मोदी सरकार की आर्थिक सुधारों के प्रति प्रतिबद्धता अब सबके सामने है | मुद्रास्फीति का नियंत्रण हो या निवेश – वातावरण में सुधार हो या आम परिवारों पर पडऩे वाले वित्तीय बोझ को कम करने एवं सकल घरेलू बचत को प्रोत्साहित करने की बात, इन सभी मोर्चों पर मोदी सरकार से विगत लगभग साढ़े पांच वर्षों में कुछ ख़ास नहीं हो पाया | भारत सरकार का क़र्ज़ बढ़ता ही जा रहा है | कुछ समय पहले यह 82 लाख करोड़ रुपए था | वित्त मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि जून 2014 में सरकार का कुल क़र्ज़ 5490763 करोड़ रुपए था, जो सितंबर 2018 में बढ़कर 8206253 करोड़ रुपए हो गया | इस दौरान पूर्व वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बार – बार यही कहा कि सरकार आर्थिक सुधार और वित्तीय पुनर्गठन को लेकर पूरी तरह प्रतिबद्ध है। अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाना और निवेश वातावरण को सुधारना उनकी प्राथमिकता है। इसके साथ ही देश में औद्योगिक विनिर्माण लागत को कम करना भी उनकी प्राथमिकता होगी, लेकिन ऐसा हो न सका | अब यह काम निर्मला सीतारमण के ज़िम्मे है, जिनके कार्यकाल में ही यह निराशाजनक ख़बर आई है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वैश्विक रैंकिंग में भारतीय अर्थव्यवस्था फिसलकर सातवें स्थान पर आ गई है। वर्ष 2018 के लिए विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, जीडीपी के मामले में ब्रिटेन और फ़्रांस क्रमश: पांचवें और छठे स्थान पर पहुंच गए हैं। साल 2017 में भारत ब्रिटेन को पछाड़कर पांचवें स्थान पर पहुंच गया था। इस सूची में अमेरिकी शीर्ष पर है। डॉलर की तुलना में रुपये के लगातार कमज़ोर होने से भारत को ज़ोरदार झटका लगा है। अमेरिका की अर्थव्यवस्था वर्ष 2018 में यूएस की जीडीपी 20.5 लाख करोड़ डॉलर (ट्रिलियन डॉलर) रही। अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर चीन है। इस दौरान चीन की जीडीपी 13.6 लाख करोड़ डॉलर की रही। जापान पांच लाख करोड़ डॉलर की जीडीपी के साथ तीसरे स्थान पर है, जबकि जर्मनी चार लाख करोड़ डॉलर के साथ चौथे स्थान पर | ज़ाहिर है, भारत के एक पायदान नीचे फिसलने की वजह रुपये की कमजोरी है। वर्ष 2018 में डॉलर की तुलना में रुपया पांच फ़ीसदी कमज़ोर हुआ था। डालर के मुक़ाबले रुपया अगर एक रुपया टूट जाता है, तो देश की तेल कंपनियों पर आठ सौ करोड़ का अतिरिक्त बोझ पड़ता है | भारत तेल ज़रूरतों का 75 फीसदी से अधिक आयातित करता है। तेल कंपनियों को हर माह कच्चे तेल के आयात के लिए 50 हजार करोड़ रुपये की ज़रूरत पड़ती है। सच है कि जीडीपी विकास दर के घटने के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ा है। वर्ष 2017 में डॉलर के मुकाबले रुपया तीन फ़ीसदी मजबूत हुआ था और अर्थव्यवस्था 2.65 लाख करोड़ डॉलर पर पहुंच गई थी। इससे 2017 में भारत उछलकर छठवें स्थान पर पहुंच गया था। देश की अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने के लिए विशेषकर सामाजिक और ग्रामीण विकास के क्षेत्र में काफ़ी कुछ करना होगा | कृषि क्षेत्र को ब्याज मुक्त ऋण प्रदान करने के लिए गंभीर होना चाहिए |
सामाजिक विकास की योजनाओं के लिए आवंटन बढ़ाने के साथ – साथ भ्रष्टाचार पर प्रभावी रोकथाम के तरीक़े ढूंढे जाने चाहिए | देखा जा रहा है कि निजीकरण से जनता की परेशानियां बढ़ी हैं | शिक्षा और स्वास्थ्य में निजी क्षेत्र की बढ़ती भूमिका से इन सेवाओं का ख़र्च तेज़ी से बढ़ रहा है, जिससे ये सेवाएं आम लोगों की पहुंच से बाहर हो रही हैं। इसलिए सरकार को चाहिए कि देश की जीडीपी का छह प्रतिशत शिक्षा पर और तीन प्रतिशत स्वास्थ्य पर व्यय करे | किसान आत्महत्याओं के बहुत – से मामलों को कृषि क़र्ज़ से जोड़ा