“अँधेरे के ख़िलाफ़ ”
काव्य संग्रह
समदर्शी प्रकाशन गाजियाबाद द्वारा प्रकाशित
पृष्ट संख्या: 128
मूल्य : Rs. 200.00
“ ख़ाबे हस्ती मिटे तो हमारी हस्ती हो ,
वरना हस्ती तो ख़ाब ही की है”
जब जीवन की विसंगतियाँ और त्रासद स्थितियाँ सामने आती हैं , तो कविता प्रस्फुटित एवं उच्चारित होती है अपनी पुस्तक का परिचय करवाते हुए एवं प्रस्तुत काव्य संग्रह की कविताओं के विषय में ये विचार स्वयं रामपाल श्रीवास्तव जी के हैं, वे कहते हैं की कवि वास्तविक जीवन के निकट पहुंचता है और सच्चाई की ओर समाज की रहनुमाई करता है। अपनी पीड़ा , वेदना और व्यथा का उद्घाटन करता है। अंधेरे के खिलाफ़ लड़ने के लिए समुचित वातावरण और धरातल निर्मित करने की ओर उन्मुख होता है।
दहकते अंगार उत्पन्न कर सकूँ
पैशाचिक प्रवृत्ति का दलन कर डालूँ
उन सभी का शमन कर सकूँ
जो साज संभार में बाधक बनें
सभी का अंत कर डालूँ
सभी का जीवन बना डालूँ
संग्रह की कविता “सुन शब्द” की उपरोक्त पंक्तियों से हमें उनके भाव को समझने में काफी सहायता मिलती है।
राम पाल श्रीवास्तव वर्तमान साहित्य जगत में एक ऐसा साहित्यकार, जो बिना शोर शराबे के अपना गंभीर साहित्यिक कार्य करते जा रहे हैं एवं अब तो उनका कार्य स्वयं ही उनका परिचय प्रस्तुत कर देता है। उन्हें अलग से किसी परिचय की दरकार ही नहीं रही। असंभव ही प्रतीत होता है की वर्तमान काल का कोई साहित्यकार अथवा साहित्य से सारोकर रखने वाला व्यक्ति राम पाल श्रीवास्तव जी जैसी शख्सियत से, उनके बेहतरीन,अतुलनीय एवं गंभीर साहित्यिक कार्य से परिचित न हो। उन्होंने अमूमन साहित्य की हर एक विधा में अपने उच्च स्तरीय लेखन कार्य से सतत योगदान दिया है एवं साहित्य को समृद्ध किया है। उनके श्रेष्ट कार्य के पीछे उनका दीर्घकालीन तजुर्बा अवश्य ही बेहद मायने रखता है।
अपने सतत सृजन द्वारा साहित्य जगत में अपनी उपस्थिति बनाये रखते हुए वरिष्ठ, तजुर्बेकार, लेखक, अनुवादक, पत्रकार एवं कवि विभिन्न पत्र पत्रिकाओं से निरंतर जुड़े रहे हैं एवं साहित्यमंच पर अपनी सक्रिय सृजनात्मक उपस्थिति द्वारा साहित्य जगत में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है । निरंतर साहित्य सृजन के क्षेत्र में अपने तजुर्बे से जो कुछ भी उन्होंने हासिल किया वह और अधिक निखर कर एवं परिमार्जित होकर साहित्य जगत को उनकी विभिन्न विधाओं में सौंपी गई भेंटों के रूप में प्राप्य अमूल्यनिधि स्वरूप है जिसे सँजो लेना होगा आने वाली पीढ़ी को मार्गदर्शन हेतु।
श्रीवास्तव जी ने उर्दू भाषा को भी अपने सृजन कर्म में यथोचित स्थान दिया है, जिसने उनके सृजन को और अधिक स्तरीय एवं आकर्षक बना दिया है। इस भाषा पर उनका अधिकार उनके द्वारा रचित कृतियों में स्पष्ट ही नजर आता है।
