क्या भारतीय समाज में अब भ्रष्टाचार इतना रच – बस गया है कि इसके ख़िलाफ़ उठनेवाली आवाज़ें बहुत धीमी पड़ गई हैं ? अब शायद ही कोई राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के खिलाफ़ संजीदा कोशिशें कर रहा है | जिस देश में ग़रीबी का ग्राफ़ लगातार बढ़ रहा हो,भुखमरी और आत्महत्या जैसी स्थितियां बार – बार समाज की नियति बन जाती हों , उस देश के भविष्य का क्या कहना ?! क्या जुमलेबाज़ी और योजनाओं के सब्ज़बाग़ से देश का भविष्य उज्ज्वल हो सकता है ? कदापि नहीं | नारेबाज़ी देश का दशकों पुराना औज़ार है , जिसका धरातल पर कभी कोई उल्लेखनीय लाभ कभी नहीं दिखा | ‘ गरीबी हटाओ ‘ का नारा दशकों से सुनते आ रहे हैं , जिसके शब्द तो बदलते रहे , पर केन्द्रीय भाव एक ही रहता रहा | अति दुखद और आश्चर्य है , कभी गरीबी नहीं हटी , न ही कम हुई बल्कि गरीबी बढती ही जा रही है , गरीबों की संख्या बढ़ती जा रही है | इससे उलट अमीरी बढ़ी और नये – नये करोड़पति , अरबपति बनते जा रहे हैं | हमारे देश की गरीबी बड़ी मर्मान्तक है | यह किसी जानलेवा बीमारी से कम नहीं ! भूख से उपजी भुखमरी और भुखमरी से बचने के लिए जब इन्सान भीख मांगने लगता है, तो वह एक तरह से समाज के लिए अभिशाप बन जाता है | जो लोग इतिहास पर सरसरी ही सही, मगर निगाह रखते हैं, उन्हें मालूम होगा कि लगभग 18 वर्ष पहले यह अनुमान लगाया गया था कि 2010 के बाद विश्व में संपन्नता आएगी और ग़रीबी छंटेगी, लेकिन हुआ उल्टा | ग़रीबी बढ़ रही है | 2008 की मंदी कितनी जानलेवा थी, सभी जानते हैं |
अर्थशास्त्री चाहें कुछ भी कहें, लेकिन उनके खोखले सिद्धान्त जब इन ग़रीबों की झोपडि़यों की आहों से टकराते हैं तो उनके बड़े-बड़े दावें खोखले नज़र आते हैं। कहते ही नहीं दुनिया भर के अर्थशास्त्री मानते भी हैं कि जब महँगाई बढ़ती है, ग़रीबी बढ़ाती है | आज के इस महंगाई के दौर में जब खाने-पीने के दाम आसमान छू रहे हो, कोई कैसे कह सकता है कि ग़रीबी का ‘विकास’ नहीं हो रहा है और ग़रीब नहीं मर रहे हैं ? गरीबी के कारण मौत की ख़बरें आये दिन मीडिया में आती रहती हैं, लेकिन उन परिस्थितियों के निवारण की किसी को चिंता नहीं होती, जिनके कारण मौतें होती हैं | सभी देख रहे हैं और प्रत्यक्षदर्शी हैं कि सरकारें जन समस्याओं से किनारा कस रही हैं और फ़िज़ूल मुद्दों की तरफ़ ध्यान दे रही हैं, वह भी महज़ वोटों की ख़ातिर ! ग़रीबों की बदहाली की ओर उनका किंचित ध्यान नहीं है | आपको एक साल पहले की वह घटना ज़रूर याद होगी, जो यह बताती है कि किसी की अंतिम इच्छा एक कटोरी दाल हो सकती है। कैसे कोई पूरी उम्र एक कटोरी दाल के लिए तरसता रह सकता है। यह कैसे हो सकता है कि एक आदमी जब मौत के निकट हो तो उसका परिवार दाल के लिए पड़ोसियों के घर दौड़ रहा हो। पूरी उम्र वह औरत एक कटोरी दाल के लिए तरसती रही। अरहर, मसूर, चना, मूंग या उड़द का विकल्प नहीं था उसके पास। जब उसने गरीबी से हारकर जहर खा लिया तो अपने अपाहिज पति से कहा , ‘ अब तो जा रही हूं। आखिरी इच्छा है मेरी, जाते हुए दाल तो चखा दो। ‘ एक मरती हुई औरत अपनी उखड़ती हुई सांसों के साथ आखिरी ख़ाहिश के तौर पर एक कटोरी दाल मांग रही थी। उत्तर प्रदेश के जिला गोंडा, तहसील तरबगंज के गांव अकौनी में ऋतु इस दुनिया को छोड़ने से पहले दाल का स्वाद चख लेना चाहती थी। अपनी पत्नी की इस इच्छा के सामने बहुत बेचारा था उसका पति। क्योंकि घर में दाल नहीं थी इसलिए पड़ोसी के आगे कटोरी फैलानी पड़ी। तब जाकर वह अपनी पत्नी के लिए एक कटोरी दाल का इन्तिज़ाम कर पाया | हम देख रहे हैं कि रोज़मर्रा के इस्तेमाल की चीज़ों के दाम घटते कम, बढ़ते ज़्यादा हैं | फिर भी देश की तरक्की के दावे बढ़ – चढ़कर किये जा रहे हैं | तरक़्क़ी तो हर क्षेत्र में सुगमता को कहते हैं, पर हमारे यहां तो जीवन की मूलभूत ज़रूरतों के सामान जुटाने में सरकार की नाकामी बार – बार सामने आती रहती है | फिर भी समस्या के हल के ठोस प्रयास तक नहीं हो पाते | बहुत कुछ राजनीति के भी हवाले हो जाता है | विश्व बैंक का कहना है कि रोज़मर्रा के सामानों की क़ीमतें अगर दस प्रतिशत बढ़ती हैं, तो दुनिया के एक करोड़ लोग ग़रीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं | हमारे देश में तो चीज़ों के दाम अधिक बढ़ते हैं, इसलिए ग़रीबों की आय बढ़ाने के लिए ठोस उपायों की तरफ़ बढ़ना बहुत ज़रूरी है |
– Dr RP Srivastava , Editor – in – Chief, ” Bharatiya Sanvad ”
खासमखास
मनोरम कल्पना और हृदयग्राही उपमाओं से सज्जित “प्रकृति के प्रेम पत्र”
संसार में प्रेम ही ऐसा परम तत्व है, जो जीवन का तारणहार है। यही मुक्ति और बाधाओं की गांठें खोलता है और नवजीवन का मार्ग प्रशस्त करता है। यह अलभ्य एवं अप्राप्य भी नहीं, जगत Read more…