जाता है, जबकि सरकारें वसूल न होने लायक़ क़र्ज़ और उस पर ब्याज को माफ़ करती रही हैं। इसलिए भी किसानों को ब्याज मुक्त कर्ज की उपलब्धता एक अच्छा समाधान हो सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों से मेट्रों और शहरों की ओर जन -विस्थापन को रोकने के लिए भी कारगर क़दम उठाना चाहिए | बिजली , स्वास्थ्य रक्षा से जुड़ी सेवाओं और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता के ज़रिए सुनिश्चित संभव सीमा तक विस्थापन रोका जा सकता है | यह कटु सच्चाई है कि हमारे देश में कृषि और औद्योगिक क्षेत्रों में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो पा रही है | हालत यह है कि इन क्षेत्रों में आर्थिक वृद्धि दर लगातार घट रही है |
किसानों की बढ़ती आत्महत्याएं हमारी अर्थव्यवस्था को लगातार प्रभावित करती हैं |
ब्याज पर आधारित क़र्ज़ ने किसानों को बहुत तबाह कर डाला है | कृषि उत्पादों की मुनासिब क़ीमत का न मिलना किसानों की बड़ी समस्या रही है | इसे एक मिसाल से यूँ समझ सकते हैं | गन्ना किसानों को उचित भुगतान न मिलने की पुरानी शिकायत है, जो किसी भी गन्ना उत्पादक राज्य में अभी तक दूर नहीं हो पाई है | इस पर भी कथित आर्थिक सुधारों के प्रबल हिमायती सी. रंगराजन की अध्यक्षता में बनी छह सदस्यीय समिति ने चीनी उद्योग को पूरी तरह नियन्त्रणमुक्त करने की सिफ़ारिश की थी, जिसकी कुछ सिफ़ारिशें मानकर सरकार देश के किसानों की मुसीबतें बढ़ा रही है |
समिति ने सिफ़ारिश की है कि राज्य सरकारों द्वारा गन्ने का समर्थन मूल्य घोषित करने की व्यवस्था समाप्त कर देनी चाहिए और गन्ने की कीमतें मिलों और किसानों के बीच तय होनी चाहिए | अगर ऐसा हुआ , तो बहुत आशंका है कि गन्ने की कीमतें बहुत घट जाएं | वास्तव में हमें खेती को बदलने के लिए एक क्रांति की जरूरत है | प्रख्यात अर्थशास्त्री डी .के . जोशी कहते हैं, ‘सुधारों की प्रक्रिया ने कृषि क्षेत्र की उपेक्षा की है | बढ़ती महंगाई बता रही है कि यह क्षेत्र अपनी क्षमता के लिहाज़ से प्रदर्शन नहीं कर रहा | बजट दर बजट इसके हल के लिए केवल छोटे क़दम ही उठाए गए | हमें हरित क्रांति जैसे किसी बदलाव की जरूरत है | ‘ मगर यहाँ तो चिंता अमीर वर्ग के हितों की होती है ! देश के बुनियादी ढांचे में सुधार का सवाल भी बड़ा अहम है | यह क्षेत्र भी भयानक संकट का सामना कर रहा है | सड़क, बिजली, पानी का बुरा हाल है | नौकरशाही की लापरवाही और भ्रष्टाचार ने इस बुनियादी क्षेत्र को बहुत बिगाड़ दिया है | अक्सर यही होता है कि पैसा आता भी है, तो उसमें का अधिकांश बिना इस्तेमाल हुए ही वापस चला जाता है | चाहे वह सड़क बनाने वाला लोकनिर्माण विभाग हो या अलग-अलग राज्यों के बिजली और जल बोर्ड, सभी प्रक्रियाओं की जटिलता में फंसे हैं | ये सभी संस्थाएं बुनियादी सुविधाओं को विकसित करने के लिए बनाई गई थीं, लेकिन इनका अच्छा प्रदर्शन सुनिश्चित करने की कोई व्यवस्था नहीं है ! बजटों में अक्सर इस हकीक़त से जूझने की किसी रणनीति का साफ़ अभाव दिखता रहा है | देश में बेरोज़गारी बेतहाशा बढ़ रही है | काम न मिलने से युवाओं में कुंठा और निराशा समा रही है, जो किसी भी देश और समाज के लिए ख़तरे की घंटी है | कहते हैं कि बीस वर्षों में सबसे अधिक बेरोज़गारी हाल के वर्षों में थी | अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ लिबरल स्टडीज ने कुछ समय पहले देश में बढ़ती बेरोज़गारी पर ‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया- 2018’ नामक जो रिपोर्ट जारी की उसके आंकड़े बेहद चौंकानेवाले थे | आज भी स्थिति चिंताजनक है | जो रिपोर्ट जारी की गई थी, वह श्रम ब्यूरो के पांचवीं वार्षिक रोजगार-बेरोजगारी सर्वेक्षण (2015-2016) पर आधारित थी | श्रम मंत्रालय की रिपोर्ट में यह बात कही गई है कि कई सालों तक बेरोज़गारी दर दो से तीन प्रतिशत के आसपास रहने के बाद साल 2015 में पांच प्रतिशत पर पहुंच गई, जबकि युवाओं में बेरोज़गारी की दर 16 प्रतिशत तक पहुंची | स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया- 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक़, 2015 में बेरोज़गारी दर पांच प्रतिशत थी, जो पिछले 20 वर्षो में सबसे अधिक देखी गई | रिपोर्ट में बढ़ती बेरोज़गारी को भारत के लिए नई समस्या बताया गया था |. