ग्यारहवी सदी के प्रारंभिक काल मे भारत मे एक घटना घटी जिसके नायक श्रावस्ती सम्राट वीर सुहलदेव राजभर थे ! राष्ट्रवादियों पर लिखा हुआ कोई भी साहित्य तब तक पूर्ण नहीं कहलाएगा जब तक उसमे राष्ट्रवीर श्रावस्ती सम्राट वीर सुहलदेव राजभर की वीर गाथा शामिल न हो | कहानियों के अनुसार वे सुहलदेव , सकर्देव , सुहिर्दाध्वाज राय, सुहृद देव, सुह्रिदिल , सुसज , शहर्देव , सहर्देव , सुहाह्ल्देव , सुहिल्देव और सुहेलदेव जैसे कई नामों से जाने जाते है ! श्रावस्ती सम्राट वीर सुहलदेव राजभर का जन्म बसंत पंचमी सन् १००९ ई. मे हुआ था | इनके पिता का नाम बिहारीमल एवं माता का नाम जयलक्ष्मी था ! सुहलदेव राजभर के तीन भाई और एक बहन थी बिहारीमल के संतानों का विवरण इस प्रकार है ! १. सुहलदेव २. रुद्र्मल ३. बागमल ४. सहारमल या भूराय्देव तथा पुत्री अंबे देवी ! सुहलदेव की शिक्षा-दीक्षा योग्य गुरुजनों के द्वारा संपन्न हुई ! अपने पिता बिहारीमल एवं राज्य के योग्य युद्ध कौशल विज्ञो की देखरेख मे सुहलदेव ने युद्ध कौशल , घुड़सवारी, आदि की शिक्षा ली ! सुहलदेव की बहुमुखी प्रतिभा एवं लोकप्रियता को देख कर मात्र १८ वर्ष की आयु मे सन् १०२७ ई. को राज तिलक कर दिया गया और राजकाज मे सहयोग के लिए योग्य अमात्य तथा राज्य की सुरक्षा के लिए योग्य सेनापति नियुक्त कर दिया गया !
सुहलदेव राजभर मे राष्ट्र भक्ति का जज्बा कूट कूट कर भरा था ! इसलिए राष्ट्र मे प्रचलित भारतीय धर्म,समाज ,सभ्यता एवं संस्कृति की रक्षा को अपना परम कर्तव्य माना ! राष्ट्री की अस्मिता से सुहलदेव ने कभी समझौता नहीं किया ! इनसब के वावजूद सुहलदेव ९०० वर्षो तक इतिहास के पन्नो मे तब कर रह गए ! १९ वी. शादी के अंतिम चरण मे अंग्रेज इतिहासकारों ने जब सुहलदेव पर कलम चलाई तब उसका महत्व भारतीय जनो को समझ मे आया ! महाभारत के बाद ये दूसरा उदहारण है जब राष्ट्रवादी नायक सुहलदेव राजभर ने राष्ट्र की रक्षा के लिए २१ राजाओ को एकत्र किया और उनकी फ़ौज का नेतृत्व किया ! इस धर्मयुद्ध में राजा सुहेलदेव का साथ देने वाले राजाओं में प्रमुख थे रायब, रायसायब, अर्जुन, भग्गन, गंग, मकरन, शंकर, वीरबल, अजयपाल, श्रीपाल, हरकरन, हरपाल, हर, नरहर, भाखमर, रजुन्धारी, नरायन, दल्ला, नरसिंह, कल्यान आदि।
सुहलदेव का साम्राज्य उत्तर मे नेपाल से लेकर दक्षिण मे कौशाम्बी तक तथा पूर्व मे वैशाली से लेकर पश्चिम मे गढ़वाल तक फैला था ! भूराय्चा का सामंत सुहलदेव का छोटा भाई भुराय्देव था जिसने अपने नाम पर भूराय्चा दुर्ग इसका नाम रखा ! श्री देवकी प्रसाद अपनी पुस्तक राजा सुहलदेव राय मे लिखते है की भूराय्चा से भरराइच और भरराइच से बहराइच बन गया ! प्रो. के. एल. श्रीवास्तव के ग्रन्थ बहराइच जनपद का खोजपूर्ण इतिहास के पृष्ट ६१-६२ पर अंकित है – इस जिले के स्थानीय रीति – रिवाजो मे सुहलदेव पाए जाते है ! इस प्रकार अधिकतर प्रख्यात विद्वानों ने अपने अध्यन के फलस्वरूप सम्राट सुहलदेव को भर का शासक माना है ! काशी प्रसाद जयसवाल ने भी अपनी पुस्तक “अंधकार युगीन भारत” मे भरो को भारशिव वंश का क्षत्रिय माना है ! अर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के भाग १ पेज ३२९ मे लिखा है की राजा सुहलदेव भर वंश के थे !
