मेरा अस्तित्व……..………
आज साठ पूरा करने के क़रीब पहुंचकर
देखा अपने अस्तित्व को
अपने आपको
अपने में खोकर।
अख़बार के मानिंद
तुड़े – मुड़े अपने अस्तित्व को
जिसके पीछे पड़ा रहा दिनभर
शाम के ढलते दियारे को लेकर
अब कहां फुरसत कि
अपने पन्ने को सीधा करूं ?
पढूं, वह अख़बार
जिसमें अब ख़बर ही नहीं
जो छापी मैंने जीवन भर।
जानता हूं,
अभी यह और तुड़ता – मुड़ता जाएगा
इसकी यही अंतिम गति है
बुझती लौ सरीखी
जानता हूं,
अब इसे ओढ़ – बिछा नहीं पाऊंगा
पहले की तरह
दिन – रात का ओढ़ना – बिछौना नहीं बना पाऊंगा
अब प्रतीक्षा है,
अंतिम यति की
फिर भी “अनथक” जारी है कोशिश
कुछ पाने की !
अपने अस्तित्व को अंततः खोकर !!
– राम पाल श्रीवास्तव ‘ अनथक ‘
( बहुत दिनों के बाद आज अख़बार की इस ‘ दुर्दशा ‘ को देखकर कुछ याद आया, कुछ कहने को बेचैन हुआ… वैसे मेरे पास यह अपने आप आती है अपना रंग – रूप बदलकर, लेकिन मैं हूं ही ऐसा कि पहचान लेता हूं इसे …. बुलाने से यह कतई नहीं आती ! स्वतःस्फूर्त आती है !! )