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से 2015 के बाद से समग्र रोज़गार की स्थिति पर कोई आंकड़ा भी नहीं जारी किया गया है | सेंटर फॉर मॉनीटरिंग द इंडियन इकोनॉमी जैसे निजी स्रोतों के उपलब्ध आंकड़ों से पता चलता है कि रोज़गार का सृजन कमज़ोर ही बना रहेगा | रिपोर्ट में यह चिंताजनक बात भी कही गई था कि देश में अंडर एंप्लॉयमेंट और कम मज़दूरी भी समस्या है, तो दूसरी तरफ उच्च शिक्षा प्राप्त और युवाओं में बेरोज़गारी की दर 16 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है | रिपोर्ट के अनुसार, देश के उत्तरी राज्य जैसे- उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश आदि इससे सबसे अधिक प्रभावित हैं, हालाँकि पूरा देश इसकी चपेट में है | भारतीय अर्थव्यवथा राजकोषीय घाटे की वजह से भी ख़स्ताहाली की शिकार है | इस घाटे को कम करने का जो दावा किया जाता रहा है, उस पर कोई जागरूक व्यक्ति विश्वास नहीं कर सकता ! कुछ वर्ष पहले पूर्व तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने एक यथार्थपरक बात यह कही थी, मगर न तो वे खुद उस पर अमल कर सके और न ही किसी और न उनकी बात पर ध्यान दिया | उन्होंने देश की बदहाली को दूर करने की खातिर अतिसंपन्न लोगों से अधिक कर वसूलने की वकालत की थी | उन्होंने कहा था कि कुछ खास मौकों पर सरकार को अमीरों पर ज्यादा कर लगाने पर विचार करना चाहिए, जिसको विप्रो के मालिक अज़ीम प्रेमजी इस सुझाव को राजनीतिक रूप से सही ठहराया था | वहींऔद्योगिक संगठनों ने सरकार से इस पर विचार नहीं करने का आग्रह किया था | वैसे अमीरों से अधिक वसूली का सुझाव सबसे पहले प्रधानमंत्री के पूर्व आर्थिक सलाहकार सी. रंगराजन ने दिया था | मोदी सरकार को इस सुझाव पर भी विचार करना चाहिए | साथ ही आम आदमी को अगर बेरोज़गारी, ग़रीबी और महंगाई से किसी हद तक राहत मिल जाती है , तो निस्संदेह यह सरकार की बड़ी उपलब्धि होती है , लेकिन लगता है कि सरकार इस दिशा में कुछ ख़ास करने नहीं जा रही है | विकास के जिस रास्ते पर चलने का दावा सरकार द्वारा बार – बार किया जाता है , उसे अमली जमा ज़रूर पहनाया जाना चाहिए | अब हरित – क्रांति की बात आई – गई हो गयी | ऊपर से कृषि कार्यों की लागत में लगातार वृद्धि और अनुदानों को कम करने के क़दमों तथा मुक्त व्यापार वाले आर्थिक सुधारों ने खेती को तेज़ी से घाटे का पेशा बना दिया है !.वास्तव में खेती – किसानी का संकट बहुत गहराता जा रहा है | हमारा देश ग्राम प्रधान देश है , इसलिए कहा जाता है कि देश की आत्मा गांवों में बसती है | अतः देश की ग़रीबी में कमीबेशी का सीधा प्रभाव ग्रामीणों पर पडता है | देश की लगभग130 करोड़ आबादी में से गांवों में रहनेवाले 70 फीसद लोगों के लिए ग़रीबी जीवन का कड़वा सच है | यह बात भी सच है कि ग्रामीण भारत उससे अधिक ग़रीब है, जितना अब तक आकलन किया गया था | झूठे सर्वेक्षणों से बार – बार ग्रामीण भारत की भी ग़लत तस्वीर सामने आती रही है | अतः सरकार को चाहिए कि वह देश को अर्थव्यस्था को पटरी को लाकर उसे गतिमान बनाए |
– Dr RP Srivastava , Editor-in-Chief, ”Bharatiya Sanvad”
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