महाराजा सुहलदेव का राज्य विस्तार
महाराजा सुहलदेव के बारे मे प्रसिद्ध है कि वे प्रतिदिन देवी पाटन स्थित शक्ति पीठ मे भगवती माँ के पुजना्र्थ जाया करते थे ! देवीपाटन मे उनका दुर्ग भी था ! श्रावस्ती पति सुहलदेव का शासन वर्तमान गोंडा, बहराइच, बस्ती खीरी व सिद्धार्थ नगर जनपद तक ही सिमित नहीं था ! वे दांगदून अर्थात हिमालय कि महा पर्वतमाला और शिवालिक पहाडियों के मध्य स्थित दांग घटी जो वर्तमान समय मे नेपाल देश के अधीन है के भी अधिपति थे ! श्रावस्ती के अतिरिक्त वर्तमान चदरा सुजौली, सिरसिया, देवीपाटन, रजडेवरा (गोंडा जनपद मे), तुलसीपुर, (दाड़,देवखुरी नेपाल) मे उनके सुदृढ़ दुर्ग थे ! खीरी लखीमपुर जनपद मे सरयू नदी कि एक धरा सुहेली के नाम से पुकारी जाति है ! राजा सुहलदेव की राज्य सीमा पश्चिम मे सुहेली (सरयू) तक विस्तृत थी तथा उपसीमांत नदी पर भी एक दुर्ग था !
महाराजा सुहलदेव के रक्षार्थ उनके सामंत जगमणि,बलभद्र्देव,रायकर्ण देव व भूराय देव कि नियुक्ति कि गई थी ! ये अंगरक्षक छाया कि तरह उनके साथ-साथ लगे रहते थे ! महाराजा सुहलदेव के मुख्य रूप से कुल मिलाकर ३१ सामंत थे ! जो जगह जगह पर दुर्गो पर रह कर अपने अपने क्षेत्र मे शासन व्यवस्था कि देख रेख करते थे ! सुहलदेव एक दूरदर्शी तथा महत्वाकांक्षी शासक थे ! सभी क्षेत्रो के राजस्व कि वसूली अपने अपने क्षेत्र के सामंतो को सौंप राखी थी ! विशेष विवादों को स्वंय सुहलदेव सुलझाते थे ! अपने अपने क्षेत्र कि व्यवस्था के लिए प्रति सामंत के पास कम से कम १५ हज़ार से २० हज़ार तक सैनिक अवश्य होते थे ! जो राज्य के आपत्ति के समय पर मिटने के लिए तैयार रहते थे ! सभी सामंतो के अपने अपने क्षेत्रो मे उनके खुद के गुप्तचर होते थे तथा राजा सुहलदेव के गुप्तचर पुरे राज्य मे फैले रहते थे ! विशेष सुचना गुप्तचर द्वारा सामंतो को या आवश्यकतानुसार सुहलदेव को दि जाति थी ! इतिहासकारों ने अपने अपने पुस्तको मे सामंतो के नाम कुछ भिन्नता के साथ इस प्रकार दिए है !
