भाई डॉक्टर राम शरण गौड़ अग्रणी लेखक होने के साथ व्यवहार – कुशलता के भी अग्रदूत सदृश हैं। वे जब हिंदी अकादमी दिल्ली के सचिव थे , मुझे अकादमी के आयोजनों में याद किया करते थे। साथ ही स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले में आयोजित होनेवाले कवि सम्मेलन में दर्शक के तौर पर शामिल होने के लिए मेरे पास वी आई पी पास ज़रूर भेजवाते। यह दीर्घा कवियों के पास होती, जिससे उन्हें सुनने के साथ उनके दर्शन व उनकी भाव – भंगिमा देखने में भी काफ़ी आसानी हो जाती थी। गौड़ जी लगभग एक दशक तक सचिव रहे। उनकी दी हुई एक पुस्तक पिछले दिनों मुझे अपनी निजी लाइब्रेरी में मिली, तो यादों को विस्तार मिला। पत्रकारिता की अति व्यस्तता के कारण मैं इस पुस्तक पर कुछ नहीं लिख पाया था। इसकी एक वजह यह भी थी कि इसका शीर्षक मेरे लिए अत्यंत कष्टकारी था, इसलिए देखकर रख लिया। जबकि सुरंजन की अन्य कविताओं को मैं पढ़ता रहता था, किंतु यह भी सच है कि वे इस ” कोटि ” की कविताएं नहीं होती थीं। इस पुस्तक ने अपने शीर्षक से भी पाठकों के बीच धमक दी होगी।
सुरंजन की एक ज़माने की चर्चित कृति ” दुनिया की सबसे अच्छी लड़की ” ( काव्य – संग्रह ) को 2001- 2002 में हिन्दी अकादमी , दिल्ली द्वारा साहित्यिक कृति सम्मान से पुरस्कृत किया जा चुका है। अकादमी ने इसका दूसरा संस्करण 2003 में अपनी प्रकाशन योजना के अंतर्गत प्रकाशित किया, जो मेरे समक्ष है। यह मगध प्रकाशन , गाज़ियाबाद से प्रकाशित है।
96 पृष्ठीय यह पुस्तक अंग्रेज़ी लेखिका अरुंधति राय को समर्पित है।
” आत्मकथ्य ” – ” क्योंकि मैं राम नहीं हूं ” से पता चलता है कि इस पुस्तक का पहला संस्करण श्रीमती शोभना भरतिया और डॉक्टर नामवर सिंह को समर्पित किया गया था। लेकिन शोभना भरतिया और नामवर सिंह में से किसी ने सुरंजन के प्रति “रुख” नहीं किया, तवज्जो नहीं की,तो बात नहीं बनी। समर्पण बदल गया ! सवाल यह कि किसी रचनाकार को किसी या किन्हीं से इतनी अपेक्षा क्यों ? यदि कोई “महान” पीठ नहीं ठोंकेगा , तो उसका रचना कर्म मृत हो जाएगा क्या ? शोभना जी निरंजन को “हिंदुस्तान” में नौकरी क्यों दें ?
मैं अच्छे – अच्छे समाचार पत्र प्रतिष्ठानों को जानता हूं, जहां के संपादकीय विभाग में कवि को नौकरी नहीं मिलती, लेकिन कहानीकार, उपन्यासकार आदि को मिल सकती है। शोभना जी इसी पुरातन परंपरा पर अमल किया , तो क्या बुरा किया ? ऐसे में यह कहा जा सकता है कि मृणाल पांडेय यदि उपन्यासकार और कहानीकार न होतीं, तो भी “हिन्दुस्तान” की संपादक हो सकती थीं। वे संपादक होती हुई भी पत्र का संपादन निर्वाह नहीं कर पा रही थीं। उन्होंने एक टेलीफोन वार्ता में मुझसे कहा था कि पत्रकारिता में मेरी बहुत असहज स्थिति है। शायद वे संतुष्ट नहीं थीं इस पेशे से।
सुरंजन जी, नामवर सिंह के साथ पीने के कार्यक्रम में शामिल हुए, तो क्या इसके एवज़ में नामवर सिंह उनकी पीठ थपथपाएं ? थपथपा दें, तो कोई बात नहीं और न पीठ ठोकें, तो भी कोई बात नहीं।
