उपन्यास को मैं एक अति क्रांतिकर विधा मानता हूं। इसका कारण केवल शिल्पगत एवं कल्पना-चित्रों के आमूल परिवर्तनों को नहीं समझना चाहिए, अपितु इसकी प्रभावकारिता में दिन-प्रतिदिन पैनापन का सहज रूप से आना है। उपन्यास चाहे वह किसी भी भाषा का हो, अब नायक नायिका के पारंपरिक मिलन-वियोग तक सीमित नहीं, ग़ज़लों की भांति इसने अपना वह यथार्थशील कैनवास तलाश लिया है, जो विधाई कशमकश से दूर रहकर अपनी इंफिरादी पहचान कराता है। वह उसे उस दुनिया में भी ले जाता है, जहां प्रेम बाधारहित भी हो सकता है और भावना के आधार पर परवान चढ़ता है। गंभीर मंतव्य एवं अभिप्राय का निरूपण प्रतीकात्मक अथवा व्यंग्यात्मक रूप में होना आज के उपन्यासों की सहज विषय वस्तु है। यह कहना अनुचित न होगा कि उपन्यासों में दर्शनिकता और वैज्ञानिक अध्ययनों के साथ ही आंचलिकता उसके कैनवास को विस्तार देता है। ये बदलाव यूं ही नहीं आ गए, अपितु इसमें काफ़ी समय लगा।
उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दियों में उपन्यास रचना ने नए सोपान तय किए और अपनी यथार्थशीलता एवं संवेदना शक्ति को काफ़ी बढ़ाया। आमजन के दुख दर्द और उनके मनोभावों व रहन-सहन को कल्पना के सहारे चित्रित करने का सिलसिला बढ़ा, जो आगे चलकर दलित रचनाकारों को भी ऐसे सृजन के लिए प्रेरित किया। समीक्ष्य उपन्यास “मामक सार” में भी दलित जीवन की बानगी पेश की गई है, हालांकि इसके कृतिकार अख्लाक अहमद ज़ई दलित रचनाकार के zuमरे में नहीं आते, फिर भी पता नहीं क्यों अपनी इस कृति को दलित साहित्य में लिखवाना चाहते हैं ? वे “अपनी बात” में अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए कहते हैं –
“मामक सार” एक दलित साहित्य के अन्तर्गत आने वाली रचना हो सकती थी, पर इसे यह मान्यता नहीं मिलेगी । कारण, दलित साहित्य वही हो सकता है जिसे किसी दलित रचनाकार ने लिखा हो अर्थात जिसने अस्पृश्यता की वेदना को झेलकर सृजन किया हो । दलित विद्वानों ने दलित साहित्य को एक दायरे में बांध दिया है जिसमें दलित साहित्यकारों के अतिरिक्त अन्य जाति एवं धर्म के साहित्यकारों का प्रवेश निषेध है। यदि किसी ने उस सीमा-रेखा का अतिक्रमण करने की कोशिश भी की तो उसे दलित
साहित्य के दायरे से बाहर धकेल दिया जायगा । लेकिन दलितों के आन्तरिक अनुभवों के अतिरिक्त भी एक बाहरी दुनिया है जहाँ लोग उनके बारे में सोचते और महसूस करते हैं। ऐसे में उनकी सोच को सिरे से खारिज करना क्या उचित है? यह दलित विद्वानों के लिए विचारणीय प्रश्न है । दरअसल दलित साहित्य का स्वर ब्राह्मणवाद एवं सामन्तवाद के खिलाफ नहीं है बल्कि उनके दमनात्मक जातिगत व्यवस्था को बनाए रखने वाली व्यवस्था के खिलाफ है।”
दलित साहित्यकारों की मानसिकता पर ऐसी टिप्पणी से असहमत भी हुआ जा सकता है, क्योंकि मुद्राराक्षस और रमणिका गुप्ता के साहित्य को दलित स्वयं अपना साहित्य तस्लीम करते हैं, जबकि ये दोनों रचनाकार दलित नहीं हैं। ऐसे ही बच्चन सिंह, सत्य प्रकाश असीम आदि के उपन्यासों में दलित व्यथा है, जिनका उल्लेख दलित लेखक करते हैं। मैं “मामक सार” ( लघु उपन्यास ) को विशुद्ध दलित संचेतना पर आधारित रचना नहीं मानता। मगर यह सच है कि इसके पात्र अपनी-अपनी भूमिकाएं निबाहते हुए नाकामयाबी का दामन अवश्य थाम लेते हैं। जैसा कि लेखक ने कहा है – ” मामक सार” संपूर्ण असफल चारित्रिक रचना है। इस उपन्यास का हर पात्र अपने – अपने दायरे में संघर्षरत तो है ही, पर सफ़लता मिलेगी या नहीं यह तय नहीं है।”
