आज गीत बिकते हैं
उनका चीर – हरण होता है
बेचे जाते हैं सरेराह
लिखने से पहले बिक जाते हैं !
बिक जाते हैं गीतकार
गीत लिखने से पहले
पेशे का पेशा
बदल गई दुनिया
कहाँ से कहाँ आ गए हम ?
तितलियाँ अब उड़ती नहीं
बस, टाँकी जाती हैं …
फिर भी जारी है सदा
” मैं गीत बेचता हूं
किसिम – किसिम के “
फेरी लगाई गई
मुनादी कराई गई
” एड ” दिया
हाट लगाई गई
माँग बढ़ाई गई
अब गीत आसानी से बिक जाते हैं
बहुत आसानी से
बस, ” एड ” करो
दाग़ो और भूल जाओ
हर कोई चाहता है
कि दग़े
अजीब मारामारी है
अजब हाहाकारी है
इसलिए
मैं अपने गीत नहीं बेचता
पेशेवर नहीं हूं मैं
गण समाजी हूं !
……
मैं गीत नहीं बेचता
माओ ने कहा था –
” मैं कैसे बेच सकता हूं
अपने गीत ?
अपने कला – कौशल
अपने हुनर
अपनी योग्यता
अपनी सलाहियत ?
ये सभी अनमोल हैं
कोई नहीं दे सकता इनके मोल ?
बोली लगाना बेकार है
मैं नहीं पड़ता इस पचड़े में
कौन बाज़ी मार ले जाए ?”
…..
मैं गण समाज चाहता हूं
क़दीम गण समाज
जहां साहचर्य ही साहचर्य ही था
परस्पर एक – दूसरे का आश्रय था
सहकार थे सभी
वर्णगत कर्म भी नहीं बंटे थे
जाति थी ही नहीं
सभी एक – दूसरे का कार्य करते
अलग – अलग नहीं बँटे थे सभी
गण समाज यूं ही नहीं बनता
अपेक्षित गुण पैदा करना होता
हर व्यक्ति –
पीर, बावर्ची, भिश्ती और खर होता
सबको सभी कार्य करने होते
सभी कलाएं सीखनी पढ़तीं
वह वाहिक गण समाज था –
जिसमें दिखता था
सभी का अपना चेहरा
कर्मगत विभाजन नहीं था !
जो कार्य जिसके ज़िम्मे
सिर्फ़ वही न करे
जब जो चाहे करे
स्त्री – पुरुष में कर्मगत भेद नहीं
पढ़ा – लिखा, व्यवसाई, दूकानदार
नाई बन जाता
नाई पढ़ – लिखकर
विद्वान, ज्ञानी और पंडित बन जाता
महाभारत का कर्ण पर्व पढ़ जाता
गण समाज बनाता
पेशे से परे
जाति से परे
कला – कौशल विकसाता
गणतंत्र के साथ
गण समाज लाता।
– राम पाल श्रीवास्तव ‘ अनथक ‘