सुरंजन फक्कड़ नहीं, मुंहफट कवि नहीं। लेकिन कुछ छिपाते भी नहीं ! वे गहरी और अदम्य जिजीविषा के कवि हैं। सच्चे कवि हैं। मौलिक कवि हैं। अपनी हर कविता के साथ मरते भी हैं और जीते भी। नामवर सिंह कहते हैं, ” जिसे निराला हज़ार मरण कहते हैं, कुछ लोग एक दिन मरते हैं, लेकिन कवि इस जीवन के रास्ते में रोज़मर्रा की ज़िंदगी के धक्के खाते हुए चलता है और रोज़ मरता है और धीरे से मैं कहूं – कविता मरण ही है।” इसलिए भी सुरंजन बार – बार मरकर भी जिजीविषा का अनुपम नज़ारा पेश करते हैं। अमृता प्रीतम कहती हैं कि यह मौत दारुण है, क़िस्तों में है ( पुस्तक के बैक पेज पर लगभग 24प्वाइंट में “क़िस्तों” को ” “किश्तों” को लिखा है, जो गलत है )…विधुर सूरज की रोशनी में विधवा कल्पना की सूरत देखी है, उन आंखों को दर्द मुबारक कहना चाहती हूं। अमृता जी सुरंजन के आंतरिक दर्द को समझा है, जो बड़ी अच्छी बात है।
सुरंजन बड़े सीधे- सपाट कवि हैं, जो अपनी व्यथा हर किसी से बयान करते हैं। अपनी कविताओं के बारे में ” मेरी कविताएं और मैं ” में बताते हैं, ” ज़िंदगी ! सारा मन का समर्पण जिस भी व्यक्ति को मिल जाए , वही देह के समर्पण का भी अधिकारी होता है।” यहां “सारा मन” अशुद्ध है, शुद्ध है “सारे मन”। इसमें प्रवाह है, अवरोध नहीं। सुरंजन की साफ़गोई कहती है, ” ज़िंदगी ! मेरे जीवन की कविता में कहीं कोई राजनीति नहीं… मैं तो सुनीति हूं, मुझे बस जिए हुए लम्हों पर केवल केवल कविता लिखना अच्छा लगता है।” ( यह “बस” और “केवल” एक ही वाक्य में आए हैं, जो अनुपयुक्त है) परन्तु क्या “दुनिया की सबसे अच्छी लड़की” कवि का भोगा हुआ यथार्थ है ? लगता है, यही है कवि का जीवन ! कवि के शब्दों में, गुज़रे अतीत का बयान हैं मेरी कविताएं !
जिसे राजनीति एक “भद्दी गाली” लगती हो, उसके बारे में कहा जा सकता है कि वह सुधार और परिमार्जन के सारे रास्ते भूल चुका है और जीवन की भुलभुलैया में खोया हुआ है। कोई व्यक्ति या रचनाकार दूसरों की देखादेखी और हिसकाबाज़ी के सहारे अधिक दूर तक नहीं चल सकता। अंततः ज़िंदगी टूटने लगती है और शीराज़ा बिखर जाता है। जो असल कवि होता है, उसकी कविताएं ऐसे मौक़ों पर ठीक से मुखरित होती हैं सुरंजन की कविताओं की तरह। तभी वे “हिन्दी कविता के पाठकों …” से मुखातिब होते हैं और समीक्ष्य को अपना छठा काव्य संग्रह बताते हैं और कविता को अपने जीवन का साध्य ! कवि को तलाश है “दुनिया की सबसे अच्छी लड़की” की, जो कविता को अपनी ज़िंदगी मानती हो, कविता ही उसका व्यक्तित्व हो। यही उसके जीवन का अभीष्ट है। उसकी यह तलाश उसके इसी जीवन में पूरी हो जाए, तो अत्युत्तम है।
96 पृष्ठों की समीक्ष्य पुस्तक पृष्ठ 16 तक कविता कह ही नहीं पाती। इस प्रकार बचे 80 पृष्ठ। इसके पूर्व ही देवेंद्र सत्यार्थी की एक कवितानुमा टिप्पणी भी आती है, जो इस पुस्तक से इतर बात है, लेकिन यह कवि की फनकारी ज़रूर दिखाती हैं, “इसे स्वीकार कर लो, नहीं” के बहाने। इससे पहले भी “तुम्हें नमन वीर सैनिकों” शीर्षक कविता है, जिसकी पेशकश इस प्रकार है कि पता ही नहीं चल पाता कि सुरंजन की है या देवेंद्र सत्यार्थी की ! कवि के हृदय में हर अच्छी चीज़ के प्रति फितरी कशिश है। उसे इस नन्हे जीव को उड़ते ही देखना पसंद करता है। वह जानता है कि ज़िंदगी है, तो सब कुछ है। वह सब कुछ पा जाएगा। शायद इसीलिए उसका उत्स ज़िंदगी को पकड़कर रखना है और टूटकर जीना है।
समीक्ष्य पुस्तक असल में ज़िंदगी से गुफ्तगू है, जिसमें कुल जमा 29 कविताएं हैं। कविताओं में ऐसी भी जो केवल 13 पंक्तियों पर ही अपना अस्तित्व रच देती हैं। पहली कविता 13 लाइनी है। इसमें कवि आरंभ में ही “उड़ना चाहता है”। कवि सशंकित है कि तितली पकड़े , तो कहीं वह उड़ना तो नहीं बंद कर देगी। फिर वह पकड़ता नहीं !
