बापू फिर से पहेली | जल्दी बता, क्या बात है? अब मेरे सब्र का बांध टूट रहा है ।’
इससे पहले पुनीत आगे की कहानी सुनाता, दीमा बीच में, उसकी बात काट कर बोली, ‘इसके आगे की कहानी मैं सुनाती हूं। मेरी दादी भी अक्सर इस कहानी को सुनाती है। मुझे लगता है, कुछ देशों की पीड़ा साझी होती है। कई देशों की लोक कथाएं, आपस में मिलती हैं। खास तौर पर उन देशों की, जिन देशों की सरहदों पर दुश्मन की आंखें हर समय लगी रहती हैं। बहुत गहरी बात है, इस पहेली में।”
इस उपन्यास की डॉक्टर पान सिंह और तरसेम गुजराल की समीक्षाएं बड़ी अच्छी, बेबाक और धारदार बन पड़ी हैं।
यह अंक पठनीय, संग्रहणीय होने के साथ एक दस्तावेज की भी हैसियत रखता है। इसके लिए संपादक डॉक्टर अजय शर्मा और उनकी पूरी टीम को मंगलकामनाएँ। आशा की जानी चाहिए कि इसके अगले अंक में प्रूफ की ओर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाएगा।
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