१. राय साहब २. राय रयब ३. अर्जुन ४. भग्गन उर्फ़ भीखन ५. गंग उर्फ़ नगरु ६. हरकन उर्फ़ हरगुन ७. शंकर उर्फ़ संगरु ८. बीरबल ९. जयपाल १०. श्रीपाल ११. हरपाल १२. उकरण उर्फ़ राम करण १३. हरखू १४. नरहर १५. भल्लर १६. जुधारी १७. नरायण उर्फ़ देव नरायण १८. दुल्ला उर्फ़ दल्लू १९. नरसिंह उर्फ़ नरखु २०. कल्याण ! इसके अतिरिक्त मुख्य सामंतो मे २१. जगमणि-सुजतागढ़ २२. अति विस्वास्पात्र कर्णदेव-कर्नगढ़ तुलसीपुर (कर्णदेव महाराजा सुहलदेव के छोटे भाई थे !) २३. बलभद्र्देव- निसानगढ़ दुर्ग २४. राय भरदेव – सवलोट दुर्ग (कही कही पर राय भरदेव को ही हरदेव लिखा है !) २५. मल्ह राय – मल्हीपुर दुर्ग २६. इचौल – इसौली गढ़ २७. भूरायदेव- भुरैच दुर्ग के सामंत थे !
इसके अतिरिक्त अशोकपुर, जरौली (जरवल), भरौली व रजदेवरा, दूगावं के विशाल दुर्ग पर भी अन्य सामंत थे ! भूरायदेव ने ही अपने नाम पर भुरैच दुर्ग बनवाया था ! जो बाद मे भूराइच से बहराइच हो गया ! बालार्क तीर्थ का उद्धार भूरायदेव ने किया था ! (भूरायदेव सुहलदेव के छोटे भाई थे !) ये सभी सामंत सुहलदेव के दिशा निर्देश पर शासन व्यवस्था चलते थे ! गढ़वाल वंशीय महाराजा चन्द्रदेव के समय श्रावस्ती पर महाराजा सुहलदेव के पौत्र महाराजा हरिसिंह देव शासन करते थे ! उस समय उत्तर भारत तुर्कों के आक्रमण का बार-बार शिकार हो रहा था ! अतः उन्होंने सुरक्षात्मक दृष्टी से अपनी मुख्य राजधानी श्रावस्ती के बजाय दांगदून के तुलसीपुर नगर (वर्तमान समय मे नेपाल के अंतर्गत राप्ती अंचल का मुख्यालय है ) मे स्थान्तरित कर दी! उक्त नगर उनके पूर्वजो के समय मे उपराजधानी हुआ करती थी !
महाराजा सुहलदेव से सम्बंधित एतिहासिक स्थल !
महाराजा सुहलदेव से सम्बंधित एतिहासिक स्थलों मे सुहेल नगर, रेलवे स्टेशन, सुहेलवा वन्य जीव विहार, चदरा का डीह, ओड़ाझार ननमहरा, अशोकपुर करदह आदि मुख्य: है !
सुहेलवा वन्य जीव विहार:
बहराइच का उत्तरी सीमा नेपाल से लगा हुआ है ! नेपाल के पहाड़ी क्षेत्रो के निचले भाग मे घने जंगल लगे हुए है ! उन्ही जंगलो से लगा हुआ बहराइच जनपद का क्षेत्र भी जंगलो से भरा पड़ा है ! यहाँ के जंगलो को सुन्दर व सुव्यवस्थित रखने के लिए वन विभाग ने यहाँ के वनों को दो भागो मे विभक्त कर दिया है !
१. पूर्वी वन प्रभाग मे प्राचीन सुहेलवा वन्य जीव विहार है ! सुहेलवा वन्य जीव विहार ४५ हज़ार हेक्टयर विशाल क्षेत्र मे फैला हुआ है !
