” मुझे दुनिया को कोई नई चीज़ नहीं सिखानी है। सत्य और अहिंसा अनादि काल से चले आए हैं। – मो. क. गांधी
” कितने गांधी ” को पढ़ते हुए गांधी का यह सत्य – वचन याद आया, जो उन्होंने An experiment with theTruth में प्रकट किया है। फिर यह भी लिखा कि ” मुझे सत्य के शास्त्रीय प्रयोगों का वर्णन करना है, मैं कितना भला हूं, इसका वर्णन करने की मेरी तनिक भी इच्छा नहीं है।” … ” मैं चाहता हूं कि मेरे लेखों को कोई प्रमाणभूत न समझें।”
यह भी सत्य ही है कि कोई बात अंतिम नहीं होती। शब्द आगे रहते हैं और आगे – आगे ही रहते हैं। गांधी पर भी शब्द ही आगे हैं चाहे हंसराज रहबर हों जिनसे ” गांधी बेनकाब ” हुए या दुर्गेश पांडेय हों, जिनके उपन्यास ” गांधी हार गए ” से विमर्श आगे बढ़ा हो। चाहे जेरी राव हों, जिन्होंने बिलकुल नए ऐंगल से गांधी को समझा। इससे पहले क्या कोई जानता था गांधी के व्यक्तित्व के इस पहलू को , कि वे पूंजीवाद के समर्थक हैं ? जब उनके बारे में शब्द बढ़े, तभी अधिक जाना गया। Economist Gandhi – the roots and relivance of the political economy नामक पुस्तक हमें कुछ सोचने के लिए प्रेरित कर गई, जिसने गांधी के व्यक्तित्व को विस्तीर्ण कर दिया!
गांधी नाम ही है विशेष कहने का। चाहे वह गोडसे कहें या पाकिस्तानी रहबर कोई फ़र्क नहीं पड़ता। क्या जे एल कपूर को झुठलाया जा सका, जिनकी अध्यक्षता में 1966 में गांधी हत्या की जांच के लिए वर्षों बाद आयोग बना था। इस आयोग की बातें क्या बिसरा दी गईं ? जिसने साफ कहा था कि गांधी हत्या के प्रयास 1934 से अनेक बार किए गए। और यह बात भी साफ़ की कि हत्या का कारण स्वाधीनता आंदोलन का उनका अंतिम प्रयास था। फिर यह बात बार – बार क्यों पेश की जाती है कि उनकी हत्या का कारण देश का बटवारा और पाकिस्तान को 55 करोड़ दिलवाना था। यही सब तो बताया है मराठी के प्रसिद्ध पत्रकार जमन फडनीस ने अपनी पुस्तक ” महात्म्याची अखेर ” शीर्षक पुस्तक में। ये देश के एकमात्र पत्रकार थे, जिन्होंने कपूर आयोग की सभी कार्यवाहियों को कवर किया था। उनकी जैसी बात जेम्स डगलस भी नहीं लिख पाए।
कहने का मतलब गांधी पर शब्द अंतहीन हैं। जितना आगे बढ़ते कम पड़ जाते हैं। यही उनके व्यक्तित्व की सफलता है।
इतिहासकार आर सी मजूमदार सच कहते हैं कि गांधी के विवेचन में भारतीय इतिहासकारों से चूक हुई और बात अतिरंजित हुई। सवाल उठता है कि क्या गांधी का महिमामंडन बुरी चीज़ है ? नहीं , लेकिन यह सब कुछ इतिहास लेखन में नहीं चलेगा। जब गांधी अपने बारे में ” मो सम कौन कुटिल खल कामी ?…” लिखकर अपनी सादगी की स्थिति को ज़ाहिर कर देते हैं, फिर जिसके जो जी में आए, लिखता रहे। फ़र्क नहीं पड़ता। मैं गांधीवादी नहीं हूं। मेरी भी वही स्थिति रही है, जो प्रेमचंद की थी। ” रंगभूमि ” से चलकर ” गोदान ” पर लगभग समाप्त ! उनके साहित्य से गांधीवाद गायब ! पहले मेरे लेखन में भी गांधीवाद था, जो समय के यथातथ्य रूप देकर बह गया।
अब ” कितने गांधी ” पर आते हैं। यह डॉक्टर अजय शर्मा का 64 पृष्ठीय नाटक है, जो आस्था प्रकाशन, दिल्ली, जालंधर से सद्य प्रकाशित है। यह डॉक्टर साहब का छठा नाटक है। आपके पंद्रह उपन्यास पहले से ही प्रकाशित हैं। ” कितने गांधी ” में कुल छह दृश्य हैं। गांधी पर केंद्रित है। उनके जीवन के सत्य पर नव – प्रकाश है। गांधी पर पड़ी नव दृष्टियों का विवेचन है। आवश्यक नहीं कि ये दृष्टियां यथातथ्य हों।
