साम्प्रदायिकता , घृणा एवं कट्टरवाद के घोर विरोधी थे स्वामी जी
स्वामी महेश्वरानन्द सरस्वती जी के परलोकगमन के 17 वर्ष पूरे होने वाले हैं | मगर आज भी वे लोगों के दिलों में बसते हैं | आज के युग में बढ़ती साम्प्रदायिकता और कट्टरवाद ने उनकी जीवन शैली और व्यवहारों की ओर बरबस ही ध्यान खींचा है | वे 24 अक्तूबर 2000 को उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जनपद के हर्रैया सतघरवा विकास खंड में मैनडीह और बेलवादम्मार गाँवों के मध्य अपनी कुटिया में ब्रह्मलीन हुए थे | उस समय उनकी आयु लगभग सौ वर्ष थी |
स्वामी जी कोई सामान्य संत नहीं थे . बल्कि यूँ कहें तो अधिक ठीक रहेगा कि उनके जैसे संतों की संख्या बहुत कम है | वे लोभ – लालच , मान – सम्मान , आडंबर और अन्य विकारों से सदैव दूर रहे | स्वामी जी आदिगुरु शंकराचार्य के अनुयायी थे और परापूजा को ईश्वर – प्राप्ति का साधन समझते थे . उन्होंने कब पूजा की , किसी ने नहीं देखी | उनके प्रिय शागिर्द अब्बास अली जी बताया कि हम लोग तो उनके साथ ही कुटी – परिसर में रहते थे , परन्तु कभी उनको पूजा – पाठ करते देखा | पंजाब और हरियाणा में उनके कई शिष्य हैं , लेकिन अब्बास जी का परिवार उनकी कुटिया पर ही रहता था |
स्वामी जी का जन्म उतरौला [ अब बलरामपुर जनपद ] के पास एक गाँव में हुआ था | उनके पिताश्री ने गृहस्थ जीवन त्याग कर सन्यास ग्रहण कर लिया था और सनातन धर्म की ज्ञानमार्गी शाखा से जुड़ गये | कुछ वर्षों के बाद लगभग 21 वर्ष की आयु में स्वामी महेश्वरानन्द जी भी सन्यासी हो गये और अपने पिताश्री के साथ रहने लगे | उनका मूल नाम जयपत्र श्रीवास्तव था | जब वे सन्यासी हुए , तो उस समय मध्य प्रदेश के रामगढ़ में वन निरीक्षक के पद पर नियुक्त थे | सन्यास की दीक्षा लेने के बाद उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी | उनका अपने सन्यासी पिताश्री का साथ सात – आठ वर्ष तक ही रहा | उन्होंने अपने पिताश्री से संस्कृत सीखी , वेद , उपनिषद , आरण्यक ग्रंथों और कुछ विशिष्ट पुराणों के साथ ही गीता , रामायण और महाभारत का अध्ययन किया |
वे इतने स्वाध्यायी थे कि हिंदी और गुरुमुखी भाषाएँ अच्छी तरह सीख लीं | उर्दू और अंग्रेज़ी में तो अपने विद्यार्थी जीवन में ही निपुणता प्राप्त कर ली थी | सिख और इस्लाम धर्म की पुस्तकों का भी उन्होंने अध्ययन किया था | कुरआन का उर्दू अनुवाद वे पहले ही पढ़ चुके थे . इतने विशाल ज्ञान – भंडार के बावजूद वे पांडित्य – प्रदर्शन से सदैव बचते रहे . उन्होंने सच्चे अर्थों में सन्यास को ज्ञान – प्राप्ति का साधन बनाया था | वे साम्प्रदायिकता , घृणा एवं कट्टरवाद के घोर विरोधी थे और ऐसी ताक़तों से जीवन – भर डटकर लोहा लेते रहे |
उन्होंने पूरे देश और तिब्बत की पैदल यात्राएं कीं और लोगों को इन्सान बनने की नसीहत करते रहे | अब्बास जी ने पिछले दिनों बताया कि स्वामी जी हमारे धार्मिक कर्म – कांड का काफ़ी खयाल रखते थे | रमज़ान के रोज़ों के लिए हम सबको जगाते . सहरी खाने के लिए कहते |उनके खान – पान की व्यवस्था मैनडीह ग्राम निवासी , सहिजना ग्राम सभा के पूर्व प्रधान और क्षेत्र के सरपंच बाबू उदय प्रताप लाल श्रीवास्तव [ अब स्वर्गीय ] करते रहे | बाबू जी कई दशकों तक सुबह – शाम अपने यहाँ से खाना भेजवाते रहे |
अब्बास जी से जब मैंने स्वामी जी की धरोहर के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि यह कुटिया है और फ़्रेम वाली एक फ़ोटो , जो आदि शंकराचार्य जी की है | अब्बास जी के बेटे वह फ़ोटो लाकर दिखाने लगे | स्वामीजी अक्सर कहा करते थे कि सभी के धार्मिक तौर – तरीक़ों का आदर – सम्मान होना चाहिए | आज स्वामीजी की कुटिया के असली वारिस अब्बास जी हैं | ज़ाहिर है आज के युग में सांप्रदायिक – सद्भाव की इससे बढ़कर मिसाल और क्या हो सकती है …. स्वामी जी को शत – शत श्रद्धांजलि …….
[ यहाँ जो तीन फ़ोटो रिपोर्ट के साथ संलग्न किये गये है , वे सभी स्वामीजी की कुटिया पर लिए गये हैं | पहले में स्वामीजी के अंतिम संस्कार को अंजाम देते साधुजन , दूसरे में शंकराचार्य जी का चित्र दिखाते शाकिर अली जी , और तीसरे में अब्बास जी , उनकी पत्नी , उनका बेटा शाकिर ,मैं और मेरा बेटा रवि श्रीवास्तव ] . – Dr RP Srivastava