२. पशिमी वन विभाग मे कर्तानिया घाट वन्य जीव विहार है ! यह उत्तर प्रदेश के दुसरे नम्बर का घड़ियाल प्रजनन केंद्र है !
महाराजा सुहलदेव अपने शासनकाल मे वन्य जीव विहार के नाम से कुछ जंगली क्षेत्र को विकसित कराये थे ! इस जंगल मे हर प्रकार के जानवर पाए जाते थे ! इसी वन को कालांतर मे सुहलदेव के नाम पर सुहेलवा वन्य जीव विहार कहा जाने लगा ! इस वन जीव विहार को उत्तर प्रदेश सरकार ने काफी विकशित कर दिया है ! गर्मियों मे सुबह सुहेलवा वन्य जीव विहार तथा उससे ऊपर हिमालय की पहाड़िया मन मोह लेती है !
सुहेलनगर
नाम से ही लगता है इस नगर का नामकरण महाराजा सुहलदेव के नाम से हुआ होगा ! पहले यहाँ सुहेलनगर रेलवे स्टेशन था परन्तु अब नहीं है ! सुहेलनगर चिताड़ा झील के किनारे एक एतिहासिक नगर है ! प्राचीनकाल मे ये मुनियों की तपस्थली थी ! राजा सुहलदेव स्मारक समिति ने यहाँ पर सुहलदेव जी का एक भव्य मंदिर तथा मूर्ति की स्थापना करवाया है ! इस स्थान पर प्रति वर्ष माघ के महीने मे बसंत पंचमी को मेला लगता है ! १० जून को हिन्दुओ द्वारा विजय दिवश भी मनाया जाता है !
अशोकपुर
यह स्थान परगना महादेव के अंतर्गत नगवा ग्राम सभा मे गोंडा से फ़ैजाबाद मार्ग पर स्थित है ! यहाँ पर पहले श्रावस्ती नरेश वीर सुहलदेव द्वारा निर्मित अशोकनाथ मंदिर था ! जिसके करण इस ग्राम का नाम अशोकपुर पड़ा ! कालांतर मे ये मंदिर तुडवा दि गई !
चदरा का डीह :
भारत नेपाल सीमा के निकट बाबागंज रेलवे स्टेशन से लगभग ३ कि. मी. कि दुरी पर चदरा के प्रसिद्ध किले का अवशेष व उसकी बिखरी हुई इटें आज भी देखे जा सकती है ! चदरा का डीह महाराजा सुहलदेव का किला माना जाता है ! चदरा का डीह उनके गौरबशाली इतिहास की गवाह है !
ओड़ाझार या झौआझार
यह स्थान श्रावस्ती से २ कि. मी. दूर पर ईट मिट्टी के पहाड़ी के आकार का विशाल स्तूप के रूप मे स्तिथ है ! जो आजकल ओड़ाझार कहा जाता है ! चीनी यात्री फाहयान के अनुसार इसी स्थान के पास ५०० अंधे बोद्ध भिक्षु रहते थे ! जिन्हें महात्मा बुद्ध ने दृष्टी प्रदान कि थी ! यहाँ के लोगो मे यह किम्वदंती है कि महाराजा सुहलदेव एक विशाल गगन चुम्बी राजभवन का निर्माण करा रहे थे ताकि उस पर चढ़ कर यही से अयोध्या के दर्शन किया जा सके ! इस निर्माण कार्य मे मिट्टी का कार्य करते समय जो मिट्टी टोकरी मे राह जाति थी सांयकाल मे इसी स्थान पर मजदुर टोकरी झाड़ते थे ! जिससे टोकरी झाड़ते झाड़ते उस मिट्टी से यहाँ एक बहुत ऊँचा टीला सा बन गया और इसका नाम झौआझार या ओड़ाझार रखा गया !