समीक्ष्य पुस्तक के द्वारा उनका बेहद शांत, शालीन किन्तु बाज दफा तीक्ष्ण, सुविचारित एवं गंभीर प्रयास स्पष्ट लक्षित होता है। कहीं कहीं यथार्थ को सामने लाने से कथ्य में पैनापन भी आ गया है जिसे कविता के भाव एवं कवि की सत्य उद्घाटित करने की भावना के चलते सर्वथा उचित ही ठहराया जाना चाहिए। उनकी रचनाओं से लेखन के प्रति उनका समर्पण, लगन, एवं निष्ठा स्पष्ट दिखलाई देती है।
प्रस्तुत काव्य संग्रह की अमूमन प्रत्येक कविता एक गंभीर विचार , एक भिन्न पहलू व एक भिन्न नजरिए की ओर ध्यानकर्षित करते हुए गंभीर विचारों को प्रस्तुत करती है एवं कह सकते हैं की ये कवितायेँ मात्र उनके हृदय में चल रहे विचारों के बवंडर का, हृदय के भावों को दिया गया शाब्दिक रूप मात्र है । जीवन के उतार चढ़ाव के बीच विभिन्न अनुभवों से गुजरते हुए प्राप्त अनुभूतियों , संवेदनायेँ साथ ही वे तमाम अनुभव जो उन्होंने एवं उनकी आत्मा ने किये उन्हें उनकी कविता कह देना संभवतः उनकी कविताओं को पूर्ण रूप से व्यक्त तो नहीं करता एवं उनके संग पूर्ण न्याय भी नहीं होगा अपितु उनके गंभीर विचारों को एक सीमित दायरे में कैद कर देने के समान होगा।
समीक्ष्य पुस्तक “अंधेरे के खिलाफ़” का शीर्षक स्वयं ही पुस्तक के विषय में बहुत कुछ कह जाता है। जैसा की श्रीवास्तव जी ने स्वयं ही कहा की अंधेरे के खिलाफ़ लड़ने के लिए समुचित वातावरण निर्मित करने के केंद्रित भाव पर आधारित हैं इस संग्रह की अधिकांश कविताएं। ये कविताएं बयान करती है वह सब जो कवि हृदय में घुमड़ रहा है एवं भिन्न भिन्न रूप में बाहर आना चाहता है।
हिन्दी के प्रति उनकी चिंता दर्शाती, एवं भारतवासियों को हिन्दी की उपेक्षा करने हेतु कहीं गर्भित दंश देती कविता है “शिनाख्त का बहाना”, भारतवंशी विश्वव्यापी तो हुए, किन्तु हिन्दी का दायरा एवं कद बढ़ने के स्थान पर सिमटता ही गया और भरतवंशियों की उत्तरोत्तर प्रगति के साथ साथ हिन्दी की दुर्दशा होती रही, इसी विषय पर गहरा तंज़ कसती है यह कविता :
शिनाख्त का बहाना ढूंढती है
नहीं मुखरित हो पाती /सकुचाती है
हीन भावना से /दिलों में दबी रहती है
दिल ही दिल में घुटती है
फिर कोई बोल नहीं पाता हिन्दी
उनकी कविताएं अंतरराष्ट्रीयता के पैमानों को छूती हुई हैं एवं उनकी कविता का दायरा बहुत व्यापक है। वे इटली, सिसली , टेम्स , वेमले , जापान, लंदन, चीन, फ़्रांस से होते हुए गुज़रती हैं ,साथ ही वे अपनी कविताओं में भारतीय इतिहास के विस्मृत नायकों को बेतरह एवं बारम्बार याद करते हैं।
अहमदुल्लाह पर कही गई कविता, “राम जन्म भूमि के मौलवी” की यह पंक्तियाँ देखिए जो अपने आप में इतिहास का एक ऐसा सफ़ा समेटे हुए है जो लगभग विस्मृत ही है :
मगर मौलवी देता फटकार
जे ब्रूस मॉलसन ,थॉमस सीटन ,
एस टी होम्स, क्रिस्टोफर ने लिखी तहरीर
बहुत जाँबाज है यह फकीर
रखता है साथ हजार से अधिक शरीर
देशभक्ति व देशभक्त की गाथा से परिपूर्ण सुंदर कविता।
