बौद्धिकता का ‘ दावा ‘ हर किसी का है। बौद्धिक नहीं भी हैं, फिर भी प्रत्यक्ष या परोक्ष या दोनों स्तरों पर दावा और किसी न किसी हद तक गुमान है। लेकिन हम वास्तव में कितने बौद्धिक हैं, यह हमारे चिंतन की प्रखरता और उत्कृष्टता पर निर्भर करता है। इसका सीधा प्रभाव हमारे आचार – विचार और रहन – सहन पर पड़ता है। यह समाज में स्थान – निर्धारण का प्रमुख कारक भी है और सामूहिक रूप से सामाजिकता – निर्माण का भी। यह सच है कि सामाजिकता को इंसानियत, नैतिकता , आदर्शों और मूल्यों से जितना अधिक परिमार्जित करते चले जाएंगे,समाज में उतना ही अधिक सुख – शांति और समृद्धि का वातावरण विकसित होगा, जो स्वयं और समाज के लिए अति कल्याणकारी होगा।
इसके लिए बुद्धि का भी परिष्कार करना होगा। जब यह परिष्कृत हो जाएगी, तो सहज ही प्रज्ञा और विवेक जन्म लेंगे, जो हमें गलत रास्ते पर चलने से रोकेंगे। परिष्कार से विचारों में श्रेष्ठता आएगी और इससे अनिवार्यतः आचरण भी श्रेष्ठ बनेंगे।
हमारे आचरण का मूल्य ही ख़ास है, शरीर का नहीं। हम कितने ही खूबसूरत हों, यदि व्यक्ति में आदर्शों और श्रेष्ठ विचारों का समावेश नहीं , तो उस खूबसूरती का कोई मायने – मतलब नहीं
। इसे एक उदाहरण से इस प्रकार समझा जा सकता है – लोग अक्सर अपनी सुख – सुविधा की ओर ध्यान देते हैं और दूसरों की अनदेखी करते हैं। मगर यह तथ्य भूल जाते हैं कि इसे हमारी आत्मा कदापि नहीं स्वीकार करेगी, शरीर भले ही इसे स्वीकार कर ले। वास्तव में हमें आचरण की श्रेष्ठता को एक प्रतियोगिता और स्पर्धा की तरह लेना चाहिए कि किसी व्यक्ति को बेहतर आचरण में आगे न निकलने दें। परमात्मा ने इंसानों को ही अपने स्रष्ट जीवों में सर्वश्रेष्ठ बनाया है। वह यह भी चाहता है कि इंसान श्रेष्ठ व्यवहार करे , श्रेष्ठ आचरण वाला हो। इंसान अपने आचार – विचार की उत्कृष्टता से अपने स्थान को इतना उच्च कर सकता है, जिसकी उसने कल्पना तक न की होगी। सदाचरण उसे निश्चय ही अमरता की ओर ले जाएंगे। वह शाश्वत जीवन अवश्य ही पाएगा। कभी ऐसा भी देखा जाता है कि समाज और परिवार के लोग ऐसे सन्मार्गी व्यक्ति को हिकारत, तिरस्कार और उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं, जिनकी कतई परवाह नहीं करनी चाहिए। सामाजिक शांति कैसे आए, समाज में सुख – समृद्धि का वातावरण कैसे बने और स्वयं तथा दूसरों का कल्याण कैसे हो, इसकी बराबर चिंता होनी चाहिए। श्रेष्ठ आचरण ही इंसान का आभूषण है।
– Dr RP Srivastava