“मामक सार” लेखक का पहला उपन्यास है, जो कई दृष्टियों से सफल है। इसमें दलित आयाम के विविध पक्ष तो उजागर हुए ही हैं, जिजीविषा की भी भरपूर दास्तान मौजूद है। अनेक संघर्षों और बिंबात्मक चित्रों का सफल अंकन है। बहुत से पात्र हैं। सबको अपनी-अपनी पड़ी है। सभी अपने करतब दिखाने को आतुर व व्यग्र दिखते हैं। ये समवेत केवल संघर्ष के मुद्दे पर होते हैं। दलित वर्ग से ताल्लुक़ रखनेवाला दीपचंद जब चीनी मिल के शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाता है, तो उसका भाषण शफीक लिखवाता और दुरुस्त करता है। दीपचंद जनाधिकारों के लिए लड़ता है, पर सिस्टम उसे फांस ले जाता है, जिसके कारण वह पलायन के लिए मजबूर हो जाता है और संघर्ष की राह छोड़ बैठता है। उसके स्थान पर अंसारी नेता के रूप में बाज़ी मार ले जाता है।
लेकिन दीपचंद की उठान ज़ोरदार होती है। उसके संघर्ष और जुझारूपने की एक बानगी उसके एक भाषण में देखिए, जो उसने अपने मित्र से लिखवाकर कंठस्थ कर लिया था –
“साथियों, भारत किसानों का देस है। यहां की अस्सी प्रतिसत जनता गांव में बस्ती है और माटी से मोती उगाती है । पर कभी आप लोगों ने सोचा कि अनाज | के दानों के बदले इन मुट्ठी भर पूंजीपतियों के ऊपर आसरित सरकार ने आस्वासन के चन्द घूंट पिलाने के अतिरिक्त आप सबको क्या दिया ?…. किसान आज भी भूखा है। उसका बच्चा रोटी के लिए आज भी तरस रहा है और यह काले गोदाम के रखवाले सफेद चोर, किसानों के पसीने से सींचा अनाज ढो-ढोकर अपने काले गोदाम भरते रहे हैं। लेकिन किसान की डेहरी में मुट्ठी भर अनाज इसलिए छोड़ जाते हैं ताकि किसान का बेटा जिन्दा रहे और अपने बाप के बाद भी हमारे काले गोदामों को भरता रहे।…. नहीं-नहीं, ऐसी जिन्दगी नहीं चाहिए जो मुझे और मेरी आने वाली पीढ़ी को जुता हुआ बैल बनाये रखे। अब बात हद से बाहर हो चुकी है । अब यह नाटक बन्द होना ही चाहिए !”
उसके शब्द यहीं नहीं रुकते –
“साथियो ! सोचो, इन पूंजीपतियों के पास इनका क्या है ? हम इन्हें कपड़ा देते हैं, हम इन्हें रोटी देते हैं। इन मिलों की ऊंची-ऊंची चिमनियों से निकलता हुआ धुंआ, ये खड़खड़ाती हुई मसीनें, सड़कों पर दौड़ती हुई रंग-बिरंगी चमचमाती हुई कारें, टी. वी., ये ऐसो – आराम के सामान किसने दिये ? यह सब हम मजदूरों, किसानों की देन है, हमारे मेहनतकस हाथों की देन है ।…. अब इस पहेली को हल करने का वक्त आ गया है, इसलिए क्यों नहिं बढ़कर अपने अधिकार छीन लेते हो ?” (पृष्ठ 54, 55 )
पूरे उपन्यास में रोचकता बनी रहती है। संवाद चुटीले होने के साथ धारदार हैं। कहीं-कहीं इनमें अशिष्ट शैली भी आई है और संवाद सतही बने हैं, जो परिस्थितिजन्य कारणों से उपन्यास की मांग भी हो सकते हैं ( पृष्ठ 7, 47,59 आदि )। 73 पृष्ठीय इस उपन्यास में प्रूफ की गलतियां भी हैं, उर्दू उच्चारण का खयाल नहीं रखा गया है। शमीम एक लड़की का नाम रखा गया है, जो अनुचित लगता है, किंतु जब अब्दुल बिस्मिल्लाह नाम के रूप में चल सकता है, तो शमीम क्यों नहीं ? शमीमा तो शैक्षिक तौर पर उन्नत समाज में नाम होता। वही दूसरी ओर शादी में ईजाबो कुबूल के प्रति बेदारी उसकी बौद्धिकता को भी दर्शा जाती है, जब वह कहती है –
“मेरी मर्ज़ी भी तो शामिल होनी चाहिए। फिर हमारे यहां ऐसी शादी हराम है।”( पृष्ठ 64 )
इस सिलसिले की और भी प्रमाणिक हदीसें हैं, मगर पता नहीं क्यों इस तथ्य को उभार दिया गया है ? जबकि इसका व्यावहारिक पक्ष गायब है। केवल औपचारिकता भर है।
उपन्यासकार के इस प्रयास की सराहना की जानी चाहिए। जिस मनोयोग से इसकी रचना हुईं है कि कभी ऐसा लगने लगता हे कि हम कहानी पढ़ रहे हैं। लेखक को असीम मंगलकामनाएं एवं मुबारकबाद !
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“मामक सार” – अंतर्वेदना का संवेग स्वर
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