रंगभेद के खिलाफ लड़ने वाले महान बेंजामिन मोलाइस को याद करते हुए श्वेत एवं श्याम वर्णी पुष्पों को ले, किन्तु केन्द्रीय भाव में देशभक्ति के संग रची गई है यह सुंदर कविता “बेंजामिन मोलाइस के प्रति” ।
“मानस पुष्प” महान “तैस्सीतोरी” को समर्पित उनके श्रद्धा सुमन है । तैस्सीतोरी जो मूलतः इटली से थे किन्तु जिन्होंने हिन्दू धर्म पर व्यापक शोध कर्म किया एवं अपने शोध के द्वारा वाल्मीकि रामायण के 84 स्थलों से तुलसीदास जी की राम चरित मानस का उद्गम बताया था साथ ही उन्होंने तुलसीदास के ऊपर शंकराचार्य , रामानुजाचार्य का प्रभाव भी पाया एवं इस पर भी अपना पक्ष प्रस्तुत किया। उन्ही, तैस्सीतोरी की स्मृति में रचित है यह कविता।
उनकी कविताए आपको बार बार इतिहास के पन्नों के बीच ले जा कर खड़ा कर देती हैं। कभी 1918 का अवसान काल तो कभी 11 अप्रैल 1914 में तैस्सीतोरी का भरत आगमन।
कविता “मृत्यु से परे” आध्यात्म की ओर ध्यान आकर्षित करती एवं आत्मा की अमरता को प्रतिपादित करती हुई है। वहीं “कहाँ गए वो शेर” औरंगज़ेब के दरबार में यशवंत सिंह के बहादुर पुत्र पृथ्वी सिंह की शेर से नि:शस्त्र युद्ध की सुप्रसिद्ध घटना को बयान करती है एवं साथ ही उन की बहादुरी के पेरिप्रेक्ष्य में ,आज के दौर में इस तरह के माटी के सच्चे सपूतों को भी बेतरह याद करते हैं और उनकी कमी महसूस करते हैं।
शीर्षक कविता “अन्धेरे के खिलाफ़” कवि की प्रभु से भांति भांति के अँधेरों के खिलाफ़ खड़े होने , जूझने एवं लड़ने की शक्ति प्रदान करने की प्रार्थना है। वहीं “बरगद की गवाही” एक चुभता हुआ तंज़ है तमाम बुराइयों और अव्यवस्थाओं एवं अँधेरों के खिलाफ़ .
“जो शेष बचेगा” बेहद गूढ भाव रखती कुछ आध्यात्म कुछ समर्पण भाव समेटे हुए है। एवं ऐसे ही कुछ भाव अंतर्निहित हैं कविता “मैं आस्थावान हूँ” में ।
“फिर वह नहीं आया” एक मार्मिक, अंतरआत्मा को झिंझोड़ती , एवं विचारों को उद्वेलित करती तरथा अमीरी और गरीबी की खाई को चित्रित करती संग्रह की श्रेष्ट अर्थपूर्ण कविताओं में से एक है, तो कविता “वहीं आग” आज के हालत पर कही गई है। इसकी चार पंक्तियाँ उद्धृत की हैं,
दिन रात के बदलते मुखौटे फेंक दो उतार कर
क्योंकि अंधेरा है जिसके दोषी तुम हो
प्रभु ने तुम्हें श्रेष्ट जीवन दिया है
फिर भी दोष , सृष्टि संहारी बन गए
तुम सब भाई भाई हो
फिर गड्ढों में खून क्यों भरते हो?
“हर शहादत के बाद” वैश्विक युद्ध विभीषिकाओं एवं नरसंहार पर केंद्रित है व इस जुनून एवं उन्माद का दर्द महसूस करती है।
हर शहादत के बाद प्रतीक्षा करो
जब अंधेरा नहाएगा रोशनी से
इंसान के वेष में सिर्फ इंसान रह जाएगा । ।
अत्यंत प्रभावित करती है कुछ कविताएं अपने गर्भित भाव एवं उनके तंज़ से यथा “विडंबना”, “युद्ध” , “मानदंड” आदि ।
श्रीवास्तव जी को उनके इस बेहतरीन काव्य संग्रह जिसकी प्रत्येक कविता कुछ नहीं वरन बहुत कुछ कह जाती है एवं आपको विचारों के बीच छोड़ जाती है, साधुवाद एवं शुभकामनाएं ।
-अतुल्य खरे
[ उज्जैन , म प्र ]