शोधकर्ता कनिघंम के अनुसार – यह ओड़ाझार का स्तूप ठोस मिट्टी का बना हुआ ७० फुट का है ! इसके ऊपर ईटो से निर्मित एक मंदिर है ! मंदिर का ताल धरती से ५५ फुट ऊंचाई पर एक वर्गाकार चबूतरे पर स्थित था ! जिसके हर सिरे कि लम्बाई २० फुट थी ! मंदिर कि ऊंचाई चबूतरे से ७० फुट थी ! अर्थात मंदिर का शिखर भूतल से १२५ फुट ऊँचा था ! महाराजा सुहलदेव के बिच मे ही स्वर्गवास हो जाने के करण राजभवन का निर्माण काम पूरा नहीं हो पाया ! बाद मे दुसरे राजाओ ने यहाँ पर मंदिर का निर्माण करवा दिया !
सीता दोहार
सीता दोहार को श्री रामचंद्र के पुत्र लव और कुश के जन्मस्थली होने का गौरव प्राप्त है ! सीता दोहार ३५० एकड़ क्षेत्र मे विस्तृत सुरम्भ झील का नाम है ! यह धार्मिक स्थल श्रावस्ती के उत्तर पश्चिम दिशा मे लगभग १४ कि. मी. कि दुरी पर टडवा महंत नामक ग्राम सभा मे स्थित है ! यहाँ पर महर्षि वाल्मीकि अपना आश्रम बनाकर रहते थे ! अयोध्या नरेश श्रीराम के द्वारा सीता का परित्याग कर दिए जाने के बाद सीता जी यही वाल्मीकि कि आश्रम मे रहती थी और यही पर लव और कुश को जन्म दिया था ! किम्वदंती है कि कि सीता जी यहाँ पर धरती माँ के गोद मे समाविष्ट हो गयी थी और जिससे यहाँ कि जमीन निचे धश गयी और एक विसाल झील बन गयी ! कालांतर मे सीता जी के नाम पर सीता दोहार के नाम से प्रशिद्ध हो गया !
ऐसा माना जाता है कि श्रावस्ती नरेश महाराजा सुहलदेव हिन्दू धर्म मे आगाध श्रद्धा और विश्वास रखते थे और इस करण इस जगह को उन्होंने अपने राजकोष के खर्चे से विकशित करवाया था और इस स्थल को तीर्थ स्थल का रूप दिलवाया था ! इसके किनारे एक जीर्ण शीर्ण वाल्मीकि मंदिर आज भी देखने को मिलता है ! सुहलदेव जी तथा उनके परिवार के लोग प्रायः यहाँ मनोरंजन के लिए आते थे और इस रमणीय स्थल का मजा लेते थे !
करदह
यह स्थान गोंडा जनपद के वजीरगंज से लगभग ४ कि. मी. कि दुरी पर परगना महादेवा मे स्थित है ! यहाँ पर लगभग ३० एकड़ जमीन मे एक तालाब है ! इस तालाब का निर्माण राजा सुहलदेव के ३१ सामंतो मे से एक कर्णदेव ने करवाया था ! राजा कर्णदेव के नाम पर इस तालाब का नाम कर्णदेव पड़ा था ! जो कालांतर मे बदलकर करदह हो गया ! राजा कर्णदेव कि दूसरी कृति देवीपाटन के समीप बना सूर्यकुंड है ! जँहा पर महाभारत काल के कर्ण ने किसी समय तपस्या की थी !
दो गाँव
यह ऐतिहासिक स्थल नानापारा तहसील से ७ कि. मी. कि दुरी पर स्थित है ! यह इस क्षेत्र का एक बड़ा शहर है और मध्यकालीन युग मे भारत मे और नेपाल के मध्य व्यपार का केंद्र रहा है ! महाराजा सुहलदेव के शासन काल मे यहाँ पर सिक्को कि टकसाल थी ! इतिहासकार अब्दुल फजल कि पुस्तक ‘ आईने अकबरी ‘ के अनुसार भी दो गावं मे ताम्बे की मुद्राओ की टकसाल थी |’