हमारे देश में गरीबी के आंकडे बड़े भयावह हैं | इन आंकड़ों की असलियत और सच्चाई पर बार – बार उठनेवाले सवालों के बावजूद देश की गरीबी और बदहाली को छिपाया नहीं जा सका है | सर्वेक्षणों में यह बात नुमायाँ तौर पर सामने आयी है कि 1991 में तत्कालीन कांग्रेस नीत केंद्र सरकार ने जो आर्थिक उदारीकरण प्रक्रिया शुरू की थी , उसका गरीबी बढ़ानेवाला घातक परिणाम आज ही सामने आ रहा है , क्योंकि किसी भी सरकार ने इस पर रोक नहीं लगाई है |भाजपा जब केन्द्रीय सत्ता से बाहर थी , तो उदारीकरण के विरुद्ध बोलती थी , लेकिन सत्ता पाते हीउसकी बोलती बंद ही नहीं हो गई |उसके ख़ुद के क़दम प्राथमिकता के साथ उदारीकरण की ओर ही बढ़े !अब तो जिस उद्देश्य के लिए उदारीकरण लागू किया था , पूंजीवाद ने उसे बख़ूबी हासिल कर लिया है | हमारा देश ग्राम प्रधान देश है , इसलिए कहा जाता है कि देश की आत्मा गांवों में बसती है | अतः देश की गरीबी में कमीबेशी का सीधा प्रभाव ग्रामीणों पर पडता है | देश की 125 करोड़ आबादी में से गांवों में रहनेवाले 70 फीसद लोगों के लिए गरीबी जीवन का कडुवा सच है | यह बात भी सौ फीसद सच है कि ग्रामीण भारत उससे अधिक गरीब है , जितना अब तक आकलन किया गया था | झूठे सर्वेक्षणों से बार – बार ग्रामीण भारत की भी गलत तस्वीर सामने आती रही है | एक सर्वेक्षण के अनुसार , ग्रामीण क्षेत्रों में कमानेवाले लोगों में से 75 फीसद की महीने भर की अधिकतम आय पांच हज़ार रूपये से अधिक नहीं है | 51 फीसद परिवार मानव श्रम पर निर्भर हैं | यही उनकी आय का प्राथमिक स्रोत है |
हमारे देश के ग्रामीण विकास के जो भी बढ़ – चढ़ कर दावे किए जा रहे हैं , उनमें अधिक सच्चाई नहीं है | सर्वेक्षण में पाया गया कि विगत वर्षों में विकास की चाहे जितनी बातें हुई हों , गांवों में गरीबी की जडें गहरी बनी हुई हैं | उल्लेखनीय है कि मुख्यधारा के अर्थशास्त्रियों और नीति – निर्धारकों ने ग्रामीण गरीबी को ढांकने – छिपाने की नाकाम कोशिश की है ! सुप्रीमकोर्ट ने 2011 में इन्हीं आंकड़ों पर सवालिया निशान लगाया था और पूछा था कि गरीबों की संख्या निर्धारित करने के क्या आधार हैं ? इससे पहले किसी ने कृत्रिम रूप से नीचे रखी गई गरीबी रेखा कभी उँगली नहीं उठाई थी | उस समय तत्कालीन योजना आयोग उन लोगों को गरीब बता रहा था , जो शहरी इलाक़ों में रोज़ाना 17 रूपये और ग्रामीण इलाक़ों में रोज़ाना 12 रूपये खर्च कर रहे थे | शीर्ष अदालत ने कहा था कि ‘ यहाँ दो भारत नहीं हो सकते |’
अदालत ने ये तीखी टिप्पणियां पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज की जनहित याचिका की सुनवाई करते समय कीं थीं। उसने हरेक राज्य में बीपीएल परिवारों की संख्या 36 फीसदी तय करने के पीछे योजना आयोग के तर्को को जानना चाहा था । शीर्ष कोर्ट ने जानना चाहा कि 1991 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर 2011 के लिए यह प्रतिशत कैसे तय कर लिया गया ? वास्तव में यह सवाल बार – बार खड़ा होता है कि एक ओर देश तरक्की कर रहा है , दूसरी ओर गरीबों की संख्या काबू में क्यों नहीं आ पा रही है ? वर्तमान सदी में विकास के तमाम आयाम छूने के बाद भी गरीबी और अमीरी के बीच की खाई बढ़ी है। दुनिया के दो सबसे बड़ी आबादी वाले देशों भारत और चीन में अमीरी और गरीबी का फासला बढ़ा है। हालांकि ये उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं हैं। इसके बाद भी गरीबी और अमीरी का अंतर बेहद आश्चर्यजनक है |अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत और चीन में तेज आर्थिक-प्रगति और गरीबी तेजी से घटने के साथ-साथ लोगों के बीच आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ी है। वैसे भी देश में अमीरी-गरीबी को लेकर पहले भी कई सर्वेक्षण आते रहे हैं।
पहले की अर्जुन सेन गुप्ता समिति की रिपोर्ट में भी इन हालात पर गंभीरचिंता जताई जा चुकी है। गुप्ता की रिपोर्ट में कहा गया था कि तेजी से हो रही आर्थिक प्रगति के बहुत से सालों के गुजरने के बाद भी देश में 77 फीसदी आबादी हर रोज 20 रुपये से कम के खर्च में अपना गुजारा चलाने को मजबूर है। रिपोर्ट में इसका बड़ा कारण खेती का लगातार फायदेमंद साबित नहीं होना और देश के श्रमबल का 86 फीसदी हिस्से का अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र में होना कहा गया था। इतना ही नहीं इसमें काम की स्थितियों से लेकर मजदूरी तक का मामले और नियोक्ता की मनमर्जी की बात को भी इस गैर आर्थिक असमानता का जिम्मेदार बताया गया। समिति ने यह भी कहा था कि गरीबों में सर्वाधिक लोग अनुसूचित जाति-जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल लोगों और मुसलमानों की है।
यह रिपोर्ट जीडीपी की दर पर आधारित तेज आर्थिक विकास की पोल खोल रही थी। इसके बाद इस रिपोर्ट पर कुछ दिनों की चर्चा के बाद भुला दिया गया। अब आलम यह है कि जीडीपी के आंकड़ों पर बनी विकास की अवधारणा को सबसे चमकदार और सभी के लिए लाभदायी कहने वाली सरकार ने साल 2014 में कह दिया कि देश में गरीबों की संख्या साल 2004-05 के 40.74 करोड़ से घट कर 2011-12 में सिर्फ 27 करोड़ रह गयी है। विश्वबैंक ने तो गरीबी की गणना की अपनी नयी व्याख्या के द्वारा इस गरीबों की संख्या और कम करनी चाही। पर इन सब के बीच यह भुला दिया गया कि भारत में गरीबी रेखा से नीचे होने के लिए जो मानक तय किये गये हैं, वे असल में भुखमरी की हालत में होने को बताते हैं। – Dr RP Srivastava