इसलिए यह नाटक न ऐतिहासिक है और न ही यथार्थवादी , अपितु यह एक ” मॉडर्न एलिगोरी ” ( Modern allegory – आधुनिक अन्योक्ति ) का मंचीय रूप है। ” कितने गांधी ” के पहले ही दृश्य में भापा जी फरमाते हैं राघव से कि ” बेटा, जब भगत सिंह , राजगुरू और सुखदेव को फांसी हुई, तो महात्मा गांधी ने सबकी ज़ुबान पर ताले लगा दिए। विरोध फिर भी नहीं हुआ।” सच्चाई यह है कि ख़ुद क्रांतिकारी अपनी फांसी की सज़ा का विरोध नहीं कर रहे थे। इस बात का आश्वासन भी नहीं दे पा रहे थे कि आगे हिंसक क़दम नहीं उठाएंगे। आज भी सज़ा टालने या कम करने के लिए यह प्रयास होता है, तब कहीं जाकर सज़ा में कटौती होती है। गांधी ने बार – बार प्रयास किए भगत सिंह और उनके साथियों को सज़ा से बचाने के, लेकिन उनकी कोशिशें आखिरकार नाकाम रहीं। फांसी के बाद क्रांतिकारियों के समर्थन में कराची में गांधी के विरोध को अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता। गांधी ने कहा भी था कि ” मैं भगत सिंह को नहीं बचाना चाहता था, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं है।”
तथ्य यही है कि गांधी ने इन क्रांतिकारियों को सजा से बचाने के लिए पूरी आत्मा से बार – बार प्रयास किए, लेकिन उनकी सारी कोशिशें बेकार रहीं। भगत सिंह पर अंग्रेज़ अफ़सर जे पी सौंडर्स की हत्या आरोप था। अंग्रेज़ नहीं चाहते थे कि जनता के बीच यह संदेश जाए कि अंग्रेज़ अफ़सर की हत्या पर भी सजा में कटौती कर दी गई। भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी देने की तारीख 24 मार्च 1931 मुकर्रर की गई। 17 फरवरी 1931 की गांधी – इरविन पैक्ट हुआ, जिसमें गांधी ने अपने सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस लिया और गोलमेज़ सम्मेलन में भाग लेने को तैयार हुए। इस अवसर पर क्रांतिकारियों के समर्थक चाहते थे कि गांधी वाइसरॉय से इसके बारे में बात करें और इसे बातचीत की शर्त रखें, लेकिन ऐसा संभव न हो पाया। कांग्रेस भी चाहती थी कि इस बातचीत में यह मुद्दा उठाकर बातचीत को डिरेल न किया जाए।
फिर भी गांधी ने इस सिलसिले में प्रयास जारी रखा।” यंग इंडिया ” लिखा कि मैं इस सिलसिले में वाइसरॉय से अलग से बात करूंगा। उन्होंने पैक्ट के दूसरे ही दिन 18 फरवरी को इरविन से बातचीत की, जिसमें उन्होंने उनसे कहा कि ” मेरे द्वारा इसका ज़िक्र किया जाना शायद अनुचित भी लगे, लेकिन अगर आप मौजूदा माहौल को बेहतर बनाना चाहते हैं, तो आपको भगत सिंह और उनके साथियों की सज़ा समाप्त कर देनी चाहिए।” लेकिन वाइसरॉय ने सज़ा टालने पर सहमति जताई, समाप्त करने पर नहीं। इस बाबत उन्होंने ब्रिटिश सरकार से सिफारिश भी की थी।
गांधी ने क़ानूनी मार्ग भी ढूंढा। विजय राघवाचारी को पत्र लिखा। ज्यूरिस्ट तेज बहादुर ने इरविन से बात की, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। गांधी चाहते थे कि भगत सिंह और उनके साथी लिखित वादा करें कि भविष्य में हिंसक कार्रवाई नहीं करेंगे, लेकिन ऐसा न हो सका। इस सिलसिले में 19 मार्च 1931 को गांधी ने एक बार फिर वाइसरॉय से बात की। उन्होंने फांसी की तारीख़ बढ़ाने से इन्कार कर दिया। फिर भी गांधी ने प्रयास जारी रखा। 21मार्च को फिर मिले लेकिन बात नहीं बनी। 22 मार्च 1931 को एक बार फिर मिले, तो विचार का आश्वासन मिला। फांसी की तारीख से एक दिन पहले गांधी ने इरविन को पत्र लिखा और सजा रोकने की मांग की, लेकिन 23 मार्च की शाम को निर्धारित तारीख से एक दिन पहले ही सभी को फांसी दे दी गई। अतः गांधी की यह बात सच है कि उन्होंने बराबर प्रयास किया और पूरी आत्मा से किया। इस तरह के आरोप बेमानी हैं और अन्योक्ति हैं, जिनका कोई आधार नहीं।
