चलिए मान लेते हैं कि देश की आज़ादी के बाद पिछले 70 वर्षों में भारतीय लोकतंत्र कुछ मजबूत हुआ है, लेकिन राजनीति का अपराधीकरण भी बढ़ा है , जो लोकतंत्र के लिए यक़ीनन घातक और हानिकारक है | राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपराधी और घोर सांप्रदायिक तत्वों की सहायता लेना तो अब बहुत छोटी बात हो गई है | अब तो बाकायदा उनकों टिकट देकर उपकृत किया जा रहा है। कुछ पार्टियों में तो बड़े से बड़ा कलुषित शामिल होते ही अपने को दूध का धुला मान लेता है | आज स्थिति यह है कि भारत का कोई भी राजनैतिक दल ऐसा नहीं है , जिसमें किसी न किसी प्रकार के अपराधी न हो। वास्तव में ‘जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951’ की धारा 8 (4) के अनुसार , अगर कोई भी जनप्रतिनिधि किसी आपराधिक मामले में दोषी ठहराये जाने की तिथि से तीन महीने के दौरान तक अपील दायर कर देता है, तो उस मामले का निबटारा होने तक वह अपने पद के अयोग्य घोषित नहीं होगा। यही वह धारा है जिसका राजनेताओं द्वारा लम्बे समय तक फायदा उठाया जाता रहा है, इसलिए जब 2013 सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि ‘जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की यह धारा संविधान के अनुच्छेद 14 में प्रदत्त समानता के अधिकार पर खरी नहीं उतरती’ तो इससे देश के पूरे सियासी बिरादरी में खलबली मच गई थी। यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 327 के अंतर्गत पारित किया गया था | यहाँ यह याद रखना जरूरी है कि 10 जुलाई 2013 तक यह व्यवस्था थी कि किसी अदालत द्वारा दोषी पाए जाने के बाद भी विधायक या सांसद तीन माह के भीतर ऊपर की अदालत में अपील करके अपने पद पर बना रह सकता था, लेकिन लिली थॉमस केस में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि यदि विधायक या सांसद को दो साल या उससे अधिक की सजा होती है , तो तत्काल उसकी सदस्यता समाप्त हो जाएगी और उसे जेल जाना पड़ेगा | जब सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रतिनिधि क़ानून के उस प्रावधान को असंवैधानिक घोषित कर दिया था जिसमें तीन माह के भीतर अपील की व्यवस्था थी | इस फैसले को उलटने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने पहले अध्यादेश का सहारा लिया और फिर राज्यसभा में एक विधेयक पेश किया | इसी विधेयक को राहुल गांधी ने भरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में फाड़ कर फेंक दिया था | इसके बाद अध्यादेश और विधेयक दोनों को वापस ले लिया गया | इस फैसले के कारण भ्रष्टाचार, हत्या, आत्महत्या के लिए उकसाने जैसे अपराधों में दोषी पाए जाने वाले कई सांसद और विधायक अपनी सदस्यता से हाथ धो बैठे , जिनमें कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, शिव सेना, ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन, डीएमके और एआईडीएमके समेत कई पार्टियों के विधायक और सांसद शामिल थे |

उल्लेखनीय है कि 2006 में चुनाव आयोग ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक कड़ा पत्र लिखते हुए कहा था कि ‘यदि जनप्रतिनिधित्व कानून 1951” में जरूरी बदलाव नहीं किया गया , तो वह दिन दूर नहीं जब देश की संसद और विधानसभाओं में दाऊद इब्राहीम और अबू सलीम जैसे लोग बैठेंगे’। लेकिन इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया और अंत में सुप्रीमकोर्ट को ही पहल करनी पड़ी थी , हालाँकि सुप्रीमकोर्ट ने यह भी साफ़ कर दिया था कि जो सांसद और विधायक अपनी सज़ा के ख़िलाफ़ अदालत में जा चुके हैं , उन पर यह आदेश लागू नहीं होगा | यह सच है कि सुप्रीमकोर्ट द्वारा यह क़दम उठाए जाने के बाद भी विधायिका में अपराधियों की संख्या कम नहीं हुई है ! लोकसभा और विधान