“सूखा पेड़” में पत्तों के बिना सूख रहे पेड़ को जीवन की नीरवता – नीरसता का प्रतीक माना गया है और आशा का संचार भी है कि नए पत्ते निकलेंगे। इस कविता की इस पंक्ति में खटक अवश्य है – ” जी रही है जीवन ज़िन्दगी “। ” एक दिन विदा होना है” अच्छी है। कवि जीवन का यथार्थ स्वीकार करने में विलंब नहीं करता –
“कभी न कभी
किसी न किसी दिन
यह तो तय है ज़िंदगी
तुम्हें कहीं न कहीं जाना है।”
इस लंबी कविता में पुनरुक्त दोष है –
“यहां मैं ख़ूब – ख़ूब महसूस रहा हूं
कि किस तरह व्यतीत होंगे
धीरे – धीरे
शनैः – शनैः”
यहां मैं उर्दू वाले बिंदुओं की बात नहीं करता। “खूब” को मैंने ही यहां “ख़ूब” किया है। ऐसे बहुतेरे शब्द हैं। बार बार आई हुई “जिंदगी” कहीं भी “ज़िंदगी” नहीं बन पाई। कहते हैं, यह हिन्दी है, सब कुछ चलता है !? विवशता अलग है, अपवाद है।
” अपना चेहरा ?” का गढ़न अति उत्तम है। भाव ख़ूबसूरत है। भारतीय नारी की नैसर्गिकता की खोज है –
” कहां खो गई है
कहां दफ़न हो गई है
तुम्हारे भीतर वाली वह लड़की ( ? )
वह भारतीय नारी ( ?? )”
” क्षमारहित अपराध ” बेजोड़ है। यहां क्षमा प्रार्थनीय नहीं। सब मुक्त है, स्वतंत्र है। क्षमा ही क्षमा है। देखिए इन पंक्तियों को –
” यह लो ” क्षमा ” …( ! )
इसे खाओ या पियो
इसे ओढ़ो या बिछाओ
कोई फ़र्क नहीं पड़ता
क्योंकि
मन का तो स्वतंत्र अस्तित्व है ( ! )
” एक गलत निर्णय ” जीवन के झंझावातों के बीच एक खोज है जीवन की। कवि कहता है –
” इतना बहा है नीर जल
कितना तुम्हें पिलाएं
और इसके बावजूद ज़िंदगी
मन है कि रेखाएं खींच रहा है।”
वास्तव में सुदर्शन का जीवन एक कविता है, जिसे वे और ख़ूबसूरत बनाना सबसे अच्छी कविता के सहारे, जिसे वे लड़की नाम देते हैं। निश्चय ही इस नामकरण में उनसे भारी चूक हुई है। उन्होंने इस बात समझा ही नहीं कि स्त्री और पुरुष दोनों पृथक अस्तित्व वाले प्राणी हैं। अतः अधिक भ्रम पालना कवि के लिए भी अच्छा नहीं और अन्यों के लिए भी। इस विषय की निष्णात हस्तियों ने यह माना है कि कोई श्रेष्ठ और न्यून नहीं, सुंदरता में भी। बस खोज की प्राथमिकता का प्रश्न है। ऐलन और बारबरा पीज का मानना है कि ” स्त्री व पुरुष अलग हैं। न बेहतर और न बदतर, लेकिन वे अलग हैं। विज्ञान यह जानता है, लेकिन राजनीतिक रूप से सही बात कहनेवाले इसे नकारने के लिए सब कुछ करते हैं। सामाजिक व राजनीतिक दृष्टिकोण कहता है कि स्त्री – पुरुष के साथ बराबरी का बर्ताव किया जाना चाहिए, जो कि इस अजीबोगरीब सत्यता पर आधारित है कि दोनों एक जैसे हैं। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वे एक जैसे बिल्कुल नहीं हैं।” ( ” पुरुष क्यों नहीं सुनते और महिलाएं क्यों नहीं समझतीं ?” )
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