गांधी पर अतिरंजित लेखन है, इतिहास लेखन है, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता।” दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग, बिना ढाल … ” यही सब तो है। भापा जी सही ही कहते हैं, ” गांधी को इस कदर हीरो बना दिया गया है कि जैसे सारी आज़ादी की जंग गांधी ने अकेले ही जीती हो।” ज़ाहिर है, ऐसा लेखन सही इतिहास – बोध नहीं कराता।
” कितने गांधी ” में सेकुलर की अच्छी व्याख्या है, जो गांधी पर चस्पा है। अंतिम शब्द ” हे राम ” में भी छिपी है और जिनाह को प्रधानमंत्री बनाने के ब्रिटिश प्रस्ताव में भी। वैसे देश – विभाजन के बहुत से अवामिल और कारक हैं। इस पर कई पुस्तकें उपलब्ध हैं, जिनको पढ़कर लगता है कि परिस्थितियां ऐसी बन गई थीं कि देश के बटवारे को कोई रोक नहीं सकता था। इसका कोई एक कारण भी नहीं हो सकता। लोहिया ने अपनी पुस्तक ” भारत विभाजन के गुनहगार ” में इसके आठ कारण बताए हैं, जिनमें पांचवें पर गांधी की अहिंसा का भी उल्लेख है। जबकि दूसरे कारण में कांग्रेस का उतारवय और छठे पर मुस्लिम लीग की फूटनीति है। विभाजन पर अन्य कई पुस्तकें हैं, जिसमें ” इंडिया विंस फ्रीडम ” और ” इंडिया डिवाइडेड ” को मैं महत्वपूर्ण मानता हूं।
गांधी पर आलोचनात्मक दृष्टिपात करनेवाला यह नाटक अपने उद्देश्य में सफल है, जिसका सर्वत्र स्वागत होना चाहिए। गांधी को महापुरुष की श्रेणी में रखने से कोई नहीं रोक सकता। उनमें वे गुण थे, जो एक महान आत्मा में होते हैं। ईश्वर विश्वास, धर्म भावना, शांतिप्रियता,सत्य से जुड़ाव, सादगी,संयम, त्याग और कर्मयोग आदि उनके गुण ही तो हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि महापुरुष प्रायः एकपक्षी होते हैं, जैसे गांधी थे। इस एकपक्षिता के कारण प्रायः गुण भी दोष बन जाते हैं।
गांधी का सही मूल्यांकन अभी तक नहीं हो सका है। उन्हें सर्वगुण संपन्न मानकर पूजा जाता रहा इसलिए। हमने उनके दोषों की ओर ध्यान नहीं दिया , जिसका परिणाम यह हुआ कि राष्ट्रीय जीवन का सफल मार्ग नहीं खोज सके। यह बात भी सच है कि भारतीय राष्ट्र और समाज की दृष्टि से गांधी की शिक्षाएं, सिद्धांत और आदर्श पूर्णतः निर्दोष नहीं कहे जा सकते। गांधी को राष्ट्रपिता तो बना दिया गया, पर उनके कार्यों के गुण – दोष का सम्यक और विषाद विवेचन नहीं किया गया, जिसके कारण राष्ट्रीय विकास का स्वस्थ मार्ग अवश्य बाधित हुआ।
वास्तव में स्वतंत्रता आंदोलन में एक भूमिका के कारण उन्हें ” नेता ” से अभिहित किया जा सकता है। अन्यथा वे नेता नहीं। नेता भी बने, तो नेतृत्व नहीं दे सके। नेता राष्ट्रीय लक्ष्यों का प्रतिनिधि होता है, जो उनसे नहीं हो सका। यही प्रतिनिधि भाव व्यक्ति को नेता बनाता है। इस भाव के प्रभावी होते ही नेता का व्यक्तिभाव तिरोहित हो जाता है। यहां राष्ट्र का गांधी के व्यक्तित्व में संकोच हुआ, विस्तार नहीं, जो गांधी को नेतृत्व विफलता की ओर ले गया। अब इस मायाजाल को हटाना ही पड़ेगा और गांधी का सही मूल्यांकन करना होगा।
डॉक्टर अजय शर्मा ने इस सिलसिले में यह जो प्रयास किया है,उसके लिए वे बधाई के पात्र हैं। एक राष्ट्र और समाज की बड़ी सेवा है कि जिसे राष्ट्रपिता का दर्जा प्राप्त है, उसके गुणों और दोषों पर समान दृष्टि डाली जाए। आस्था प्रकाशन , जालंधर, दिल्ली से प्रकाशित ” कितने गांधी ” की साज – सज्जा और छपाई अति सुंदर और मनोहारी है। प्रूफ की गलतियों की ओर और ध्यान देना अपेक्षित है। इस नाटक में रोचकता बनी रहती है ” आंख मार के “।
– Dr RP Srivastava
Chief Editor, Bharatiya Sanvad