सभाओं में अपराधियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। कुछ वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दिया था कि यदि कोई व्यक्ति संसद या विधानसभा के चुनाव का प्रत्याशी है तो वह यह हलफनामा देगा कि उसके खिलाफ कितने आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह अनुमान था कि जब वोटरों को किसी व्यक्ति का आपराधिक रिकॉर्ड मालूम होगा तो वह उसे किसी हालत में वोट नहीं देगा। परंतु जब व्यवहार में इसे देखा गया तो अपराधिक छवि के अधिक से अधिक लोग जीत कर आ गए और इस तरह के हलफनामे का कोई असर नहीं पड़ा। मीडिया द्वारा बार-बार आग्रह किया जाता है कि विभिन्न पार्टियां आपराधिक छवि के लोगों को टिकट न दें , परंतु व्यवहार में कोई भी पार्टी इसका पालन नही करती है। ‘ट्रांसपेरंसी इन्टरनेशनल’ की रिपोर्टें इस तथ्य को भलीभांति उजागर करती हैं | अक्सर यह कुतर्क सामने आता है कि जब तक सुप्रीमकोर्ट सज़ा की पुष्टि नहीं कर देती , तब तक उसे अपराधी कैसे कह सकते हैं। कुतर्की कई वर्षों से अपराधियों के निर्वाचित होने के अधिकार पर यह सवाल खड़ा कर रहे हैं। यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि मतदाता अपराधी प्रकृति के लोगों को मत क्यों देते हैं ? क्या डर या धनबल के कारण मतदाता ऐसा करते हैं ? यदि ऐसा है तो लोकतंत्र का बन्टाधार सुनिश्चित है | इस समय सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर विचार कर रहा है कि क्या अदालत द्वारा दोषी पाए जाने के बाद भी कोई राजनीतिक नेता किसी पार्टी का अध्यक्ष होने के नाते चुनाव में खड़े होने वाले पार्टी उम्मीदवारों का चयन कर सकता है , हालांकि वह स्वयं छह वर्षों तक चुनाव नहीं लड़ सकता ? मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्र की अध्यक्षता वाली तीन-सदस्यीय खंडपीठ इस प्रश्न पर विचार कर रही है और इसी ने यह सवाल पूछा है | इस मुद्दे पर चुनाव आयोग भी इसी राय का है कि दोषी राजनीतिक नेता को यह अधिकार नहीं होना चाहिए | लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट इससे भी आगे बढ़कर इस प्रश्न पर विचार कर रहा है कि जो नेता स्वयं अदालत में अपराधी साबित हो चुका हो, वह कैसे नया राजनीतिक दल बनाकर उसका अध्यक्ष बन सकता है और उसके उम्मीदवारों का चयन कर सकता है? क्या इससे पूरी राजनीतिक प्रक्रिया ही दूषित नहीं हो जाती ? चुनाव आयोग का कहना है कि उसके पास ऐसे नेताओं को रोकने के लिए कानूनी अधिकार नहीं है , इसलिए वह कुछ नहीं कर सकता हालांकि वह स्वयं इस व्यवस्था को ठीक नहीं समझता है | वास्तव में चुनाव प्रक्रिया को स्वच्छ और पारदर्शी बनाने के लिए ठोस क़दम उठाने की ज़रूरत है | देश के मतदाताओं को भी चाहिए कि जब भी अवसर मिले स्वच्छ छवि के लोगों को वोट देकर अपराधियों को सबक सिखाएं | इस तरह ही इनका ‘इनकाउंटर ‘ हो सकता है | – Dr RP Srivastava , Editor -in- Chief , Bharatiya Sanvad

 

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